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Sunday, 22 December, 2024
होम2019 लोकसभा चुनाव'जाटलैंड' में परेशानी का सामना कर रही बीजेपी ने सनी देओल को जल्दबाज़ी में समाधान बनाया है

‘जाटलैंड’ में परेशानी का सामना कर रही बीजेपी ने सनी देओल को जल्दबाज़ी में समाधान बनाया है

सनी देओल की उम्मीदवारी भाजपा द्वारा जाट नेताओं की कमी पूरा करने का एक प्रयास है, जिसके बिना पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी यूपी में राजनीति मुश्किल है.

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नई दिल्ली: बीजेपी ने रील लाइफ में बॉर्डर के नायक सन्नी देओल को रीयल लाइफ बॉर्डर क्षेत्र गुरदासपुर से उतारा है. यह उसके अतिराष्ट्रवादी नैरेटिव के लिए स्क्रिप्टेड लग सकता है, लेकिन इसके अलावा भी इसमें बहुत कुछ है.

देओल की उम्मीदवारी से भाजपा ने लंबे समय से चले आ रही एक समस्या का समाधान ढ़ूढ़ने की कोशिश की है. पार्टी को पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक भी जाट नेता नहीं खड़ा पाना उसे राजनीतिक रूप से पंगु बना देता था.

2013 के अंत में नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता संभालने के बाद भले भाजपा ने पंजाब को छोड़कर, इस क्षेत्र में हुए चुनावों में जीत हासिल की है, लेकिन जन आधार के साथ जाट नेताओं की कमी एक चुनौती बनी हुई है. राजनीतिक वैज्ञानिक सुहास पल्सीकर ने भाजपा की पारंपरिक छवि के रूप में इसे एक उच्च जाति की पार्टी के रूप में दिखाया गया है, इस तथ्य के साथ भी कि जाटों की हमेशा से ‘एक स्वतंत्र किस्म की अपनी राजनीति’ रही है.

सामाजिक इतिहासकार और राजनीतिक वैज्ञानिक जाटों के बीच नेतृत्व विकसित करने में भाजपा की विफलता को इस तथ्य के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं कि संगठन लंबे समय तक चरण सिंह, देवीलाल और महेंद्र सिंह टिकैत जैसे दिग्गजों के प्रभाव में था और अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों के प्रति वफादार रहा है.


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जाट नेताओं को बढ़ावा देने की कोशिश

देओल जाट नेताओं को बढ़ावा देने के लिए भाजपा द्वारा किए गए प्रयासों की श्रृंखला में नए हैं. उनके पिता, धर्मेंद्र, 2004 में बीकानेर से पार्टी के सांसद चुने गए थे, लेकिन वो अपने क्षेत्र को जैसे भूल गए हों. राजस्थान से सटे जिलों में ‘लापता सांसद’ के कई पोस्टरों द्वारा उनके कार्यकाल को याद किया जाता है.

धर्मेंद्र अब उत्तर प्रदेश के मथुरा के जाट बहुल इलाकों में अपनी पत्नी, अभिनेता और भाजपा नेता हेमा मालिनी के लिए प्रचार कर रहे हैं जो कि एक तमिल ब्राह्मण हैं.

1996 से अपने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल द्वारा पंजाब में शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित रहने के लिए मजबूर, भाजपा ने हमेशा पंजाब में जाटों के बीच इनके प्रतिनिधियों के रूप में अभिनेताओं और खिलाड़ियों देखा है.

पहलवान दारा सिंह 1998 में पार्टी में शामिल हुए और 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए. लेकिन दिवंगत पहलवान-अभिनेता, जो जाट महासभा के अध्यक्ष के रूप में सेवा करते थे, अपनी पार्टी का विस्तार करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सके. भाजपा को तब एक और जट्ट सिख, क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू मिले, जो एक राजनेता के रूप में होनहार दिखे, लेकिन पार्टी ने उन्हें 2017 में कांग्रेस के हाथों खो दिया.

जाट नेताओं को अपने साथ जोड़ने की मुहिम के लिए भाजपा ने अन्य राज्यों में भी शानदार परिणाम नहीं दिए.

राजस्थान में कुछ हलचल हुई

वाजपेयी द्वारा 1999 में जाट आरक्षण की घोषणा के बाद पार्टी ने राजस्थान में जाटों के बीच कांग्रेस के वोट-बैंक में भारी सेंध लगाई थी. 2002 में वसुंधरा राजे के राजस्थान भाजपा प्रमुख के रूप में नियुक्त होने के बाद इसने इस काम को और भी बढ़ा दिया.

मराठों के सिंधिया परिवार की वंशज, राजे ने खुद को ‘जाट बहू’ के रूप में पेश किया क्योंकि उनकी शादी धौलपुर के जाट राजघराने में हुई थी. उन्होंने इस समुदाय को लुभाने के लिए कई कदम उठाए जिसमें सांवरलाल जाट और दिगंबर सिंह को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कराने के अलावा राज्य के पूर्व डीजीपी और जाट महासभा के संरक्षक ज्ञान प्रकाश पिलानिया को दो बार राज्यसभा टर्म देना शामिल है. इसके अलावा बाड़मेर में जसवंत सिंह को राज्य कांग्रेस के पूर्व नेता सोनाराम को भाजपा के उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया.

2018 में मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के अंत तक, हालांकि, भाजपा जाटों के बीच अपने समर्थन के आधार को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही थी. 2016 में वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे सुभाष महरिया कांग्रेस में शामिल हो गए. 2017 में सांवरलाल और दिगंबर सिंह का निधन हो गया. इस चुनाव में सोनाराम को टिकट से वंचित कर दिया गया. जैसा कि आज भी राजस्थान में भाजपा के पास कोई बड़ा जाट नेता नहीं है, क्योंकि वह लोकसभा चुनावों में जाट वोटों को सुरक्षित करने के लिए पूर्व भाजपा नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी पर अपना दांव खेल रही है.


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हरियाणा में भी ऐसी ही कहानी

हरियाणा में, सबसे बड़े बीजेपी नेता आज चौधरी बीरेंद्र सिंह हैं, जो आजादी के पूर्व भारत में एक प्रमुख जाट नेता, सर छोटूराम के पोते हैं. लगभग चार दशकों तक एक कांग्रेसी, बीरेंद्र सिंह ने अगस्त 2014 में भाजपा को पराजित किया था, हालांकि, पूरे हरियाणा में पार्टी के लिए जाट वोट पाने के लिए उनके पास व्यापक अपील नहीं है.

यही हाल राज्य के वित्तमंत्री कैप्टन अभिमन्यु का है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, भाजपा के दो प्रमुख जाट नेता केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह और पूर्व मंत्री संजीव बाल्यान हैं. उन्होंने, ‘मोदी लहर’ पर सवार होकर पिछले लोकसभा चुनाव जीते थे, और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट-मुस्लिम दरार की पृष्ठभूमि में, उनके समुदाय पर उनकी पकड़ की 2019 के लोकसभा चुनावों में एक परीक्षा है.

प्रोफेसर बद्री नारायण, निर्देशक जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद का मानना ​​है कि भाजपा के पास जाट नेता नहीं हैं, क्योंकि पार्टी में एक शहरी मध्यवर्गीय चरित्र है, जबकि जाट ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े हैं.

हालांकि, वह जाटों के इस बदलाव को भाजपा को गले लगाने के लिए एक झुकाव के रूप में दिखा रहे हैं. वह इसे भाजपा के बदलते वर्ग के चरित्र के रूप में देखते हैं और यह सब मोदी के कारण है और इसलिए ये अस्थायी हो सकता है.

दिप्रिंट को बद्री ने बताया, ‘भाजपा अपने चरित्र को बदल रही है. यह अब केवल उच्च जातियों की पार्टी नहीं है. आप देख सकते हैं कि कैसे भाजपा और यहां तक ​​कि आरएसएस भी पिछड़े वर्ग के नेताओं को बढ़ावा दे रहा है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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