काठमांडू: सैन्य कर्फ्यू हटने के एक दिन बाद काठमांडू के बुजुर्गों ने अपनी दुकानें खोलीं, शाम की सैर शुरू की और ज़िंदगी वैसे ही जीने लगे जैसे जेन ज़ी के नेतृत्व वाले प्रदर्शन से पहले थी.
देश के युवा—जो राजनीतिक वर्ग में फैले कथित भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से नाराज़ थे, उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की अगुवाई वाली सरकार को सफलतापूर्वक गिरा दिया. हालांकि, 50 और 60 साल के कई लोग अराजकता के दौरान घरों में ही रहे, लेकिन उनका भी मानना था कि यह आंदोलन बहुत पहले होना चाहिए था.
53 वर्षीय विष्णु न्यौपाने ने यह बताते हुए कि अवसरों की कमी वाले देश में वित्तीय मदद की कितनी ज़रूरत है, कहा, “जब एक नेपाली पैदा होता है तो उसके सिर पर पहले से ही 90,000 नेपाली रुपये का कर्ज़ होता है. भ्रष्टाचार को केवल घटाना ही नहीं बल्कि पूरी तरह मिटाना चाहिए. देश की सारी समस्याएं इसी पर जाकर टिकती हैं.”
न्यौपाने, जो राजधानी के हवाईअड्डे के बाहर एक छोटी स्टेशनरी की दुकान चलाते हैं, प्रदर्शन में शामिल नहीं हुए, लेकिन जब युवा बेहतर भविष्य की मांग के साथ सड़कों पर उतरे, तो वे चुपचाप सिर हिलाकर उनकी मंजूरी जताते रहे.
ढाका कपड़े की पारंपरिक टोपी पहने ग्राहकों को पेन और कॉपियां बेच रहे न्यौपाने ने पूछा, “आपको क्यों लगता है कि बुजुर्ग प्रदर्शन के दौरान चुप रहे? क्योंकि इस सरकार ने जनता को कोई सेवा नहीं दी. सरकार को गिराने से उनकी ज़िंदगी पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला था.”

देश में रोज़गार की खराब स्थिति के कारण न्यौपाने का बेटा दो साल पहले ऑस्ट्रेलिया चला गया. काठमांडू में वह एक निजी बैंक में शाखा प्रबंधक के तौर पर काम करता था, जहां मास्टर डिग्री होने के बावजूद उसे सिर्फ 22,000 नेपाली रुपये मिलते थे. उन्होंने कहा, “मुझे खुशी नहीं है कि वह चला गया, लेकिन कम से कम भविष्य में वह कुछ हासिल कर सकेगा.”
‘सरकारें कुछ नहीं कर रहीं’
देश के ज्यादातर युवा वयस्कों को ज्यादा याद नहीं है कि 2008 से पहले नेपाल कैसा था, जब यह राजशाही से संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य बना, लेकिन जिन्होंने दोनों दौर देखे हैं, उनके लिए भ्रष्टाचार एक गहरी जड़ जमाए समस्या है, जिसका बड़ा कारण 2015 में संविधान लागू होने के बाद सात प्रांतों (राज्यों) की घोषणा को माना जाता है.
काठमांडू के मशहूर पर्यटक क्षेत्र थमेल में अपनी छोटी दुकान चलाने वाले 62-वर्षीय नकुल ज्ञवाली ने कहा, “इतने छोटे देश में प्रांतीय सरकारें कुछ काम नहीं कर रहीं. हर प्रांत का अपना एक प्रतिनिधि है. इस पूरे सिस्टम को चलाने के खर्चे कहां से आ रहे हैं?”
ज्ञवाली ने समझाया कि पहले राजशाही के दौरान एक द्विसदनीय संसद हुआ करती थी—प्रतिनिधि सभा में 205 सदस्य और राष्ट्रीय सभा में 65 सदस्य. उस समय देश पांच विकास क्षेत्रों में बंटा था. आज संघीय संसद और प्रांतीय सभाओं में मिलाकर 800 से ज्यादा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं.
उन्होंने कहा, “जब लोकतंत्र आया तो यह अच्छी बात थी. जनता को अपने विचार रखने का मौका मिला, लेकिन जिस तरह यह आया, वह अलग बात है. उनका कहना था कि मंत्रियों की संख्या बढ़ने से जनता का पैसा उनकी तनख्वाहों में खत्म हो गया. जब पैसे खत्म हो गए, तो हर जगह भ्रष्टाचार घुस आया.”

ज्ञवाली ने कहा कि सरकारी दफ्तरों में फाइलें सिर्फ घूमती रहती हैं और किसी निजी व्यक्ति का काम तब तक नहीं होता जब तक मेज़ के नीचे से पैसे न दिए जाएं और तीन स्तर की सरकार—नगरपालिका, प्रांतीय और संघीय होने से टैक्स भी बढ़ गए हैं.
उन्होंने कहा, “यही वजह है कि जेन ज़ी प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे. वे साफ-साफ हिसाब चाहते थे कि हमारे टैक्स का इस्तेमाल कहां हो रहा है.”
भारत से तुलना
55 साल के नारायण दाहन नई बानेश्वर में अपनी मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान पर बैठे हैं. उनकी दुकान संसद भवन के पास है, जिसे जेन ज़ी प्रदर्शनकारियों ने आग के हवाले कर दिया था. दुकान में टीवी पर पिछले हफ्ते की घटनाओं पर चर्चा हो रही है और इसी बीच वे देश की नौकरशाही से अपनी नाराज़गी और आंदोलन के प्रति समर्थन समझा रहे हैं.
दाहन ने कहा, “मेरी बेटी ने बैंगलोर यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया, लेकिन जब उसने यहां मास्टर डिग्री के लिए आवेदन किया तो त्रिभुवन यूनिवर्सिटी ने बीयू के फैकल्टी को मान्यता नहीं दी. उन्होंने बताया कि अपनी बेटी के प्रमाण पत्र की मान्यता के लिए उन्हें मंत्रियों के दफ्तर तक जाना पड़ा. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट होने वाले छात्रों को भी यहां यही समस्या झेलनी पड़ती है. क्या हमारा शिक्षा तंत्र भारत या यूनाइटेड किंगडम से बेहतर है?”
दाहन ने आगे नेपाल की तुलना भारत से करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार दोनों देशों में है, लेकिन भारत में काम फिर भी हो जाता है. उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार सत्ता में आए हैं. अगर इतनी व्यापक असंतुष्टि होती तो यह संभव नहीं होता. इससे पता चलता है कि वहां सरकार नियंत्रण में है.”
दाहन की दुकान के सामने 68 साल के चूड़ा मणि अरियाल अपने दो दोस्तों के साथ चुपचाप लोगों को गुज़रते हुए देख रहे थे. नेपाली भाषा के सेवानिवृत्त शिक्षक अरियाल ने याद किया कि कैसे देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टियां शुरू में राष्ट्र को सुधारने के लिए काम करती थीं, लेकिन अब भटक गई हैं.
अरियाल ने कहा, “वे स्वार्थी हो गए और जनता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल गए.” उन्होंने यह भी माना कि नेपाली कांग्रेस, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड मार्क्सवादी–लेनिनवादी) और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) ने देश के इतिहास में सकारात्मक योगदान दिया.
उन्होंने आगे कहा, “यह वही होता है जब जनता की मांगों की अनदेखी की जाती है. हमारे राष्ट्रीय भवनों का नुकसान देखिए.” अरियाल के मुताबिक, नेपाल में छह महीने में चुनाव नहीं होंगे, भले ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया है.
उन्होंने कहा, “संविधान और ज़मीनी हकीकत इसे बहुत मुश्किल बना देंगे.” उन्होंने स्थिति की तुलना बांग्लादेश से की, जहां पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के सत्ता से हटने के एक साल से अधिक वक्त बाद भी आम चुनाव नहीं हुए.
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