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Friday, 19 September, 2025
होमविदेशसिंह दरबार: जेन-ज़ी के गुस्से से दागदार सत्ता का प्रतीक और उसकी विरासत पर नेपाल में बहस

सिंह दरबार: जेन-ज़ी के गुस्से से दागदार सत्ता का प्रतीक और उसकी विरासत पर नेपाल में बहस

कुछ लोगों का कहना है कि सिंह दरबार को जलते देखना इतिहास को जलते देखने जैसा था, जबकि दूसरों का मानना है कि मौजूदा हालात में कला और इतिहास का सहारा लेना दरअसल पुराने शोषकों का पक्ष लेना है.

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काठमांडू: जब सिंह दरबार की विशाल सफेद खंभों से धुआं उठने लगा और मेहराबों व छत से लपटें बाहर निकलने लगीं, तो काठमांडू से आए वो दृश्य आम जनता के लिए झकझोर देने वाले थे.

नेपाल की सत्ता और प्रतिष्ठा का प्रतीक इस इमारत को आग ने इस तरह निगल लिया मानो सालों से फैले भ्रष्टाचार से तंग एक पीढ़ी का गुस्सा बेकाबू होकर हर उस चीज़ को खत्म कर देना चाहता हो जो उसके रास्ते में खड़ी थी.

9 सितंबर को रील्स, वीडियो और तस्वीरें तेज़ी से फैलती गईं और पूरा देश सांस थामे देखता रहा. बहुतों के लिए यह नुकसान सिर्फ बड़ा ही नहीं, बल्कि गहराई से व्यक्तिगत भी था.

नेपाल के एक हेरिटेज उत्साही ने अपने दुख को इंस्टाग्राम पर बयां किया. सिंह दरबार को जलते देखना, उन्होंने लिखा, दिल तोड़ देने वाला था. उन्होंने पोस्ट किया कि इतिहास के जलने के साथ देश ने सिर्फ ईंटें नहीं, बल्कि “अनमोल यादें, रिकॉर्ड और हमारे इतिहास का आख़िरी टुकड़ा” भी खो दिया.

उन्होंने आगे लिखा, “अब समय है गहराई से सोचने का, अपनी नैतिकता, अपनी चुप्पी और अपनी निष्क्रियता पर सवाल उठाने का.”

सिंह दरबार में हुए नुकसान का आकलन करने का काम जारी है | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट
सिंह दरबार में हुए नुकसान का आकलन करने का काम जारी है | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

लेकिन कई ऐसे भी थे, जिन्हें उस दिन की घटनाओं की गंभीरता महसूस नहीं हुई. एक प्रदर्शनकारी, जो सिंह दरबार के अंदर मौजूद था, उसने याद किया— “हमारे लिए वो बस एक इमारत थी, उसका हमारे लिए कोई मतलब नहीं था. हम तो उसे खंडहर में देखना चाहते थे.”

प्रदर्शनकारी ने दिप्रिंट को बताया कि सुरक्षाबलों ने उन्हें महल में दाखिल होने से नहीं रोका. “हमें तो मानो फ्री पास दे दिया गया था.”


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आग और ग़ुस्सा

सोशल मीडिया के दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी के लिए काठमांडू के दिल में घटी घटनाएं अभूतपूर्व थीं, लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता है कि ऐसा ही हादसा पहले भी इस महल पर घट चुका है.

द काठमांडू पोस्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 9 जुलाई 1973 को लगी भीषण आग में सिंह दरबार का बड़ा हिस्सा तबाह हो गया था. सिर्फ सामने का आंगन ही बच पाया था.

आग कैसे लगी, इसे लेकर साज़िशी थ्योरीज़ भी हैं और कुछ लोग मानते हैं कि यह जानबूझकर करवाई गई थी. उस वक्त भी दफ्तर दूसरी इमारतों में शिफ्ट कर दिए गए थे, जैसे अब किया जा रहा है.

इसके बाद पांच दशक बाद 2015 में आया विनाशकारी भूकंप. इस भूकंप ने करीब 9,000 ज़िंदगियां लीं और काठमांडू के धरहरा टॉवर समेत कई धरोहरों को तबाह कर दिया. सिंह दरबार, नेपाल का मुख्य प्रशासनिक परिसर, भी इसकी चपेट में आया.

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण प्राधिकरण ने 70 महीने तक चले पुनर्निर्माण प्रोजेक्ट का नेतृत्व किया. प्राधिकरण के मुताबिक, सिंह दरबार परियोजना पर 870 मिलियन नेपाली रुपये की लागत आई और यह दो चरणों में पूरी हुई.

2021 में सिंह दरबार के तीन पुनर्निर्मित हिस्सों का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने किया था, लेकिन चार साल बाद वही ओली जनरेशन ज़ी प्रदर्शनकारियों के निशाने पर आ गए.

बांग्लादेश की तरह, जहां इसी साल फरवरी में पूर्व प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर रहमान का घर तोड़फोड़ का शिकार हुआ, नेपाल के प्रदर्शनकारियों ने भी प्रतीकात्मक धरोहरों को निशाना बनाया.

काठमांडू के वॉइस आर्टिस्ट और उद्यमी सुप्राल राज जोशी ने माना कि सिंह दरबार, बतौर सत्ता का केंद्र, पर हमला नहीं होना चाहिए था.

लेकिन उनके मुताबिक मौजूदा हालात में कला और इतिहास की आड़ लेना अतीत के शोषकों का साथ देने जैसा है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “यह महल करीब 122 साल पहले ग़ुलाम मज़दूरों से बनवाया गया था. करोड़ों रुपये खर्च किए गए, उस वक्त जब गरीबी और भुखमरी फैली हुई थी. बीसवीं सदी के पहले हिस्से में शासन बेहद शोषक और लुटेरा था. ऐसे में इसे सिर्फ इतिहास और कला का टुकड़ा कहना पाखंड है. किसी को सिंह दरबार की विरासत देखनी चाहिए ताकि शोषण को समझा जा सके.”

सिंह दरबार 1903 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्र शमशेर जंग बहादुर राणा ने बनवाया था. यह मूल रूप से वंशानुगत प्रधानमंत्रियों का आवास था। निरंकुश राणा शासन 1951 में शाह वंश से बदल गया. नेपाल में लंबे गृहयुद्ध के बाद 2008 में शाह राजशाही का भी अंत हो गया.

हालांकि, इतिहास और वास्तुकला से जुड़े सभी लोग जोशी की बातों से सहमत नहीं हैं.

त्रिभुवन विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुदर्शन राज तिवारी, जिन्होंने मंदिरों, कस्बों और शहरी संस्कृति पर गहन शोध किया है, ने दिप्रिंट से कहा, “नहीं, मुझे नहीं लगता कि हालिया आगज़नी और हिंसा को प्रतिशोध मानकर पढ़ना चाहिए. ऐसे नैरेटिव राष्ट्र की दीर्घकालिक स्मृति बनाने में लागू नहीं होते. वास्तु धरोहरों को और सूक्ष्म होना चाहिए. स्मारक दर्शक के मन में क्षणों की स्मृति जगाने में सक्षम होने चाहिए. लंबे महत्व वाली इमारतों को वर्तमान घटनाओं (जैसे हालिया उथल-पुथल) से जुड़े सीमित पलों का सीधा प्रदर्शन करने से बचना चाहिए.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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