(मैथ्यू शार्पे, ऑस्ट्रेलियर कैथोलिक यूनिवर्सिटी)
मेलबर्न, तीन नवंबर (360इंफो) दुनिया एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश को आकार लेते देख रही है, जिसमें लोकतांत्रिक देशों का एक बड़ा हिस्सा नकली उद्धारक ‘‘शक्तिशाली लोगों’’ में अपना विश्वास रखता है, जिनकी ‘‘लोकलुभावन’’ अपील झूठ बोलने, बढ़ा-चढ़ाकर बात कहने और विरोधियों को बेखौफ होकर धमकाने की उनकी क्षमता पर आधारित है।
दार्शनिक, लेखक और ‘फ्रेंच रेजिस्टेंस’ (नाजियों के फ्रांस पर कब्जे का खिलाफ एकजुट होकर लड़नेवाला समूह) के सदस्य अल्बर्ट कैमस ने लिखा था कि अधिनायकवाद के विरुद्ध संघर्ष कुछ महत्वपूर्ण अंतरों को बचाए रखने का संघर्ष था।
यह स्पष्ट रूप से सोचने और बोलने की क्षमता में निहित है।
हम सत्ता के लिए महत्वाकांक्षी लोगों द्वारा भाषा को विकृत करने की अनुमति नहीं दे सकते, जिससे यह उनके हाथों में सांस्कृतिक हथियार बन जाए।
सत्तावादी शासन का समर्थन करने वालों का मूल सिद्धांत यह है कि सब कुछ राजनीतिक है: संसदीय बहस से लेकर टेलर स्विफ्ट के गीत और आकर्षण तक।
जब संस्कृति को युद्ध के रूप में देखा जाता है, तो विरोधियों को धोखा देने, विभाजित करने और बदनाम करने के लिए भाषा का उपयोग एक विशेषता के तौर पर किया जाता है।
लोकतंत्रों के लिए उदार मानदंडों और संस्थाओं को उखाड़ फेंकने का मुख्य साधन लोकतंत्र के रक्षकों के साथ एक झूठी समानता बनाना है।
अगर किसी के राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए झूठ बोलना और गलत बयानी करना ज़रूरी है, तो वह पहले उन लोगों पर झूठा होने का आरोप लगाएगा जिन्हें वह धोखा देना चाहता है। अगर कोई अपने प्रिय सिद्धांतों से विश्वासघात करना चाहता है, तो उसे दूसरे पक्ष पर यह आरोप लगाना होगा कि उसने पहले ही ऐसा कर लिया है।
यदि कोई अदालतों का राजनीतिकरण करना चाहता है, खुलेआम पक्षपातपूर्ण नियुक्तियां करना चाहता है और उन न्यायाधीशों को धमकाना चाहता है जिनसे वह असहमत है, तो उदारवादियों पर ‘कानूनी लड़ाई’ का आरोप लगाता है।
यदि आप स्वयं को उच्च पद पर दोषी ठहराए गए अपराधी का समर्थन करते हुए पाते हैं, तो विडंबना यह है कि आपको पुराने मार्क्सवादी बर्टोल्ट ब्रेख्त की बात दोहरानी होगी, जो बैंकों के प्रति उनकी व्यंग्यात्मक टिप्पणी में, पूरी न्यायपालिका के संबंध में कहते हैं, ‘‘बैंक की स्थापना की तुलना में बैंक लूटना क्या है?’’
इस रणनीति के कई फायदे हैं। इसे विशेष रूप से ‘व्हाटअबाउटइज्म’ के नाम से भी जाना जाता है।
‘व्हाटअबाउटइज्म’ का अभिप्राय आलोचना करने वाले पर बयानबाजी, आरोप लगा कर उसके कथित पाखंड या किसी अन्य असंबंधित मुद्दे पर ध्यान केंद्रित कर पलटवार किया जाता है।
इस कमजोर करने वाली प्रक्रिया के कारण उदार लोकतांत्रिक समाजों में पले-बढ़े कई लोग – जिनकी यह अपेक्षा होती है कि राजनीति कम से कम ईमानदारी के दिखावे के साथ की जानी चाहिए – स्तब्ध और भ्रमित हो जाते हैं।
तथ्यों की तोड़-मरोड़ और आरोप भ्रम पैदा करते हैं, जिससे आत्म-संदेह पैदा हो सकता है (‘क्या हमने/उदारवादियों ने वास्तव में ऐसा किया है?’) या यहां तक कि अपराध बोध भी पैदा हो सकता है, जो एक ठोस सैद्धांतिक प्रतिक्रिया को धीमा कर देता है।
हन्ना अरेंड्ट इससे कहीं आगे जाते हैं, लेकिन कुछ हद तक उनके रुख में वास्तविकता है खासतौर पर जब उन्होंने दावा किया कि अधिनायकवादी शासन को स्पष्ट विचार वाले लोगों की नहीं, बल्कि ऐसे भ्रमित लोगों की आवश्यकता है, जो सच्चाई का पता लगाने की अपनी क्षमता पर विश्वास खो चुके हों।
दूसरा, नैतिक समतुल्यता का सुझाव देकर, ‘निंदक रणनीति’ वास्तव में जूरी का राजनीतिकरण करने, पक्षपातपूर्ण और प्रचारक मीडिया स्रोतों को प्रायोजित करने के प्रत्यक्ष कदमों के लिए नैतिक आधार तैयार करती है।
अल्बर्ट कामू ने हिटलरवाद और स्टालिनवाद का जवाब देते हुए 1952 में अपनी पुस्तक ‘द रिबेल’ में दूरदर्शी विवेक के साथ इस बारे में लिखा है।
वह सत्तावादी अधिग्रहण के चरम, अपरिहार्य परिणाम की बात कर रहे हैं, जिसमें बाहरी समूहों पर अत्याचार और हत्या शामिल है।
जो व्यक्ति हत्या या अत्याचार में संलिप्त होता है, उसकी विजय केवल एक ही छाया से धूमिल होती है: वह यह महसूस ही नहीं कर पाता कि वह निर्दोष है। इसलिए, वह अपने शिकार में अपराधबोध पैदा करता है ताकि, इस दिशाहीन दुनिया में, सार्वभौमिक अपराधबोध बल प्रयोग के अलावा किसी और उपाय को अनुमति न दे और सफलता के अलावा किसी और चीज़ को समर्थन न करे।
जब निर्दोष होने की अवधारणा स्वयं निर्दोष पीड़ित के मन से गायब हो जाती है, तो शक्ति का मूल्य निराशा की दुनिया पर एक निश्चित शासन स्थापित करता है।
‘‘उन्होंने इसे शुरू किया’’ की इस प्रमुख रणनीति का एक परिणाम यह है कि यदि कोई एक अनुदार, सत्तावादी नेता को स्थापित करने के लिए लोकतांत्रिक, संवैधानिक शासन को उखाड़ फेंकना चाहता है, तो उसे खुद को ‘लोकतंत्र’, ‘स्वतंत्रता’ और ‘पश्चिमी सभ्यता’ या ‘महानता’ जैसे अपारदर्शी मूल्यों के वास्तविक रक्षक के रूप में प्रस्तुत करना होगा।
यह रणनीति 1945 के बाद घोर दक्षिणपंथ के लिए महत्वपूर्ण हो गई। हिटलर और मुसोलिनी द्वारा किए गए घृणित कार्यों के बारे में जब बाहरी दुनिया को पता चला, तब भी जो कोई भी जातीय-राष्ट्रवादी सत्तावादी शासन का बचाव करना चाहता था, वह वास्तव में यह नहीं कह सकता था कि वे इसका समर्थन करते हैं।
कम से कम दो पीढ़ियों तक, जब तक कि ऐतिहासिक स्मृति का विलोप नहीं हुआ, घोर दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं को या तो सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना पड़ा या फिर असहज चुप्पी बनाए रखते हुए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
आज, नियत समय बीत जाने के बाद और उदार लोकतंत्र नाजीवाद और फासीवाद की स्मृति को जीवित रखने में विफल रहे हैं। इतिहासकार टिमोथी स्नाइडर इसे ‘सिज़ोफासीवाद’ कहते हैं।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्वतंत्र प्रेस को प्रभावी ढंग से नष्ट कर दिया है, सभी वास्तविक विपक्ष को बंद कर दिया है, और अपने देश में स्वतंत्र और खुले लोकतांत्रिक चुनावों को समाप्त कर दिया है। उन्होंने अलेक्सांद्र डुगिन जैसे घोर दक्षिणपंथी अतिवादियों का समर्थन प्राप्त किया है और ‘मातृभूमि’ के अंदर और बाहर आलोचकों का निर्दयतापूर्वक सफाया कर दिया है।
इसके बावजूद, जब पुतिन के टैंक यूक्रेन के संप्रभु क्षेत्र में घुसे, तो उनमें से कई के किनारों पर ‘नाजी विरोधी’ नारे लिखे हुए थे।
मार्टिन हाइडेगर जैसे बुद्धिजीवियों ने, जो नाजी पार्टी के सदस्य थे और हिटलर तथा उसके अनुयायियों को व्यापक समाज में वैध ठहराते थे, 1945 के बाद स्वयं को शासन के सताए हुए विरोधियों या आलोचकों के रूप में प्रस्तुत किया।
इस दौरान, उन्होंने कहा कि उदार लोकतांत्रिक समाजों के फासीवादी तरीके से विनाश में एक ‘आंतरिक सत्य और महानता’ है, जो समय के साथ वापस आनी चाहिए, साथ ही शासन की उग्र यहूदी विरोधी भावना को भी बरकरार रखना चाहिए।
एक बार फिर, भाषा के ऐसे कपटपूर्ण प्रयोग से उत्पन्न भ्रम का प्रभाव घोर दक्षिणपंथियों के लिए राजनीतिक रूप से अमूल्य है।
एक विपक्ष को अपने मूल मूल्यों के अनुरूप इस बात पर संदेह करने के लिए मजबूर किया जा सकता है कि क्या एक लोकतांत्रिक राष्ट्र पर अति दक्षिणपंथ का कब्जा अच्छा है। हालांकि विपक्ष पूरी तरह से भ्रमित और अक्षम है।
एक और रणनीति लोकतंत्रों पर घोर दक्षिणपंथी कब्ज़े को वैध बनाने के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, सैन्य और पुलिस शक्तियों के शीर्ष पर पर्याप्त समय के लिए कब्जा करना है।
अधिनायकवादी कार्यकर्ता शांति और युद्ध के बीच के अंतर को ‘विघटित’ करने या समाप्त करने के लिए समय के साथ काम करते हैं और शांतिकाल को ‘युद्ध’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनमें उनके अपने बढ़ते चरम उपाय आवश्यक होते हैं।
हम इसे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका में डेमोक्रेट शासित शहरों को ‘युद्ध-ग्रस्त’ या ‘युद्धक्षेत्र’ के रूप में प्रस्तुत करने के नवीनतम प्रयासों में देखते हैं, जिससे इन कथित युद्ध क्षेत्रों में सेना भेजने की तत्काल आवश्यकता बताई जाती है। यह एक ऐसा कदम है जो निश्चित रूप से उस तरह की हिंसा को भड़का सकती है, जिसे रोकने का दावा वह कर रहे हैं, और यह कदम आपातकालीन शक्तियों के आह्वान को वैध या लाइसेंस प्रदान कर सकता है।
बुनियादी भाषा का यह विरूपण नए शासन के खिलाफ सभी शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को ‘हिंसक’ और ‘सनक से भरा’ या ‘चरमपंथी’ के रूप में चित्रित करने के प्रयासों में भी दिखाई देता है – यदि वे अवैध दुश्मन, ‘एंटीफा’ (वामपंथी फासीवाद विरोधी और नस्ल विरोधी राजनीति) के सदस्य या पिट्ठू नहीं हैं।
इस तरह की भाषा, तथा राज्यों में जमीनी स्तर पर सैनिकों की आज की चौंकाने वाली वास्तविकता, पश्चिमी लोकतंत्रों में ‘सांस्कृतिक युद्धों’ को सामान्य रूप में स्वीकार किए जाने के कारण लंबे समय से तैयार की गई है।
अधिनायकवाद के मार्ग में हजारों छोटे-छोटे सांस्कृतिक और राजनीतिक कदम होते हैं।
यहूदी कवि हेनरिक हेन ने 19वीं सदी में भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि जब लोग किताबें जलाने से शुरुआत करेंगे तो अंत में वे लोगों को जलाएंगे। आज, हम वास्तविक समय में जो कुछ घटित होते देख रहे हैं, वह यह है कि जब लोकतंत्रों में राजनीतिक पक्षपाती लोग युद्ध जैसी शत्रुता और झूठी समानता को सामान्य बनाने के लिए भाषा को विकृत करना शुरू करते हैं, तो ऐसा लगता है कि वे लोकतंत्र को ही समाप्त करने पर तुले हुए हैं।
(360इंफो)
धीरज मनीषा
मनीषा
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