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Thursday, 11 September, 2025
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जलवायु संकट को युद्ध के बारे में हमारी सोच को क्यों बदलना चाहिए

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(डंकन डेप्लेज, लॉघबरो विश्वविद्यालय)

लॉघबरो, सात सितंबर (द कन्वरसेशन) पृथ्वी का औसत तापमान 2024 में पहली बार पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ गया, जो जलवायु संकट की एक महत्वपूर्ण सीमा है। साथ ही, यूक्रेन, गाजा, सूडान और अन्य जगहों पर व्यापक स्तर पर सशस्त्र संघर्ष जारी है।

युद्ध और जलवायु परिवर्तन के बीच का संबंध जटिल है। लेकिन यहां तीन कारण दिये गए हैं कि जलवायु संकट को युद्ध के बारे में हमारी सोच को क्यों बदलना चाहिए।

1. युद्ध जलवायु परिवर्तन को बढ़ाता है

युद्ध की अंतर्निहित विनाशकारी क्षमता ने लंबे समय से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन हम हाल ही में इसके जलवायु संबंधी प्रभावों के प्रति अधिक जागरूक हुए हैं। यह मुख्य रूप से शोधकर्ताओं और नागरिक समाज संस्थाओं द्वारा युद्ध, विशेष रूप से यूक्रेन और गाजा में, से उत्पन्न ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का हिसाब लगाने के प्रयासों के बाद हुआ है। साथ ही, सभी सैन्य अभियानों और युद्धोत्तर पुनर्निर्माण से होने वाले उत्सर्जन को भी दर्ज किया जा रहा है।

‘साइंटिस्ट्स फॉर ग्लोबल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ तथा ‘कॉन्फ्लिक्ट एंड एनवायरनमेंट ऑब्जर्वेटरी’ द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि विश्व भर की सेनाओं का कुल कार्बन फुटप्रिंट रूस से भी अधिक है, जिसका वर्तमान में विश्व में चौथा सबसे बड़ा फुटप्रिंट है।

माना जाता है कि अमेरिका का सैन्य उत्सर्जन सबसे अधिक है। ब्रिटेन स्थित शोधकर्ता बेंजामिन नीमार्क, ओलिवर बेल्सर और पैट्रिक बिगर के अनुमान बताते हैं कि अगर अमेरिकी सेना को एक देश माना जाए, तो वह दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में 47वें स्थान पर होती। इस हिसाब से यह पेरू और पुर्तगाल के बीच आता।

हालांकि, ये अध्ययन सीमित आंकड़ों पर आधारित हैं। कभी-कभी सैन्य एजेंसियों द्वारा आंशिक उत्सर्जन आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं और शोधकर्ताओं को आधिकारिक सरकारी आंकड़ों और संबंधित उद्योगों के आंकड़ों का उपयोग करके अपनी गणनाएं भी करनी पड़ती हैं।

देश-दर-देश इसमें भी काफी भिन्नता है। कुछ सैन्य उत्सर्जन, विशेष रूप से चीन और रूस का आकलन करना लगभग असंभव साबित हुआ है।

युद्ध जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को भी खतरे में डाल सकते हैं। उदाहरण के लिए, यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से, आर्कटिक में पश्चिमी देशों और रूस के बीच वैज्ञानिक सहयोग टूट गया है। इससे महत्वपूर्ण जलवायु डेटा संकलित नहीं हो पा रहा है।

सैन्यवाद के आलोचकों का तर्क है कि जलवायु संकट में युद्ध के योगदान को स्वीकार करना उन लोगों के लिए एक गंभीर कदम होना चाहिए जो सैन्य शक्ति को बनाए रखने और बढ़ाने पर भारी संसाधन खर्च करने को तैयार हैं।

कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि जलवायु आपदा से निपटने का एकमात्र रास्ता विसैन्यीकरण ही है।

2. जलवायु परिवर्तन के लिए सैन्य प्रतिक्रिया की आवश्यकता

जलवायु पर युद्ध के प्रभाव के सामने आने से पहले, शोधकर्ताओं ने इस बात पर बहस की थी कि क्या जलवायु संकट ‘‘खतरे को बढ़ाने वाला’’ एक कारक बन सकता है?

इस कारण कुछ लोगों ने यह तर्क दिया है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया के उन हिस्सों में हिंसा के जोखिम को और बढ़ा सकता है जो पहले से ही खाद्य और जल असुरक्षा, आंतरिक तनाव, कुशासन और क्षेत्रीय विवादों से जूझ रहे हैं।

पश्चिम एशिया और सहेल (अफ्रीका) में कुछ संघर्षों को पहले ही ‘‘जलवायु युद्ध’’ करार दिया जा चुका है, जिसका अर्थ है कि अगर जलवायु परिवर्तन के दबाव न होते तो शायद ये संघर्ष होते ही नहीं। अन्य शोधकर्ताओं ने प्रदर्शित किया है कि ऐसे दावे कितने विवादास्पद हैं। हिंसा में शामिल होने या युद्ध में जाने का कोई भी निर्णय हमेशा लोगों द्वारा लिया जाता है, जलवायु द्वारा नहीं।

जलवायु संकट भविष्य में और अधिक हिंसा और सशस्त्र संघर्ष का कारण बनेगा या नहीं, इसका अनुमान लगाना असंभव है। यदि ऐसा होता है, तो सैन्य बल की अधिक बार तैनाती की आवश्यकता हो सकती है। साथ ही, यदि जलवायु संबंधी आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता से निपटने के लिए सेनाओं पर निर्भर रहा जाता है, तो उनके संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ेगा।

3. सशस्त्र बलों को अनुकूलन करना होगा

भू-राजनीतिक तनाव और संघर्ष बढ़ने के साथ, यह असंभव प्रतीत होता है कि विसैन्यीकरण की मांग जल्द ही पूरी होगी। इससे शोधकर्ताओं के सामने यह असहज स्थिति पैदा हो गई है कि उन्हें इस बात पर पुनर्विचार करना होगा कि एक ऐसे विश्व में सैन्य बल का प्रयोग कैसे किया जा सकता है – और किया जाना चाहिए – जो एक साथ तेजी से बढ़ते जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने और जीवाश्म ईंधन पर अपनी गहरी निर्भरता से मुक्त होने का प्रयास कर रहा है।

वर्ष 2018 में, अमेरिका में दो बड़े तूफानों ने सैन्य बुनियादी ढांचे को 8 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान पहुंचाया।

उन्नीसवीं सदी के आरंभ में, प्रशा के जनरल कार्ल वॉन क्लॉज़विट्ज़ ने तर्क दिया था कि हालांकि युद्ध का स्वरूप शायद ही कभी बदलता है, लेकिन इसका स्वरूप समय के साथ निरंतर विकसित होता रहता है।

यदि हमें अभी यह समझना है कि भविष्य में युद्ध क्यों और कैसे लड़े जाएंगे, साथ ही यह कि कुछ युद्धों को कैसे टाला जा सकता है या कम विनाशकारी बनाया जा सकता है तो जलवायु संकट के पैमाने और व्यापकता को समझना आवश्यक होगा।

(द कन्वरसेशन) सुभाष नरेश

नरेश

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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