नई दिल्ली: चीन की बुनियादी ढांचा निवेश और विदेशी परियोजनाएं जरूरतमंद देशों में बीजिंग के हितों का आक्रामक रूप से विस्तार करने और यहां तक कि उनमें से कुछ को कर्ज के जाल में फंसाने के लिए चर्चा में रही हैं.
एक नई किताब के अनुसार, बस इतना ही नहीं है.
पिछले महीने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित बैंकिंग ऑन बीजिंग पुस्तक के मुताबिक, चीन इस धनराशि का इस्तेमाल दूसरे देशों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए करता है. यही वजह है कि ऐसी परियोजनाओं में चीन का ऑन डिमांड नजरिया यह होता है कि वो उस देश की घरेलू राजनीति पर कैसे असर डाल सकता है या कैसे उसका फायदा उठा सकता है. अगर अनुपातिक तौर पर तुलना की जाए तो इन परियोजनाओं में ज्यादातर उन राज्यों को तरजीह दी जाती है, जो वहां के नेता का गृह राज्य होता है. चीन अन्य प्रांतों की तुलना में उस गृह प्रांत को 52 प्रतिशत अधिक फंड उपलब्ध कराता है.
बीजिंग ऑन बैंकिंग पुस्तक का दावा है कि विदेशों में चीनी विकास परियोजनाएं राजनीतिक नेताओं के गृह राज्यों में ‘असमान रूप से’ मौजूद हैं और आमतौर पर उस देश में चुनावों के आस-पास ही इनकी घोषणा की जाती हैं. ज्यादातर ये सामाजिक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं मसलन स्कूल आदि से जुड़ी होती हैं जो सीधे तौर पर लोगों की नजरों में आती हैं और उन्हें फायदेमंद लगती हैं.
पुस्तक बताती है, कि दूसरी ओर विश्व बैंक परियोजना प्रस्तावों की ‘राजनीतिक फायदे की बजाय इनकी आर्थिक व्यवहार्यता’ के आधार पर समीक्षा करता है.
पुस्तक का दावा है कि उदाहरण के तौर पर, चीनी सहायता परियोजनाओं में बीजिंग की इस प्रवृत्ति को श्रीलंका, सिएरा लियोन, नैरोबी, इक्वेटोरियल गिनी और तंजानिया जैसे देशों में देखा जा सकता है.
श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे जब सत्ता में थे तो उनके गृह प्रांत हंबनटोटा में चीन ने विकास की कई परियोजनाओं पर पैसा लगाया था. इसी तरह पूर्व राष्ट्रपति अर्नेस्ट बाई कोरोमा के गृहनगर सिएरा लियोन के योनी गांव में 2010 में चीनी सहायता से एक प्रसिद्ध स्कूल का निर्माण किया गया था.
चीन ने 138 देशों में 43,68 परियोजनाओं के लिए करीब 354 बिलियन डॉलर की धनराशि या तो निवेश के रूप में लगाई या फिर ऋण के तौर पर दी है. किताब में इन परियोजनाओं का विश्लेषण किया गया है. ये परियोजनाएं 2000 और 2014 के बीच आधिकारिक तौर पर कार्यान्वयन या पूर्ण होने के लिए प्रतिबद्ध थीं.
बीजिंग ऑन बैंकिंग को हीडलबर्ग यूनिवर्सिटी, जर्मनी में अंतरराष्ट्रीय और विकास राजनीति के प्रोफेसर एक्सेल ड्रेहर, हांगकांग विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सहायक प्रोफेसर ऑस्टिन स्ट्रेंज, जर्मनी के गौटिंगेन यूनिवर्सिटी में डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर और कील इंस्टीट्यूट चाइना इनिशिएटिव के निदेशक एंड्रियास फुच्स, अमेरिका में विलियम एंड मैरी कॉलेज में एक शोध प्रयोगशाला एडडाटा के कार्यकारी निदेशक ब्रैडली पार्क्स, विलियम एंड मैरी में ग्लोबल रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक और डिपार्टमेंट ऑफ गवर्मेंट में प्रोफेसर माइकल जे टियरनी ने लिखा है.
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‘गृह प्रांत को लेकर पक्षपात’
पुस्तक राजनीतिक नेताओं के गृह जिलों के पक्ष में चीनी सहायता अनुदान की प्रवृत्ति को ‘गृह प्रांत पक्षपात’ बताती है.
यह किताब कहती है, ‘औसत देश में, बीजिंग अन्य प्रांतों की तुलना में उस प्रांत को 52 प्रतिशत ज्यादा धनराशि देता है जो वहां के नेता का गृह प्रांत होता है… इसके विपरीत, हमें इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता है कि विश्व बैंक डेवलपमेंट फाइनेंस दुनिया के किसी भी क्षेत्र में राजनीतिक नेताओं के गृह प्रांतों के पक्ष में है.’
किताब में आगे लिखा है: ‘इस पैटर्न के साक्ष्यों से पता चलता है कि ऐसी परियोजनाओं में चीन का ऑन-डिमांड नजरिया यह होता है कि वो उस देश की घरेलू राजनीति पर कैसे असर डाल सकता है या कैसे इसका फायदा उठा सकता है.’
लेखकों का अनुमान है कि एक संभावित प्रतिवाद यह हो सकता है कि कई राजनीतिक नेता राजधानी शहरों में पैदा होते हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इन शहरों को चीन से इसलिए ज्यादा आर्थिक मदद मिली क्योंकि ये उन राजनेताओं का गृह राज्य है.
इसका तर्क का मुकाबला करने के लिए पुस्तक में लिखा गया है, कि उन्होंने समय के साथ एक ही प्रांत का अध्ययन किया और परीक्षण किया कि क्या किसी प्रांत को उस दौरान ज्यादा आर्थिक मदद मिली है जब वहां का नेता सत्ता पर काबिज था. और पाया कि इसकी तुलना में सत्ता से बाहर नेताओं के गृह राज्यों को इतनी तरजीह नहीं दी गई थी.
फास्ट-ट्रैकिंग इंफ्रा प्रोजेक्ट्स
श्रीलंका के संबंध में – एक देश जो वर्तमान में एक गंभीर आर्थिक और राजनीतिक संकट के बीच फंसा है – पुस्तक बताती है कि कैसे महिंदा राजपक्षे ने 2005 और 2015 के बीच राष्ट्रपति रहते हुए अपने गृह प्रांत हंबनटोटा को बदलने की कोशिश की.
किताब में कहा गया है, ‘राजपक्षे परिवार ने देश के भविष्य को एकतरफ रखते हुए बीजिंग की इस नीति को अपने फायदे के लिए मान लिया.’. चाइना एक्ज़िबैंक और चाइना डेवलपमेंट बैंक ने एक गहरे बंदरगाह, एक नजदीकी हवाई अड्डे, बंदरगाह से हवाई अड्डे तक एक सड़क और हंबनटोटा को कोलंबो की राजधानी से जोड़ने वाले एक एक्सप्रेसवे के निर्माण के लिए ऋण जारी किया था.
हालांकि, यह सिर्फ राजपक्षे के साथ किया गया, ऐसा नहीं है.
किताब में लिखा है, ‘बीजिंग ने उसी तर्ज पर चलते हुए सिरिसेना प्रशासन (श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना का एक संदर्भ) के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की तरफ देख रहा था. पुस्तक में कहा गया है कि बीजिंग ने तत्कालीन राष्ट्रपति के गृह जिले पोलोन्नारुवा में एक आधुनिक अस्पताल के निर्माण के लिए 100 मिलियन डॉलर के अनुदान को मंजूरी दी. परियोजना को 2018 में अनुमोदित किया गया था और पिछले साल पूरा किया गया था.
लेखक यह भी दावा करते हैं कि बीजिंग बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को लागू करने में सक्षम है, क्योंकि चीनी बैंक ठेकेदार चयन के लिए प्रतिस्पर्धी बोली प्रक्रिया के बिना विदेशी सरकारों के साथ ऋण समझौतों को मंजूरी देते हैं.
संक्षेप में, विदेशी सरकारों को चीनी ठेकेदारों के एक पूर्व-चयनित समूह के साथ काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
‘अफ्रीका में विशेष रूप से मजबूत प्रभाव’
‘गृह प्रांत पक्षपात’ प्रवृत्ति के एक क्षेत्रीय विश्लेषण में पुस्तक ने पाया कि यह प्रभाव अफ्रीका में सबसे अधिक प्रचलित है.
लेखकों का दावा है, ‘अफ्रीका में यह प्रभाव विशेष रूप से काफी मजबूत है. औसतन, अफ्रीकी देशों के उन प्रांतों को चीन से तुलनात्मक रूप से 70 प्रतिशत ज्यादा धन प्राप्त होता है, जिन प्रांतों के नेता सत्ता पर काबिज हैं.’
पुस्तक में कहा गया है, इसके उलट ऐसा लगता है कि विश्व बैंक को यह समस्या नहीं दिखती है. संभवतः इसलिए कि स्टाफ सदस्य प्राप्तकर्ता सरकारों द्वारा घरेलू राजनीतिक उद्देश्यों के लिए अपनी परियोजनाओं में हेरफेर करने के प्रयासों से अवगत हैं.
लेकिन राजनीतिक नेताओं के गृह प्रांतों में सभी चीनी-वित्त पोषित परियोजनाएं सफल नहीं रही हैं. पुस्तक उदाहरण के तौर पर श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह के पास मटला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की परियोजना को ‘सफेद हाथी’ के रूप में संदर्भित करती है – आर्थिक रूप से अक्षम लेकिन राजनीतिक रूप से सुविधाजनक.
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