लोकसभा चुनाव की तिथि घोषित हो चुकी है और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस का संयुक्त रूप से चुनाव लड़ना अब संभव नजर नहीं आ रहा है. हालांकि इसकी कवायद अभी भी चल रही है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपने सहयोगी दलों अपना दल और भारतीय समाज पार्टी के सहयोगियों को तमाम मलाईदार पेशकश करके अपने साथ रोकने में कामयाब हो चुकी है. यह चर्चा अब अहम है कि कांग्रेस के लिए क्या रास्ता है? उत्तर प्रदेश की राजनीति में उसकी क्या जगह है?
कांग्रेस 1984 के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में कभी सत्ता के आसपास भी नहीं पहुंची. 1989 से वह सत्ता से बाहर है. उस साल प्रदेश में जन्मे बच्चे आज 30 साल के हो चुके हैं. उन्होंने कभी कांग्रेस की प्रदेश सरकार नहीं देखी है. कांग्रेस को 1984 में वोट देने वाले व्यक्ति कम से कम 56 साल उम्र के हो गए और जिन लोगों ने लगातार कांग्रेस की 3-4 सरकारें बनवाई हैं, वो 70 पार कर रहे हैं.
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कांग्रेस के बारे में 2014 के चुनाव में स्थापित किया गया कि यह घोटालेबाजों की पार्टी है. यूपी के लोग कांग्रेस को उसी नजरिये से देखते हैं, जैसा उन्हें सपा, बसपा और भाजपा ने बताया है. ऐसे में कांग्रेस को मतदाताओं को नए सिरे से प्रशिक्षित करना है.
कांग्रेस ने 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान प्राथमिकता पर बसपा के साथ गठजोड़ करने की कवायद की, लेकिन वह नहीं हो सका. उसके बाद सपा से भी शुरुआती बात चली, जो परवान नहीं चढ़ पाई. फिर राहुल गांधी के खटिया सम्मेलन होने लगे. ’27 साल, यूपी बेहाल’ नारा चला. फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि कांग्रेस ने सपा के साथ समझौता कर लिया. इसके साथ ही पार्टी के विस्तार की संभावनाएं जाती रहीं.
उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव की सरकार के खिलाफ भाजपा ने बहुत जोरदार नैरेटिव स्थापित कर दिया था कि यह यादवों की पार्टी है. अक्रामक रूप से प्रचारित किया गया कि नौकरियों में सिर्फ यादवों को जगह मिल रही है. सपा के शासन में यादव डॉमिनेंस छिपा नहीं रहता. इसके शिकार सबसे पहले तो पिछड़े वर्ग के लोग ही होते हैं और दलित तबका भी मारा जाता है. 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले लोगों के बीच यह चर्चा आम थी कि सपा यादवों की पार्टी है.
2007 की बसपा की जीत में यह स्थापित किया गया था कि पार्टी ब्राह्मण मतों से जीती है. बसपा के सत्ता में आते ही मलाईदार पदों पर ब्राह्मणों का कब्जा हो गया. पिछड़े तबके का जो थोड़ा बहुत ठेके पट्टे का धंधा था, वह चौपट हो गया. वहीं बसपा के सत्ता में आने पर दलितों की उग्रता का शिकार भी पिछड़ा वर्ग बना और अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिनियम के तहत तमाम मुकदमे दर्ज हुए. ओबीसी पर बसपा के ब्राह्मणवाद और दलितवाद दोनों की मार पड़ी थी.
2017 में कांग्रेस ने उस सपा से समझौता कर लिया, जिसे जनता ने सत्ता से बाहर करने का मन बना लिया था. बसपा अपने ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित फॉर्मूले के साथ अति आत्मविश्वास में थी. मायावती के 2007-12 काल में ओबीसी इस फॉर्मूले की मार भूल नहीं पाया था. ऐसे में भाजपा एक विकल्प के रूप में सामने आई और बसपा का ओबीसी मत पूरा का पूरा भाजपा में शिफ्ट हो गया. साथ ही ब्राह्मण मत भी भाजपा के साथ आया और बसपा औंधे मुंह गिरी. राज्य की राजनीति में मोदी फैक्टर नहीं, बल्कि विकल्पहीनता ने अहम भूमिका निभाई थी.
बसपा की तुलना में कांग्रेस से समझौता करके सपा बच गई. उसकी उतनी बुरी हार नहीं हुई, जितनी बसपा की. कांग्रेस के साथ आने से मुस्लिम मत बसपा से खिसककर सपा की ओर आ गया. लेकिन कांग्रेस ने पहले से ही बाजी हारे हुए दल के साथ समझौता करके अपनी जमीन गंवा दी और मतदाताओं के सामने खुद के बजाय भाजपा को विकल्प बन जाने दिया. शीला दीक्षित को यूपी में पार्टी का चेहरा बनाना भी कांग्रेस की ऐतिहासिक भूल थी, जिसने पिछड़े वर्ग को डरा दिया था.
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2019 के चुनाव में भी बसपा ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित फॉर्मूले पर चल रही है. उसे भरोसा है कि सपा के साथ गठबंधन के बाद पार्टी को कुछ यादव मत मिल जाएंगे, जो बसपा की सत्ता वापसी के लिए पर्याप्त होगा. सपा-बसपा ओबीसी मसलों से दूर, 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण के समर्थन में इस आस से खड़े हैं कि उन्हें सवर्ण मत मिल जाएंगे.
कांग्रेस अक्रामक है. उसने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ओबीसी पर दांव खेला है. पार्टी ने ओबीसी की वर्षों की मांग पूरी करते हुए मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर दिया. उत्तर प्रदेश में वह बड़े पैमाने पर ओबीसी को पार्टी के साथ जोड़ रही है.
सपा-बसपा से दुखी होकर भाजपा को सत्ता में लाने वाला यूपी का ओबीसी फिर निराश है. ऐसे में कांग्रेस राज्य में नया विकल्प बन सकती है. राजनीति में हमेशा एक और एक 11 नहीं होते, शून्य भी हो जाता है. भाजपा अगर संयुक्त विपक्ष से लड़े तो वह यूपी में यह स्थापित करेगी कि एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाने वाले स्वार्थी लोग एक साथ आ गए हैं. ऐसे में संभव है कि पूरा गठबंधन हार जाए. कांग्रेस के लिए अपने दम पर लड़ना ही बेहतर है, वरना सपा-बसपा की सवर्णपरस्ती के साथ उसके काम भी मझधार में चले जाएंगे और पार्टी डूब जाएगी.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)