नई दिल्ली: पाकिस्तान सरकार द्वारा अशांत खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्र में पारंपरिक जनजातीय न्याय प्रणाली को फिर से शुरू करने की कोशिश को नागरिक समाज और राजनीतिक विपक्ष की ओर से कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी है. उनका कहना है कि यह कदम 2018 में पूर्व संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों (FATA) के खैबर पख्तूनख्वा में विलय के बाद मिली संवैधानिक उपलब्धियों को पीछे ले जाएगा.
2 जुलाई को इस्लामाबाद में हुई एक उच्च स्तरीय बैठक में केंद्र और प्रांतीय अधिकारी एकत्र हुए ताकि पूर्ववर्ती जिलों के लिए “वैकल्पिक न्याय” प्रणाली पर चर्चा की जा सके, जिन्हें पहले फ्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन (FCR) जैसे उपनिवेशकालीन कानूनों के तहत चलाया जाता था. चर्चा का केंद्रीय बिंदु था: खैबर पख्तूनख्वा के विलय किए गए जिलों में फिर से जिरगा प्रणाली को लागू करना.
सरकार के अनुसार, यह कदम “जनजातीय जिलों में एक प्रभावी वैकल्पिक न्याय प्रणाली को बढ़ावा देगा” और “विकास तथा कानून-व्यवस्था बनाए रखने में मदद करेगा.”
जिरगा, या पुरुष जनजातीय बुजुर्गों की पारंपरिक परिषदें, पाकिस्तान के जनजातीय इलाकों में लंबे समय से परंपरागत तरीकों से विवाद सुलझाने के लिए इस्तेमाल होती रही हैं, न कि औपचारिक कानूनों से. हालांकि कुछ लोग इसे जमीनी स्तर पर शांति बनाए रखने का तरीका मानते हैं, लेकिन इस प्रणाली की आलोचना भी हुई है, खासकर लिंग भेदभाव और स्थानीय सत्ता संरचनाओं को मजबूत करने के लिए.
खैबर पख्तूनख्वा की मानवाधिकार वकील और पश्तून कार्यकर्ता मोनिज़ा काकर ने दिप्रिंट से फोन पर कहा, “राज्य का यह कदम सिर्फ चिंताजनक नहीं है—यह संविधान और पूर्व FATA के लोगों से किए गए वादों के साथ खुला धोखा है.”
उन्होंने आगे कहा, “जिरगाओं ने हमेशा कानून के दायरे के बाहर काम किया है, जिससे ऑनर किलिंग, बाल विवाह और सामूहिक सजा जैसी गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं हुई हैं. इनका पुनरुद्धार एक खतरनाक संकेत है कि समानांतर न्याय प्रणाली की वापसी हो रही है, जो खासकर महिलाओं और कमजोर वर्गों को उनके कानूनी अधिकारों से वंचित करती है.”
वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक जाहिद हुसैन ने जिरगा प्रणाली की बहाली के प्रस्ताव को सिर्फ नीतिगत भूल नहीं बल्कि FATA के विलय को पलटने की दिशा में उठाया गया कदम बताया.
उन्होंने डॉन में लिखा, “हो सकता है कि अभी तक विलय को पलटने की कोई औपचारिक योजना न हो, लेकिन इस मुद्दे पर केंद्र सरकार की एक समिति बनाना गलत संदेश देता है और संघ की एकता को कमजोर करता है.”
हुसैन ने कहा कि 2018 का सुधार एक महत्वपूर्ण कदम था, जो उस क्षेत्र को मुख्यधारा में लाने के लिए किया गया था, जिसे पहले अमेरिका ने शीत युद्ध और बाद में आतंकवाद विरोधी लड़ाई के लिए रणनीतिक बफर ज़ोन की तरह इस्तेमाल किया था. हालांकि सैन्य अभियानों ने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे आतंकी समूहों को पीछे हटाया है, लेकिन प्रशासनिक खालीपन और विकास की कमी ने समुदायों को असुरक्षित और निराश कर दिया है.
उन्होंने कहा, “पूर्व FATA के सुधारों पर केंद्र सरकार का पुनर्विचार और जिरगा प्रणाली की वापसी में निश्चित रूप से कुछ न कुछ खतरनाक है. इस क्षेत्र को उसके लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों से वंचित कर राज्य और भी ज़्यादा दूरी बना रहा है। अगर सुरक्षा के नाम पर पुरानी व्यवस्था को फिर से लागू किया गया, तो हालात और बिगड़ेंगे.”
सामाजिक मानवविज्ञानी और पोलिटिकल एंड सोशल चेंज इन पाकिस्तान्स ट्राइबल एरियाज़: अंडरस्टैंडिंग पश्तून यूथ के लेखक नवीन अहमद शिनवारी ने भी चिंता जताई.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “FATA का 2018 में खैबर पख्तूनख्वा में विलय राजनीतिक दलों, नागरिक समाज और युवा कार्यकर्ताओं के वर्षों के संघर्ष से संभव हुआ था, ताकि जनजातीय बेल्ट को लंबे समय से प्रतीक्षित अधिकार और विकास मिल सके. लेकिन प्रगति बहुत धीमी रही है, जिसकी वजह कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधनों की कमी है.”
“समुदाय अभी भी औपचारिक न्याय प्रणाली को समझने की कोशिश कर रहे हैं, जो समय और सहयोग मांगता है. इस बीच, केंद्र सरकार द्वारा पुरानी जिरगा प्रणाली को फिर से लागू करने की योजना ने असहजता पैदा कर दी है. बहुतों को डर है कि इससे विलय को पलटने का रास्ता साफ हो सकता है—जो टीटीपी का पुराना सपना रहा है.”
प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाजशास्त्री फ़रज़ाना बारी ने दिप्रिंट को बताया कि जिरगा प्रणाली पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान रही है और यह अक्सर उच्च जाति और सामंती सोच वाले शक्तिशाली लोगों के नियंत्रण में रहती है. उनके निर्णय आमतौर पर पीड़ितों के खिलाफ और ताकतवर लोगों के पक्ष में होते हैं, खासकर जब पीड़ित कमजोर वर्गों से आते हैं.
उन्होंने कहा, “पाकिस्तान को मजबूत और अधिक लोकतांत्रिक स्थानीय शासन प्रणाली की जरूरत है. मसालती (सुलह) परिषदें, अगर सही तरीके से चुनी जाएं और इनमें महिलाओं और वंचित समूहों को शामिल किया जाए, तो ये न्यायसंगत विकल्प हो सकती हैं. जिरगाओं पर निर्भरता इसलिए है क्योंकि दूर-दराज के क्षेत्रों में औपचारिक न्याय व्यवस्था तक पहुंच नहीं है. न्याय प्रणाली को मजबूत करना और कानूनी न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करना जरूरी है ताकि इन समानांतर संरचनाओं की जरूरत ही खत्म हो जाए.”
संवैधानिक अतिक्रमण
जिरगा प्रणाली को औपचारिक रूप से 2018 में पारित 25वें संविधान संशोधन के बाद समाप्त कर दिया गया था, जिसके तहत FATA को खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में विलय कर दिया गया था. इस कदम को व्यापक रूप से क्षेत्र को मुख्यधारा में लाने और पहले से वंचित करोड़ों नागरिकों को संवैधानिक अधिकार देने की दिशा में एक प्रयास के रूप में सराहा गया.
विपक्षी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के नेतृत्व वाली खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने इस संघीय पहल को खारिज कर दिया है और इस्लामाबाद पर संवैधानिक अधिकारों के अतिक्रमण का आरोप लगाया है.
पीटीआई अध्यक्ष बैरिस्टर गोहर अली खान ने पिछले हफ्ते इस्लामाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “किसी भी समिति की बैठक में आदिवासी इलाकों के लिए जिरगा प्रणाली को पुनर्जीवित करने पर चर्चा नहीं हुई, और 18वें संशोधन के बाद यह अधिकार प्रांतीय सरकार का है.”
पीटीआई नेताओं का तर्क है कि संघीय सरकार की क्षेत्र में नई रुचि संयोगवश केपी माइंस एंड मिनरल्स बिल के ठप पड़ने के साथ मेल खाती है — यह एक विवादास्पद विधेयक है जो प्रांत के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों को विनियमित करेगा.
विलय किए गए आदिवासी जिलों के राजनीतिक नेताओं और पूर्व सांसदों ने भी गुरुवार को जिरगा प्रणाली को पुनर्जीवित करने के लिए संघीय सरकार द्वारा समिति गठित करने के कदम को खारिज कर दिया, इसे FATA-खैबर पख्तूनख्वा विलय को पलटने की दिशा में एक कदम बताया. लांडी कोटल में एक सेमिनार में बोलते हुए उन्होंने कहा कि यह क्षेत्र अपने भविष्य को लेकर और “प्रयोग” नहीं झेल सकता.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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