यदि आप इसे पढ़ रहे हैं, तो संभव है कि आप अधिकांश राजनीतिक सूचनाएं ऑनलाइन, टेलीविजन या अपने स्मार्टफोन से प्राप्त करते हों. इन मीडिया माध्यमों के इर्दगिर्द कई मिथक तैर रहे हैं, तथा कबाइली मानसिकता और प्रतिध्वनि-कक्ष वाले माहौल के कारण कई मिथकों पर पर्याप्त सवाल तक नहीं उठाए जाते और उन्हें सत्य के रूप में स्वीकृति मिल जाती है. मैं यहां कुछ प्रमुख मिथकों का पर्दाफाश करना चाहूंगा.
1. राष्ट्रवाद पर किसी का एकाधिकार नहीं है. भाजपा के नेता और समर्थक अपने से असहमत किसी भी व्यक्ति को ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देते हैं, इससे राष्ट्रवाद पर किसी एक पार्टी का हक नहीं हो जाता. हो सकता है कि अन्य दल राष्ट्रवाद को अपना मुख्य दायित्व नहीं घोषित करते हों, पर इसका मतलब ये नहीं है कि वे राष्ट्रीय हितों को लेकर किसी से कम संवेदनशील हैं.
साथ ही, राष्ट्रवाद और देशभक्ति दो भिन्न बातें हैं – रवींद्रनाथ टैगोर की तरह आप बिना राष्ट्रवादी (राष्ट्रीय पहचान को सर्वोपरि मानने वाला) हुए देशभक्त (अपने देश से प्यार करने वाला) हो सकते हैं.
इसके अतिरिक्त, यूरोपीय देशों के विपरीत भारतीय राष्ट्रवाद हमेशा उदारवादी, बहुलतावादी और समावेशी रहा है. इसलिए, वास्तव में अन्य भारतीय नागरिकों को धर्म, जाति, भाषा या नस्ल के आधार पर भिन्न साबित करना राष्ट्रविरोधी है.
2. गठबंधन सरकारें बुरी नहीं होती हैं. मीडिया में नकारात्मक प्रचार के बावजूद गठबंधन सरकारें बहुत अच्छा काम कर सकती हैं. वास्तव में, 1990 के दशक में भारत पर शासन करने वाली कमजोर गठबंधन सरकारें आर्थिक सुधारों पर अटल रहीं, परमाणु हथियार कार्यक्रम को जारी रखा तथा डब्ल्यूटीओ और कश्मीर को लेकर अंतरराष्ट्रीय दबाव का मुकाबला किया. भारत के आर्थिक इतिहास के एक संकटपूर्ण काल में एक अस्थिर गठजोड़ का नेतृत्व कर रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने से बिल्कुल मना कर दिया था. उनकी बमुश्किल एक साल चली सरकार के विधि मंत्री रमाकांत खलप ने सिविल प्रक्रिया संहिता को आधुनिक रूप दिया. कई बार गठबंधन सरकारों को नीतियों पर सरेआम बहस करते, जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त करते और अहं का तुष्टिकरण करते देख दुख होता है, फिर भी यह अंधेरे में रखे जाने के मुकाबले बेहतर स्थिति है.
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3. सभी दल एक जैसे नहीं हैं. अतीत में एक जुमला बारंबार सुनने को मिलता था, ‘सारे एक जैसे हैं.’ अब, कहा जाता है, ‘भाजपा के अलावा सारे एक ही जैसे हैं.’ नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरा मानना है कि पहचान और स्वतंत्रता को लेकर भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं के दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हैं. कुछ पहचान विशेष को लेकर अधिक प्रतिबद्ध हैं, जबकि अन्य का ऐसा दृष्टिकोण नहीं है; कुछेक का निजी उद्यमों पर विश्वास है, वहीं अन्य सरकार की बड़ी भूमिका के पक्षधर हैं; इसी तरह कुछ का व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दूसरों के मुकाबले अधिक यकीन है. यदि आपको अब भी लगता है कि ‘सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं’, तो उनका बारीकी से अध्ययन करें.
4. यह चुनाव मोदी के बारे में नहीं है. जैसा कि मैंने पिछले कॉलम में लिखा था, भाजपा इस संसदीय चुनाव को राष्ट्रपतीय चुनाव जैसा पेश कर रही है. वह ऐसा करने को स्वतंत्र है. पर, इसका मतलब ये नहीं कि मतदाता भी चुनाव को इसी रूप में देखेंगे. किसी को पता हो सकता है कि 90 करोड़ मतदाता किस ढर्रे पर वोट करेंगे, इस बारे में तर्क करना फिजूल है. भावनात्मक कारणों से लेकर व्यावहारिक कारणों तक, राष्ट्रीय पसंद से लेकर स्थानीय पसंद तक, और नीतिगत एजेंडे से लेकर जातिगत सोच तक, अनेकों कारक मौजूद हैं, और इनका अलग-अलग सीटों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ेगा.
5. यह चुनाव राहुल गांधी के बारे में भी नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से, नरेंद्र मोदी की किसी भी तरह की आलोचना पर एक ही प्रतिक्रिया होती है- आलोचना करने वालों को कांग्रेस का चमचा और वंशवाद का पिट्ठू करार देना (दिलचस्प बात है कि अक्सर खुद को मोदी का भक्त बताने वाले ऐसा करते हैं). उपलब्ध राजनीतिक विकल्प मात्र दो ही नहीं हैं, और मतदाता अन्य राजनीतिक दलों और निर्दलीयों को भी वोट दे सकते हैं. या ये भी संभव है कि वे किसी को भी वोट नहीं दें.
6. पर ‘नोटा’ सबसे बेकार विकल्प है. अपनी निराशा, हताशा या विरक्ति को जाहिर करने के अलावा, नोटा का कोई और उद्देश्य नहीं दिखता. मतदान का अधिकार वयस्कों को ही दिया गया है ना कि बच्चों को, और ये इसलिए कि वे असल दुनिया का सामना कर सकें. आदर्श उम्मीदवार कोई नहीं हो सकता. हमें उपलब्ध उम्मीदवारों में से ही एक को चुनना होगा. आप दो में से बेहतर उम्मीदवार को चुन सकते हैं, या आप मौजूद उम्मीदवारों में से सबसे कम बुरे को चुनें, पर आपको विकल्प चुनना चाहिए. एक नागरिक के रूप में ये आपका उत्तरदायित्व है और इससे बचना पलायन करने जैसा होगा.
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7. प्यार और युद्ध के विपरीत, चुनावों में सब कुछ जायज़ नहीं होता. लोग अक्सर चाणक्य को उद्धृत करते हुए आधुनिक चुनावों की तुलना प्राचीन काल में राजाओं के बीच होने वाले युद्ध से करते हैं. उनकी दलील होती है कि राजनीति में नैतिकता की कोई जगह नहीं है, और सिर्फ जीत ही मायने रखती है. जबकि इसके विपरीत, आधुनिक राजनीति संवैधानिक मर्यादाओं से बंधी है. संविधान के प्रावधानों या उसकी भावना के विपरीत किए जाने वाले कृत्य अनैतिक हैं. और, नियमानुसार चलने वाले एक ‘अहम संकेत’ देते हैं कि उनके संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा करने की संभावना अधिक है.
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(लेखक लोकनीति पर एक स्वतंत्र अनुसंधान और शिक्षा केंद्र, तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं.)