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Friday, 20 December, 2024
होमविदेशरेजांग ला की लड़ाई याद है— कैसे 120 भारतीय सैनिकों ने 1000 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था

रेजांग ला की लड़ाई याद है— कैसे 120 भारतीय सैनिकों ने 1000 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था

वो संख्या में उनसे काफी ज्यादा थे, परिस्थितियां भी उनके अनुकूल नहीं थी और घटिया हथियारों से लैस होने के बावजूद भी भारतीय सैनिकों ने एक के बाद एक हो रहे चीनी हमलों का पूरी बहादुरी के साथ सामना किया था.

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नई दिल्ली: चुशुल घाटी के दक्षिण पूर्वी रिज पर बर्फीले पहाड़ की चोटी पर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच लड़ी गई ‘रेजांग ला’ की लड़ाई को अक्सर 1962 में युद्ध के दौरान महान भारतीय ताकत के प्रदर्शन के रूप में याद किया जाता है.

सैन्य तैयारियों या सामरिक कौशल के संदर्भ में समझी जाने वाली ताकत का नहीं, बल्कि इसे याद रखने की वजह सैनिकों का हौसला था.

भारतीय सैनिकों की संख्या काफी कम थी, वे अपने चीनी समकक्षों की तरह सर्दियों की परिस्थितियों में रहने या लड़ने के आदी नहीं थे, उनके पास अव्वल दर्जे के हथियार नहीं थे और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि अपने हथियारों के साथ पहाड़ की ऊंची चोटियों पर चढ़ना उनके लिए बेहद मुश्किल भरा था. क्योंकि वह पहाड़ से नीचे की तरफ थे और दुश्मन पहाड़ की ऊंची चोटियों पर ऊपर जमे बैठे थे.

कहा जाता है कि 13 कुमाऊं की चार्ली कंपनी के सैनिकों को 18 नवंबर, 1962 की उस सर्द रात में ‘लास्ट मैन, लास्ट राउंड’ तक लड़ने के लिए जिस तरह की ताकत की जरूरत थी, उसका उन्होंने प्रदर्शन किया था.

इस कंपनी के 120 सैनिकों और अधिकारियों में से 114 की मौत हो गई. फिर भी वे दुश्मन की ओर से 1000 से ज्यादा सैनिकों को मार गिराने में कामयाब हुए थे.

उनकी यह लड़ाई उस समय और भी गौरवमयी प्रतीत होती है, जब हमें इस बात का ध्यान आता है कि कमांडर को छोड़कर, जो एक राजपूत थे, कंपनी के सभी सैनिक अहीर थे. वो हरियाणा के गुड़गांव और मेवात क्षेत्र से थे और सभी का संबंध पशुपालकों और किसानों समुदायों से था. उनके लिए माइनस 30 डिग्री तापमान में लड़ना आसान नहीं था. उनकी यह पहली लड़ाई थी. अधिकांश सैनिकों ने जम्मू और कश्मीर को छोड़कर पहले कभी कोई सक्रिय ऑपरेशन नहीं देखा था.

शायद यही कारण है कि 13 कुमाऊं बटालियन की चार्ली कंपनी भारतीय सेना के इतिहास में सबसे अधिक सम्मान से सुसज्जित कंपनी है, जैसा कि लेखक कुलप्रीत यादव ने अपनी एक किताब ‘द बैटल ऑफ रेजांग ला’ में उल्लेख किया है.

यादव ने लिखा है, ‘चार्ली कंपनी के सैनिकों को एक परमवीर चक्र, आठ वीर चक्र, चार सेना पदक और एक मेंशन-इन-डिस्पैच से सम्मानित किया गया, जिसकी वजह से यह आज तक भारतीय सेना की सबसे अधिक सम्मानित कंपनियों में से एक बनी हुई है.’

इस तथ्य के बावजूद कि युद्ध में लगभग पूरी कंपनी का सफाया हो गया था, उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त लड़ाई लड़ी थी कि चुशुल चीनी हाथों में न पड़ जाए.

13 कुमाऊं को 114 ब्रिगेड को फिर से सुदृढ़ करने के लिए वहां भेजा गया था. 21 नवंबर को चीनियों ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी.


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चुनौतियों का पहाड़

चीनी सैनिकों की संख्या में कम होने के अलावा, भारतीय सैनिकों को चुनौतियों के पहाड़ का सामना करना पड़ा था. उन्हें युद्ध के मैदान की हाड़-मांस गलाने वाली कंपकंपाती ठंड से भी संघर्ष करना पड़ रहा था. यह 1,600 फीट की औसत ऊंचाई पर स्थित था और 16,420 फीट ऊंचाई जैसा एहसास करा रहा था. उन्हें अपनी डिफेंसिव पोजीशन बनाने में भी काफी मुश्किलें आ रही थीं.

जैसा कि कर्नल एन.एन. भाटिया (सेवानिवृत्त) ने नोट किया, ‘भारतीय सैनिकों को पहाड़ की चोटियों के ऊंचे शिखरों के कारण नुकसान हुआ था. जिससे उन्हें आगे बढ़ने वाले दुश्मन को रोकने के लिए कोई तोपची सैन्य दल का समर्थन नहीं मिल पाया और उनके पास एंटी पर्सनल माइन्स की कमी थी.’

भाटिया ने लिखा, उनके पास कुछ ऑटोमेटिड खुदाई उपकरण भी थे, द्वितीय विश्व युद्ध के पुराने .303 सिंगल शॉट बोल्ट एक्शन राइफल और पुराने 62 रेडियो सेट जो जमी हुई बैटरी के कारण कम्युनिकेट नहीं कर पा रहे थे.

उन्होंने आगे लिखा है, उधर चीनियों के पास 7.62 सेल्फ-लोडिंग राइफलें थीं, उनके सैनिक ज्यादातर सिंगकियांग क्षेत्र के स्थानीय लोग थे, जिन्हें इस तरह के सर्द इलाके में रहने की आदत थी. उन्होंने सक्रिय रूप से अपने नक्शे फैलाए और टोही को अंजाम दिया.

यादव अपनी किताब में लिखते हैं, ‘क्या होता, अगर इन बहादुर सैनिकों के पास बेहतर बंदूकें, अधिक गोला-बारूद, पर्याप्त बर्फ के कपड़े, पेट भरा भोजन, सैन्य तोपची दल का समर्थन और सेना मुख्यालय और सरकार में सक्षम नेता होता?’

मेजर शैतान सिंह

परमवीर चक्र पाने वाले चार्ली कंपनी के कमांडर मेजर शैतान सिंह का उल्लेख किए बिना रेजांग ला की लड़ाई की बात करना बेमानी होगी.

जब चीनी सैनिकों ने उनकी पलटन पर हमला बोला, तो वह अपने सैनिकों का मनोबल बनाए रखने के लिए एक चौकी से दूसरी चौकी पर भागते रहे. यादव ने अपनी किताब में लिखा है कि उन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर सैनिकों का साथ दिया था. सबसे पहले दुश्मनों की एक गोली उनके हाथ पर लगी और फिर उनके पेट में गोली मारी गई. इसके बाद उनके दो सैनिकों ने उन्हें बचाने के लिए एक बोल्डर के पीछे खींच लिया था.

महीनों बाद उनका जमा हुए शरीर उस शिलाखंड के पास उनके सैनिकों के कई शवों के साथ मिला था. फरवरी 1963 में एक भारतीय खोज दल ने युद्ध के मैदान में बर्फ से ढकी लाशों का पता लगाया था. इनमें से कुछ अभी भी अपनी बंदूकों से चिपके हुए थे और अन्य हमला करने के लिए तैयारी वाली झुकी हुई पोजीशन में मौत के घाट उतारे गए थे.

मेजर शैतान सिंह के पार्थिव शरीर को जोधपुर ले जाया गया और पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया.


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कुत्ता कैसे बना रक्षक

चीनी सेना ने भारत के पांच सैनिकों को युद्ध में बंदी बनाया था. उनमें से प्लाटून कमांडर नायब सूबेदार राम चंदर भी थे, जिन्हें बेहोशी की हालत में अपने कब्जे में लिया गया और छह महीने बाद रिहा कर दिया गया था.

हवलदार निहाल सिंह एक ऐसा नाम है जिसके बारे कौतूहल बना रहा है. वह चीनी सैनिकों की गिरफ्त से भागने सफल रहे थे.

सिंह ने पचास साल बाद एक इंटरव्यू में याद करते हुए बताया था, ‘मुझे पकड़ने वाले सैनिक इधर-उधर घूम रहे थे और बातचीत करने में व्यस्त थे. तब तक अंधेरा हो चुका था और मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे यहां से भागना चाहिए. मैं धीरे-धीरे वहां से निकलने की कोशिश करने लगा. मैं मुश्किल से लगभग 500 मीटर ही चला था कि उन्होंने तीन गोलियां चलाईं.’

सिंह ने बाद में यह भी बताया कि जब वह भाग रहे थे तो एक कुत्ते ने कैसे उनकी मदद की थी. वह एक केनिन डॉग था जो उन्हें बटालियन मुख्यालय तक ले आया.

यादव लिखते हैं, ‘अक्टूबर में जब चार्ली कंपनी आई थी, तो उन्होंने इस कुत्ते को कई बार खाना खिलाया था. कुत्ते ने उन्हें देखा और एक विशेष दिशा में चलना शुरू कर दिया. निहाल सिंह ने कुत्ते का पीछा किया और कुछ घंटों के बाद वह बटालियन मुख्यालय पहुंच गए थे.’

वह कहते हैं, ‘हालांकि, कुछ लोगों का मानना था कि हो सकता है कि सैनिक को हैलुसिनेशन हुआ हो, क्योंकि उस समय वह युद्ध में गंभीर रूप से घायल हुए थे, उनके दोनों हाथों से खून बह रहा था और कठोर सर्दियों की स्थिति से जूझ रहे थे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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