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Friday, 26 April, 2024
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तृणमूल-भाजपा की राजनीतिक हिंसा ने बंगाल के लंबे इतिहास में एक और अध्याय जोड़ा

कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन से लेकर नक्सलबाड़ी आंदोलन, वामपंथियों व तृणमूल के शासन और अब भाजपा के पांव जमाने के प्रयासों के बीच राज्य एक सदी से भी ज़्यादा समय से राजनीतिक हिंसा का गवाह रहा है.

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नई दिल्ली: कोलकाता मंगलवार को अभूतपूर्व हिंसा का गवाह बना जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रैली के दौरान कॉलेज स्ट्रीट के पास पार्टी कार्यकर्ताओं की तृणमूल कांग्रेस समर्थकों से भिड़ंत हो गई. संदिग्ध भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री और समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा के साथ भी तोड़फोड़ की.

इस बार के चुनाव में बंगाल में बारंबार राजनीतिक हिंसा की चर्चा होती रही है. राज्य में अब तक छह चरणों की वोटिंग हो चुकी है और इस दौरान राजनीतिक हिंसा में तीन लोगों की मौत हो गई, जबकि कई अन्य घायल हो गए.

हालांकि, पश्चिम बंगाल के लिए राजनीतिक हिंसा कोई नई बात नहीं है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 2014 के संसदीय चुनाव में राज्य में हिंसक घटनाओं में सात लोग मारे गए थे और 740 अन्य घायल हो गए थे. इसी तरह 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य के आसनसोल और मुर्शिदाबाद में चुनाव से जुड़ी हिंसा में तीन लोगों की मौत हो गई थी. जबकि 2015 के स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान राज्य में चुनावी हिंसा की 462 घटनाएं दर्ज की गई थीं, और हिंसक घटनाओं में चार लोगों ने जान गंवाई थी. इसी तरह पिछले साल पंचायती चुनावों के दौरान पश्चिम बंगला में कम-से-कम 13 लोग चुनावी हिंसा की भेंट चढ़ गए थे.

ऐसा नहीं है कि अन्य राज्यों में राजनीतिक हिंसा की घटनाएं नहीं हुई हैं, पर केरल जैसे राज्यों के विपरीत बंगाल में राजनीतिक हिंसा की जड़ें 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों तक जाती हैं.


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उग्रवादी प्रवृत्ति और नक्सलबाड़ी

जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सामंतक दास के अनुसार बंगाल में राजनीतिक हिंसा सर्वप्रथम ब्रितानी वायसराय लॉर्ड कर्जन के बंगाल के विभाजन के फैसले के विरोध में 1905 में हुई थी. उसके बाद आज़ादी मिलने तक बंगाल में हिंसक घटनाओं का सिलसिला चलता रहा था.

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दास कहते हैं, ‘बंगाल का राजनीति के एक खास उग्र रूप से वास्ता रहा है; हिंसा राज्य के राजनीतिक मानस में शामिल है. खुदीराम बोस, नेताजी बोस… स्वतंत्रता आंदोलन इसके उदाहरणों से भरा पड़ा है.’

आज़ादी के बाद, 1960 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन से बंगाल की राजनीति में एक हिंसक मोड़ आया.

दास कहते हैं, ‘नक्सलियों ने हिंसा का रास्ता चुना, क्योंकि चुनावों और लोकतंत्र पर उनका भरोसा नहीं था. उस समय राज्य में सत्तासीन कांग्रेस ने, खास कर शहरी इलाकों में, हिंसा को कायम रखने का काम किया. वामपंथी उन दिनों हिंसा झेल रहे थे.’

अंतत: 1977 में कांग्रेस का प्रभुत्व खत्म हो गया और वामपंथियों ने सत्ता हासिल कर ली, लेकिन हिंसा का चक्र जारी रहा. वामपंथियों के शासन का शुरुआती काल अपेक्षाकृत शांत रहा, हालांकि सरकार समर्थित हिंसा की छिटपुट घटनाएं होती रहीं.

अपना नाम न देने के आग्रह के साथ राजनीति के एक जानकार ने कहा, ‘शुरुआती वर्षों में वामपंथी भूमि सुधारों को लागू करने और ग्रामीण इलाकों में विकास कार्यों को लेकर व्यस्त रहे. उनकी ऊर्जा अधिकतर रचनात्मक कार्यों में खप रही थी.’

उक्त विशेषज्ञ के अनुसार, 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद वामपंथियों का खेल खत्म होने की शुरुआत हो गई. आर्थिक उदारीकरण के विरोधी रहे वामपंथियों की नीतियों ने, खास कर ग्रामीण इलाकों में, रोज़गार का भीषण संकट पैदा कर दिया. लोगों के पास करने को कुछ नहीं था. यही वो समय था जब पुराने नेता हाशिये पर चले गए और वामपंथी काडर में गुंडों और बाहुबलियों की भरमार हो गई. और खास कर ग्रामीण बंगाल में, हिंसा रोज़मर्रा की बात हो गई.


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वामपंथियों का तृणमूल से पाला

तब तक, ममता बनर्जी कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अपनी तृणमूल कांग्रेस का गठन कर चुकी थीं.

राजनीतिक विज्ञानी और प्रेसिडेंसी कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल अमल कुमार मुखोपाध्याय बताते हैं, ‘तृणमूल को इस बात का अहसास हुआ कि हिंसक हुए बिना आप सत्तारूढ़ पार्टी का मुकाबला नहीं कर सकते. 2007 से 2011 तक का समय सर्वाधिक हिंसक वर्षों में से था.’

दास ने आगे बताया कि कैसे तृणमूल ने नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों के हिंसक आंदोलनों के सहारे सत्ता में कदम रखा.

सत्ता हासिल करने के बाद भी तृणमूल ने अपना पुराना रवैया जारी रखा. नाम नहीं देने का आग्रह करने वाले विशेषज्ञ के अनुसार ‘इस पार्टी के पास भविष्य की कोई परिकल्पना नहीं है. वे जनता को डराने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं और सत्ता में बने रहने के लिए जाति और पहचान की राजनीति करते हैं.’

पिछले साल के पंचायत चुनाव इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं कि कैसे चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए तृणमूल ने हिंसा का इस्तेमाल किया. विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा लोकसभा चुनाव तृणमूल के लिए करो-या-मरो की लड़ाई है, क्योंकि उसे पता है कि सत्ता में रहकर ही वो प्रासंगिक बनी रह सकती है.


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भाजपा ने जोड़ा नया आयाम

बंगाल में पांव जमाने के लिए प्रयासरत भाजपा हिंसा का एक अलग ही रूप लेकर आई है, जिस पर कि सांप्रदायिक छाप है. हिंदुत्व के मुद्दे का इस्तेमाल करते हुए, भाजपा मतदाताओं के ध्रुवीकरण की भरसक कोशिश कर रही है. विगत तीन या चार वर्षों में, पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक तनाव की छोटे-स्तर की कई घटनाएं देखने को मिली हैं, जिनमें 2017 में रामनवमी के दौरान आसनसोल में हुई हिंसा भी शामिल है.

पर, राजनीतिक टीकाकारों में इस बात को लेकर मतभेद है कि बंगाल में हिंसा के ताज़ा दौर से किसे फायदा मिलेगा. ममता बनर्जी भाजपा समर्थकों द्वारा विद्यासागर की मूर्ति के साथ तोड़फोड़ से बंगाल के गौरव को चोट पहुंचने का उल्लेख करना शुरू भी कर चुकी हैं, वहीं भाजपा खुद को उत्पीड़ित पक्ष बताते हुए ‘विक्टिम कार्ड’ खेल रही है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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