नई दिल्ली: नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पिछले कुछ हफ्तों से पूरी ढिठाई और आक्रामकता के साथ भारत पर हमलावर हैं. भारत के साथ विवादित क्षेत्रों को शामिल करने वाले एक नक्शे में संशोधन करने से लेकर नई दिल्ली पर उन्हें कुर्सी से हटाने की साजिश रचने का आरोप लगाने तक ओली ने हर पैंतरा अपनाया है, जिसे दोनों देशों के सत्ता गलियारे से जुड़े कई लोग चीन के समर्थन से हौसला बढ़ना मान रहे हैं.
इन सुगबुगाहटों में कुछ ठोस सच्चाई हो या नहीं, नेपाल पर चीन के बढ़ते दखल का किस्सा वास्तविक और लंबा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह सुस्पष्ट, व्यापक और अपरिहार्य हो गया है. नेपाल की राजनीति से लेकर उसकी अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचा, सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहरों और लोगों तक हर प्रमुख क्षेत्र में बीजिंग की छाप साफ नजर आती है.
नेपाल में चीन की रुचि एक दशक से ज्यादा लंबे समय से रही है, इसमें ऐतिहासिक मोड़ साबित हुआ मधेसी आंदोलन और उसके परिणामस्वरूप 2015 की नेपाली नाकाबंदी, जिसे मोटे तौर पर भारत समर्थित माना जाता है. इस नाकाबंदी ने नई दिल्ली के खिलाफ नाराजगी की लहर पैदा की. दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता होने के बावजूद, नेपाल –मुख्यत: पहाड़ी क्षेत्रों और काठमांडू घाटी के अभिजात्य वर्ग– सशंकित नजरों से भारत को बड़े भाई की भूमिका में देखने लगा. नाकाबंदी ने न केवल यह धारणा मजबूत की बल्कि काठमांडू को अपना रुख एकदम बदलकर दूसरे बड़े पड़ोसी चीन की ओर मोड़ना शुरू कर दिया.
अचानक 2016 में हुई नोटबंदी ने भी नेपाल की नाराजगी को बढ़ा दिया, भारत की तरफ से प्रचलन से बाहर किए गए नोटों को बदलना लगातार टाले जाने से नेपाल जैसे देशों के पास बड़ी मात्रा में विमुद्रीकृत मुद्रा रह गई. इस मामले में नेपाल की यह मांग कि भारत अपनी विमुद्रीकृत मुद्रा वाले 7 करोड़ रुपये उसके केंद्रीय बैंक से वापस ले, एक तरह से यह गतिरोध जारी रहने का संकेत माना जा सकता है.
पूर्व राजनयिक और काठमांडू स्थित त्रिभुवन यूनिवर्सिटी राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर विजय कांत कर्ण ने कहा, ‘बीजिंग नेपाल और भारत के बीच प्राचीन रिश्तों को कमजोर करना चाहता है और वहां ऐसी सरकार चाहता है जो चीन के हितों के प्रति अधिक संवेदनशील और भारतीय प्रभाव का मुकाबला करने में सक्षम हो.’
दिप्रिंट ने इस संबंध में टिप्पणी के लिए नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि कुछ दिनों के बाद ही इस पर कोई जवाब देने की स्थिति में होंगे. उनका जवाब आने पर यह रिपोर्ट अपडेट कर दी जाएगी.
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घरेलू राजनीति पर असर
ओली की चीन से नजदीकी शायद ही किसी से छिपी हो, लेकिन उसके शासन में नेपाल की आंतरिक राजनीति पर बीजिंग का प्रभाव केवल बढ़ा ही है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि पुष्प कमल दहल प्रचंड, माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खनाल की तरफ से कुर्सी से हटाने की कोशिशों के बाद ओली खुद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में अलग-थलग पड़ गए हैं.
2016 में जब प्रचंड ने ओली को सत्ताच्युत किया था तो उस समय चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स ने उनकी (प्रचंड) आलोचना करते हुए एक लेख में कहा था कि काठमांडू कैसे बीजिंग के साथ का मौका गंवा सकता है. इससे साफ पता चलता है कि यह देश नेपाल की घरेलू राजनीति को कैसे देखता है.
सरकारी सूत्रों का कहना है कि इस सबके बीच नेपाल में व्यापक स्तर पर प्रभाव बढ़ाने के लिए देश में चीन की राजदूत होउ यानकी को जरिया बनाया जा रहा है.
सत्तारूढ़ पार्टी के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार, मई की शुरुआत में होउ ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के इन प्रमुख नेताओं के साथ बैठक की थी और उन्हें आपस में लड़ने के बजाय साथ काम करने के लिए मनाने की कोशिश की थी.
हो सकता है कि इससे ओली कुछ समय की मोहलत पाने में सफल रहे हों लेकिन मंगलवार को पार्टी की एक आंतरिक बैठक में वह फिर किनारे कर दिए गए. बंद-दरवाजा बैठक के बारे में जानकारी रखने वाले सूत्रों का कहना है कि प्रचंड ने ओली से कहा कि वह पीएम और पार्टी अध्यक्ष के रूप में इस्तीफा दे दें और काफी तीखी बहस के बीच उन्होंने यह भी कहा कि इसके पीछे भारत नहीं है बल्कि वह खुद ऐसा कह रहे हैं.
उनके अलावा खनाल, माधव नेपाल और बामदेव गौतम ने भी ओली पर अपने बयानों से भारत के साथ समीकरण बिगाड़ने और पार्टी को अपमानजनक स्थिति में खड़ा करने का आरोप लगाया. सूत्रों का कहना है कि इस सबको देखते हुए जल्द ही होउ के साथ एक और बैठक होने के आसार हैं.
नेपाल के विशेषज्ञों का मानना है कि भारत का लेकर ओली का टकरावपूर्ण रवैया चीन के सक्रिय समर्थन के बिना संभव नहीं था.
प्रो. कर्ण ने आगे कहा, ‘पीएम ओली अब भारत को नाराज करने से नहीं डरते. इस बीच उन्होंने चीनी राजदूत के साथ विचार-विमर्श किया है. पीएम ओली ने कालापानी विवाद में भी चीन की भूमिका का बचाव किया. उन्होंने तो दरअसल कई बार चीनी राजदूत के साथ विचार-विमर्श किया है.’
होउ ने राइजिंग नेपाल को दिए एक विस्तृत साक्षात्कार, मंगलवार को प्रकाशित, में दीर्घकालिक नेपाल-चीन मित्रता को रेखांकित किया है.
यह बात भी सच है कि नेपाल को लेकर भारत के हालिया रुख ने मामला और बिगड़ने से रोकने में कोई मदद नहीं की, चाहे भारत की ओर से एकतरफा कदम माना जा रहा कैलाश मानसरोवर लिंक रोड खोलने का मामला हो या सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवाणे की वह टिप्पणी कि नेपाल शायद ‘किसी और के इशारे’ पर विरोध में खड़ा हुआ.
काठमांडू स्थित थिंक-टैंक इंस्टीट्यूट फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट स्टडीज के सीनियर फेलो और काठमांडू पोस्ट के पूर्व मुख्य संपादक अखिलेश उपाध्याय कहते हैं, ‘भारतीय सेना प्रमुख की हालिया असंवेदनशील टिप्पणी ने नेपाल को बहुत निराश किया है. इसके अलावा, नवंबर से ही नेपाल सीमा विवाद को लेकर भारत के साथ एक बैठक की मांग कर रहा है -आखिरी आधिकारिक अनुरोध जनवरी में भेजा गया- लेकिन नई दिल्ली ने इस पर कोई जवाब नहीं दिया है. कुल मिलाकर सभी बातों ने काठमांडू की नाराजगी बढ़ा दी है.’
उपाध्याय ने कहा, ‘जहां तक चीन की बात है, इसका प्रभाव दुनियाभर में बढ़ रहा है, तो स्वाभाविक है कि वह इसे अपने आसपास तो बढ़ाएगा ही. नया चीन पुराने हिमालय को एक बाधा के रूप में नहीं देखता.’
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बुनियादी ढांचा और आर्थिक निर्भरता
घरेलू राजनीति तो बस एक पहलू है, यह भी बेहद महत्वपूर्ण है कि बीजिंग आर्थिक रूप से नेपाल के लिए कितनी बड़ी जरूरत है.
राजदूत होउ ने राइजिंग नेपाल को दिए साक्षात्कार में कहा, ‘2019 में चीन और नेपाल के बीच व्यापार 1.5 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया. लगभग 170,000 चीनी पर्यटक 2019 में नेपाल यात्रा पर आए और चीन नेपाल में दूसरा सबसे बड़ा पर्यटक स्रोत बन गया है.’
उन्होंने कहा, ‘नेपाल की तरफ से दिए गए आंकड़ें बताते हैं कि नेपाल को कुल सहायता (अनुदान और ऋण सहित) देने के मामले में चीन नेपाल के द्विपक्षीय विकास सहयोग भागीदारों में पहले स्थान पर है. चीन का कुल अनुदान 106 मिलियन डॉलर है और वह नेपाल के सभी बहुपक्षीय और द्विपक्षीय विकास सहयोग भागीदारों में पहले स्थान पर है.’
होउ ने आगे कहा, ‘चीन की मदद वाली 25 भूकंप-रोधी पुनर्निर्माण परियोजनाएं, काठमांडू रिंग रोड इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट का पहला चरण और काठमांडू दरबार हाई स्कूल पुनर्निर्माण परियोजना सहित 12 परियोजनाएं अब तक पूरी हो चुकी हैं, जबकि अन्य परियोजनाएं भी व्यवस्थित और संगठित तरीके से चल रही हैं.’
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के पीछे नेपाल पर ध्यान केंद्रित करने का उद्देश्य निहित है.
विशेषज्ञ बीजिंग के इस झुकाव को बड़ा दांव लगाने और भारत पर आर्थिक निर्भरता घटाने की नेपाल की इच्छा का नतीजा भी मानते हैं.
काठमांडू पोस्ट में स्तंभकार अमीश मुल्मी,जो नेपाल-चीन संबंधों पर एक किताब लिख भी लिख रहे हैं, ने कहा, ‘नेपाल का उत्तर की ओर रुख करना बदलाव के दौर में नेपाल के घरेलू मामलों में भारत की तरफ से जरूरत से ज्यादा दखल, जो 2015 में नाकेबंदी के रूप में सामने आया, देने की प्रतिक्रिया है, क्योंकि भारत पर आर्थिक निर्भरता घटाने के लिए इसकी दरकार है.’
मुल्मी ने कहा, ‘चीन की मदद से उसे बुनियादी ढांचे के विकास के जरिये आर्थिक वृद्धि की संभावना भी नजर आती है.’
इसके अलावा, चीन पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा परियोजना में भी शामिल है- इसकी प्रभारी कंपनी चीन की सीएएमसी इंजीनियरिंग है, और काठमांडू ने परियोजना के वित्त पोषण के लिए मार्च 2016 में चीन के एक्जिम बैंक के साथ 215.96 मिलियन डॉलर का सॉफ्ट लोन करार भी किया था. वहीं, विनिर्माण और जलविद्युत क्षेत्रों में भी निवेश हैं, नेपाल-चीन का संयुक्त उपक्रम होंगशी-शिवम सीमेंट प्राइवेट लिमिटेड, इस हिमालयी राष्ट्र का सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक है.
पिछले साल अक्टूबर में शी जिनपिंग ने नेपाल का दौरा किया और कई निवेशों की घोषणा भी की, यह दो दशकों में किसी चीनी राष्ट्रपति का इस देश में पहला दौरा था.
वित्त वर्ष 2018-19 में भारत के साथ नेपाल का व्यापार घाटा 85,519 करोड़ रुपये तक पहुंच गया, जबकि चीन के साथ यह 20,340 करोड़ रुपये रहा.
नेपाल में भारतीय दूतावास की वेबसाइट के मुताबिक, ‘भारत नेपाल का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार और विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत है, इसके अलावा नेपाल के लगभग पूरे थर्ड कंट्री ट्रेड के लिए पारगमन सुविधा देता है. नेपाल के लिए भारत उसके दो-तिहाई से अधिक वाणिज्यिक व्यापार, सेवाओं में लगभग एक-तिहाई व्यापार, एक-तिहाई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, पेट्रोलियम की लगभग 100 प्रतिशत आपूर्ति, भारत में काम करने वाले श्रमिकों, पेशेवरों और पेंशनरों द्वारा वहां भेजी जाने वाली राशि के एक बड़े हिस्से के लिहाज से एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.’
लोगों के बीच परस्पर जुड़ाव
दोनों तरफ काफी हद तक खुली सीमाओं के बीच लोगों के बीच परस्पर संपर्क और घनिष्ठ आपसी संबंध दशकों से भारत-नेपाल के बीच मैत्रीपूर्ण रिश्तों का आधार रहे हैं. हालांकि, अब चीन इस क्षेत्र पर भी अपनी नजरें गड़ाए है.
नेपाल सरकार के सूत्र चीन की इस ‘सॉफ्ट-पावर डिप्लोमेसी’ की ओर इशारा करते हैं, जिसका नेतृत्व होउ सक्रिय तौर पर कर रही हैं. स्कूलों में मंदारिन अनिवार्य करने से लेकर बीजिंग की तरफ से विभिन्न छात्रवृत्ति देने तक कई कदम उठाए गए हैं. चीनी दूतावास नियमित तौर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी करता है.
काठमांडू निवासी एक राजनीतिक हस्ती ने नाम ने छापने की शर्त पर कहा, ‘चीन नेपाल में सरकारी अधिकारियों, नौकरशाहों, राजनेताओं आदि के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करता है. यह भी सच है कि मौजूदा चीनी राजदूत अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कहीं अधिक सक्रियता निभाती नजर आती है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘चीन और नेपाल के बीच अब पीपुल टू पीपुल एक्सचेंज, गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट एक्सचेंज, सिविल सोसाइटी टू सिविल सोसाइटी एक्सचेंज और मिलिट्री टू मिलिट्री एक्सचेंज भी चल रहा है.’
2019-20 में चीन की तरफ से नेपाली सिविल सेवकों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति और प्रशिक्षण कार्यक्रम तेजी से बढ़कर 850 हो गए जिनकी संख्या 2004 में सिर्फ 20 ही थी.
चीन कोविड महामारी से निपटने के उपायों को लेकर वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से नेपाल की मदद करता रहा है. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले महीने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एक वर्चुअल बैठक की थी.
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अहसानों का बदला
चीन के लिए नेपाल के साथ बढ़ती नजदीकी ने देश में निर्वासित तिब्बतियों की राजनीतिक गतिविधि का लगभग खात्मा सुनिश्चित किया है. विभिन्न सुरक्षा समझौतों और आदान-प्रदान के कारण देश में तिब्बती शरणार्थियों की आवाजाही भी उल्लेखनीय रूप से घटी है.
नेपाली आव्रजन अधिकारियों के आंकड़े बताते हैं कि 2010 में 1248 की तुलना में 2015 में मात्र 85 ऐसे आवेदन आए जिसमें तिब्बतियों ने (नेपाल के रास्ते पारगमन) भारत जाने के लिए परमिट मांगा.
नेपाल के मामलों पर नियंत्रण से बीजिंग को देश में भारतीय और पश्चिमी प्रभाव कम करने में भी मदद मिलती है.
मुल्मी कहते हैं, ‘दक्षिण एशिया में भारतीय प्रभाव घटाने की चीन की महत्वाकांक्षा और मौजूदा सरकार की राष्ट्रवादी, भारत विरोधी स्थिति के बीच एक समन्वय बढ़ रहा है.’
यह 2013 में शी की तरफ से शुरू की गई पड़ोस नीति से भी स्पष्ट है, जब उन्होंने कहा था, ‘पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक मेलजोल दो शताब्दी के लक्ष्यों को वास्तविकता के धरातल पर लाने और चीनी राष्ट्र के अभूतपूर्व कायाकल्प का सपना पूरा करने के लिए जरूरी है.’
लेकिन उपाध्याय के पास भारत के लिए एक विशेष सलाह है- ‘जब नेपाल के साथ अपने संबंधों की बात आए तो अल्पावधि के नफा-नुकसान के बारे में न सोचे.’
आईआईडीएस में सीनियर फेलो ने कहा, ‘भारत को, एशियाई शक्ति के रूप में, एक दीर्घकालिक लक्ष्य पर विश्वास रखना होगा, विशेषकर छोटे-बड़े लोकतांत्रिक देशों के साथ रिश्तों के मामले में. विदेशों से रिश्ते में लोकतांत्रिक मूल्यों को एक मुख्य घटक होना चाहिए.’
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