17वीं लोकसभा चुनावों के लिए चल रहे मतदान के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कथित अराजनीतिक बातचीत के बाद सुर्खियों और अपनी कनाडा की नागरिकता के सवाल पर विवादों में आए फिल्मी अभिनेता अक्षय कुमार ने स्वीकार किया कि उनके पास कनाडा का पासपोर्ट है. उन्होंने कहा कि (कनाडा की नागरिकता के बाद) इन वर्षों में मुझे किसी को भारत के प्रति अपने प्यार को सिद्ध करने की जरूरत नहीं पड़ी.
इससे पहले पिछले कुछ सालों के दौरान अक्षय कुमार ने देशभक्ति पर केंद्रित कई ऐसी हिंदी फिल्में कीं, जिसके जरिए उनकी छवि एक ‘देशभक्त हीरो’ के तौर पर कायम हुई. इसके अलावा, अक्षय कुमार को आजकल नरेंद्र मोदी सरकार के प्रवक्ता हीरो की शक्ल में भी देखा जाता है, जो फिल्मों में आरएसएस के विचार और भाजपा सरकार के कार्यक्रमों का प्रचार करते हैं.
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दूसरी ओर, फिल्मी दुनिया की एक अभिनेत्री कंगना रनौत ने भी हाल के दिनों में अपनी एक ‘राष्ट्रवादी छवि’ बनाई है, जो आरएसएस-भाजपा के राष्ट्रवाद की परिभाषा को तुष्ट करती है. हाल ही में मतदाताओं को अपने संदेश में कंगना ने कहा- ‘यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दिन है. मुझे लगता है कि आज भारत सही अर्थ में आजाद हो रहा है, क्योंकि इसके पहले हम मुगलों, ब्रिटिश और इटालियन सरकारों के नौकर थे. कृपया अपने स्वराज का उपयोग करें और वोट दें… जैसा मैंने कहा कि अब हमारा स्वराज और स्वधर्म का टाइम आया है.’
हो सकता है कि अक्षय कुमार और कंगना रनौत के बयानों और छवियों को इसमें मौजूद हल्केपन के तत्व के हिसाब से ही देखा जाए और बाकी बयानों की तरह ही गुजर जाने दिया जाए. लेकिन क्या ये बातें सचमुच यूं ही बेअसर गुजर जाती हैं?
यह याद रखा जाना चाहिए कि सिने जगत की ऐसी सेलिब्रिटीज की बिल्कुल हल्की, बेमतलब या कई बार बेवकूफाना बातों को भी खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है, खूब प्रचारित-प्रसारित किया जाता है. तो भारत में औसत जनता के सोचने-समझने का जो स्तर छोड़ा गया है, उन तक अक्षय कुमार या कंगना रनौत जैसी ‘राष्ट्रवादी छवियों’ और उनकी बातों ने क्या सचमुच कोई असर नहीं किया होगा?
जैसे अक्षय कुमार कनाडा के नागरिक होने के बावजूद खुद को भारत-प्रेमी बताना नहीं भूलते, क्योंकि उनकी देशभक्त हीरो की छवि से ही उनकी देशभक्ति का कारोबार करने वाली फिल्में हिट होती हैं. वहीं, कंगना के बोलने के लिए तैयार की गईं बातों में शायद गलती से ‘ब्रिटिश’ शब्द आ गया, वरना वे शायद केवल ‘मुगलों’ और ‘इटालियन’ की कहना चाहती थीं!
जहां तक कंगना का सवाल है, पिछले कुछ समय से उनके सार्वजनिक विचारों से यह साफ था कि वे खुल कर अपनी बात कहने में विश्वास करती हैं. यह अच्छी बात है. इसी तरह, अक्षय कुमार अपनी फिल्मों में देशभक्ति को सबसे बड़ा मुद्दा बना रहे हैं और उसका प्रचार करने के लिए वे देश के अलग-अलग हिस्सों में भारत के लिए देशभक्ति की भावना का जबरन प्रदर्शन करते हैं. लेकिन अब देखना चाहिए कि फिल्मी सितारों की बातों और अभिव्यक्तियों का सामाजिक असर क्या है. सार्वजनिक स्तर पर सबके सुनने-समझने के लिए सबको संबोधित उनकी बातों को उनकी मशहूर शख्सियत के आलोक में देखे जाने की जरूरत है.
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जब ‘क्वीन’ फिल्म आई थी, तब उसकी मुख्य चरित्र के रूप में नायिका को जितनी तारीफें मिलीं, वे सब इस चरित्र को निभाने वाली बॉलीवुड तारिका कंगना रनौत के हिस्से गईं. इसके अलावा, निजी प्रसंगों में भी कंगना रनौत ने जिस तरह के स्टैंड लिए, उसे एक बहादुर स्त्री की ताकत और पितृसत्ता के खिलाफ एक मजबूत प्रतिरोध के रूप में देखा गया. यानी उन्हें मर्दवाद और पितृसत्ता के खिलाफ एक ताकतवर और भरोसे से भरी हुई औरत के चेहरे के रूप में खासतौर पर आधुनिक और युवा भारतीय स्त्रियों के बीच काफी लोकप्रियता मिली.
लेकिन किसी प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचार से लैस शख्सियत की छवि के साथ एक बड़े तबके के बीच मशहूर होना और उस विचार के साथ उस भरोसे को बनाए रखना- दोनों दो बातें हैं. कुछ समय पहले जब उनकी फिल्म ‘मणिकर्णिका’ पर्दे पर आने वाली थी और करणी सेना नामक एक जातीय संगठन ने फिल्म को बाधित करने की कोशिश की, तब कंगना रनौत का एक बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने कहा कि मैं राजपूत हूं, मैं सबको बर्बाद कर दूंगी. अंदेशा होता है कि क्या उन्होंने ‘क्वीन’ की किरदार को केवल पटकथा पढ़ कर सिनेमा के पर्दे तक के लिए जी लिया और क्या अपने अधिकारों को लेकर उनके सार्वजनिक बयान के पीछे कोई सुचिंतित विचार या चेतना की जमीन नहीं थी?
यह याद रखना चाहिए कि एक मशहूर हस्ती की किसी गतिविधि या सार्वजनिक विचार का जनता के बीच असर पड़ता है. कई बार इतनी जल्दी और इस हद तक कि उसे संभाल पाना मुश्किल होता है. तो कंगना जब कह रही थीं कि अब तक हम मुगलों, ब्रिटिश और इटालियन सरकारों के नौकर थे, तब क्या उन्हें इस बात का एहसास था कि उनकी इस बात का असर उस पीढ़ी पर क्या पड़ेगा, जिसे आलोचनात्मक विवेक से दूर रखा गया है और सच को स्वीकार करने के बजाय उसे भ्रम और झूठ के कारोबार में डुबो दिया गया है. उन्होंने जिस तरह भारत के ‘इटालियन सरकारों’ की अधीनता की बात की, उसका राजनीतिक रूपांतरण क्या होगा और उसका चुनावों में वोटिंग पर उसका क्या असर होगा!
इसी तरह, देशभक्ति फिल्मों के जरिए भारत में एक बड़े तबके के मानस में देशभक्त हीरो की छवि के साथ अक्षय कुमार को काफी लोकप्रियता मिली है और उनकी सार्वजनिक गतिविधियों में देशभक्ति की छौंक से देश के आम लोग बेहद प्रभावित होते हैं. लेकिन जब वे देशभक्ति के नाम पर भाजपा सरकार की नीतियों के प्रचारक की भूमिका में दिखते हैं तो यह उनकी फिल्मी भूमिकाओं के जरिए आम जनता के बीच उसी देशभक्ति का गुबार खड़ा करके एक खास पार्टी के पक्ष में माहौल बनाना होता है.
बहरहाल, अक्षय कुमार और कंगना रनौत के बरक्स एक बॉलीवुड सितारा हैं मल्लिका शेरावत! कुछ फिल्मों के जिरए उनकी आम पहचान बहुत सकारात्मक और स्त्री अधिकारों के लिए मुखर शख्सियत के रूप में रही है. लेकिन उनका कुछ साल पहले का एक वीडियो वक्तव्य वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने साफ लहजे में कहा कि ‘औरतों की स्थिति है हमारे देश में वो प्रतिगामी है, दुखद है. लड़कियों को गर्भ में ही मार डालना रोजमर्रा की घटना है, आमतौर पर मीडिया की सुर्खियों में सामूहिक बलात्कार की घटनाएं, ऑनर किलिंग, कम उम्र में लड़कियों की शादी…वगैरह! मैं समझती हूं कि यह एक बेहद प्रतिगामी स्थिति है देश में.’ उन्होंने साफ कहा कि अगर कोई मुझसे औरतों की स्थिति के बारे में पूछे तो मुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए.
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तो अक्षय कुमार और कंगना रनौत के बरक्स मल्लिका शेरावत के विचारों को कैसे देखा जाएगा! मल्लिका शेरावत ने थोड़ा कड़वा बोला, लेकिन सच बोला. यहां से किसी समाज और देश की बुनियाद में पसरे सड़ांध को दूर करने का रास्ता निकाला जा सकता है. लेकिन सड़ती हुई जमीन पर देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पर्दा टांग कर त्रासद हकीकतों को अंतिम रूप से नहीं छिपाया जा सकता है.
राष्ट्रवाद का मतलब अगर देश के तमाम लोगों का विकास और उन्हें राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाना है तो ये परिकल्पना मल्लिका के बयान में बेहतर साकार होती है.
तो देशभक्ति, राष्ट्रवाद और देश के वास्तविक हालत पर सवाल अलग-अलग बातें हैं. फिल्मों के जरिए लोकप्रिय हुए चेहरों या सेलिब्रिटियों के बूते देशभक्ति जैसा कोई भावनात्मक गुबार खड़ा करके चुनावी लाभ तो बटोरा जा सकता है, लेकिन आम लोगों की मुश्किलों का हल नहीं निकाला जा सकता.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)