नई दिल्ली: इस स्कैंडल-इन-रिवर्स—जिसमें न तो पाशा और प्रिंसेस रोमांटिक कहानियां थीं और न ही किशोरियों के प्रेग्नेंट होने के मामले—की तरह तो शायद ही किसी चीज ने माडी स्पोर्टिंग क्लब की भावनाओं को आहत किया हो. सफलता का खास मुकाम हासिल कर चुके वकीलों की बेटी अज़्जा अहमद नोवारी ने स्कर्ट और हाई हील की चप्पलें पहनना छोड़ दिया था और बलादी के डंकी-कार्ट मालिकों के घरों की महिलाओं की तरह नकाब पहनने लगी थी. यहां तक, जब उसकी तमाम सहेलियां अपनी शामें पार्टियों में बिता रही थीं, ताकि अपने सपनों का राजकुमार खोज सकें, अज्जा अल-सुबह तक कुरान पढ़ने में लगी रहती थी.
माडी क्लब—जिसकी शोभा बढ़ाने के लिए लाउंज से नजर आने वाला लॉन है—जहां फ्लेमिंगों और लिली से भरा तालाब है और गीजा के पिरामिडो की छाया में फैला अठारह-होल वाला ऑल-सैंड गोल्फ कोर्स है—में तो इसी तरह की भावनाएं गहरा रही थीं कि अज्जा को कभी पति नहीं मिलेगा.
फिर, एक अच्छे परिवार का युवा फिजीशियन आयमन अल-जवाहिरी शादी के लिए अज्जा का हाथ मांगने आया. जैसा, रिवाज था उसने जरा देर के लिए ही अपना नकाब उठाया, और फिर वे दोनों शादी के दिन ही मिले. कॉन्टिनेंटल-सेवॉय होटल में आयोजित शादी समारोह में किसी तरह का कोई संगीत नहीं था, और तस्वीरें लेने की भी मनाही थी.
9/11 हमलों पर आधिकारिक तौर पर लिखने वाले लेखक लॉरेंस राइट को एक अतिथि ने बताया था, ‘यह छद्म-पारंपरिक आयोजन था. बहुत सारे कॉफी कप थे और कहीं कोई हंसी-मजाक नहीं चल रहा था.’
डॉक्टर ऑफ डेथ
काबुल के अपमार्केट शेरपुर इलाके स्थित अपने घर—जिसके बारे में माना जाता है कि यह जगह तालिबान के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी ने मुहैया कराई थी—पर रविवार को अमेरिकी ड्रोन हमले का निशाना बने 71 वर्षीय अल-जवाहिरी की मौत उस पीढ़ी के अंत का प्रतीक है, जिसने 9/11 हमले की इबारत लिखी थी. 2011 में अल-कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद के पिछले एक दशक के दौरान अल-जवाहारी ने नए क्षेत्रीय सहयोगियों को तैयार करने के लिए तालिबान के साथ अपने संबंधों का बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया था.
भले ही अल-जवाहिरी ने अल-कायदा को भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक संघर्षों के लिए इस्तेमाल किया हो, लेकिन संगठन के पास अफगानिस्तान में अपने सुरक्षित ठिकानों में न कोई बड़ा भर्ती कैडर था और न ही ऑपरेशन को अंजाम देने वाला ढांचा. वह काम उसने नई पीढ़ी के नेताओं पर छोड़ दिया.
यद्यपि, आयमन की कहानी यह समझने के लिहाज से ज्यादा अहमियत रखती है कि वास्तव में अल-कायदा की उत्पत्ति कैसे हुई और कैसे यह संगठन विश्व स्तर पर जिहादी आंदोलन का अगुआ बना. बेसिर-पैर की धार्मिक कट्टरता से प्रेरित होने के बजाये अल-कायदा धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता के खिलाफ व्यापक वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष में उलझा रहा है.
मिस्र के कुछ परिवारों की तरह अल-जवाहिरी का परिवार भी सम्मानजनक साख रखता था. आयमन के दादा शेख अल-अहमदी अल-जवाहिरी प्रसिद्ध अल-अजहर मस्जिद के इमाम रहे थे. उसके पिता मोहम्मद रबी अल-जवाहिरी ऐन शम्स यूनिवर्सिटी में फार्माकोलॉजी के प्रोफेसर थे. उसके नाना अब्दुल-वहाब आजम साहित्यिक विद्वान थे और पाकिस्तान में मिस्र के राजदूत रहे थे. वह सऊदी अरब की पहली यूनिवर्सिटी के इनॉगरल रेक्टर भी थे.
यद्यपि, यह परिवार काहिरा के अति-पाश्चात्य सभ्यता वाले माडी इलाके में रहता था लेकिन इसका सांस्कृतिक झुकाव अलग ही था. आयमन ने अंग्रेजी मीडियम वाले विक्टोरिया कॉलेज में नहीं, बल्कि अरबी भाषा में शिक्षा देने वाले एक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की, और परिवार आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न होने के बावजूद कभी माडी क्लब का हिस्सा नहीं बना.
अल-जवाहिरी की जीवनी लिखने वाले मुंतजिर जायत के मुताबिक, 1960 के दशक के मध्य में आयमन को मिस्र में इस्लामी आंदोलन के लिए कुख्यात विचारक सैयद कुतुब ने काफी प्रभावित किया, और वह देश के सबसे बड़े इस्लामी आंदोलन मुस्लिम ब्रदरहुड का हिस्सा बन गया. मात्र 15 वर्ष की उम्र में जेल जाने वाले एक शांत किशोर के लिए यह एक वैश्विक जिहादी के तौर पर पांच दशक के करियर की शुरुआत थी.
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अल्लाह की राह पर
1949 के अंत में साहित्यिक विद्वान और नौकरशाह कुतुब छोटे-से अमेरिकी शहर ग्रीली पहुंचे, ये एक ऐसी यात्रा की शुरुआत थी जो इस्लामवादी दुनिया को बदलने वाली थी. रूढ़िवादी ईसाई मूल्यों से बंधे शहर के कानूनों के तहत प्रतिष्ठानों के शराब परोसने पर भी रोक थी. कुतुब की शिक्षा को फाइनेंस करने वाले सरकारी विभाग के अधिकारियों को यह एक तरह से फायदे की बात ही नजर आ रही थी.
कवि सारा लिपिंकॉट को एक बार दोस्तों ने चेतावनी दी थी, ‘वहां की नीरसता आपको पांच घंटे भी जीने नहीं देगी. वहां सिंचाई के अलावा कुछ नहीं होता.’
माडी के अभिजात्य वर्ग की तरह मिस्र के साथी छात्र ग्रीली में वहन करने लायक स्थितियों में शराब-कबाब का आनंद उठाते थे. लेकिन कुतुब के लिए, ग्रीली इसका जीता-जागता नमूना था कि कैसे औद्योगिक सभ्यता ने नैतिक पतन की ओर बढ़ा दिया है. कुतुब ने अपने संस्मरणों में लिखा है, अमेरिकी महिलाएं, ‘स्क्रीमिंग टेम्पटेशन’ थीं. जैज संगीत था ‘जो असभ्य बुशमैन ने अपनी आदिम इच्छाओं को पूरा करने के लिए बनाया.’
अपने जीवन की शुरू में कुतुब को नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी यूजीनिस्ट, एलेक्सिस कैरेल के ज्ञान-विरोधी विचारों का सामना करना पड़ा था. कैरेल ने तर्क दिया कि मनुष्य को मुक्त करने के बजाये तकनीकी सभ्यता ने उन्हें नियंत्रण की एक सुन्न प्रणाली के अधीन कर दिया है. कुतुब के लिए इसका जवाब तो बस अल्लाह के शब्दों में निहित था.
कुतुब ने अपनी प्रमुख कृति माइलस्टोन्स में जिहादी आंदोलन का एक रोडमैप तैयार किया—जिसमें कहा गया कि अल्लाह के आदेशों की अनदेखी यानी जाहिलिया और इस्लाम के बीच एक सभ्यतागत संघर्ष चलता आ रहा है. यहां तक मुसलमानों द्वारा शासित मिस्र जैसे राष्ट्र भी जाहिलिया की दुनिया बने हुए हैं, क्योंकि उन्होंने अल्लाह के कानून, शरीयत को खारिज कर दिया है.
मिस्र के समाजवादी झुकाव वाले राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासिर अक्सर सार्वजनिक तौर पर मुस्लिम ब्रदरहुड के हिजाब और शरिया के आह्वान का मजाक उड़ा चुके थे. नासिर की आर्थिक नीतियों की विफलताओं और 1967 में इजराइल के साथ युद्ध में हार ने ब्रदरहुड को सशक्त बनाया. हालांकि, 1960 के दशक के मध्य के बाद से दसियों हजार ब्रदरहुड कैडर को जेल में डाल दिया गया. ब्रदरहुड ने तो अपने कदम पीछे खींच लिए लेकिन उसका एक अधिक आक्रामक उत्तराधिकारी सामने आया, और इस तरह मिस्र में इस्लामिक जिहाद ने जन्म लिया.
अंतत:, 1975 में एक असफल इस्लामी तख्तापलट के बाद अल-जवाहिरी को भी जेल जाना पड़ा. विशेषज्ञ यूसुफ अबुल-एनीन लिखते हैं कि काफी अत्याचार झेलने के बाद अल-जवाहिरी ने अपनी आदर्श और तख्तापलट को अंजाम देने वाले नेता पूर्व आर्मर्ड कोर अधिकारी इस्सम अल-कमारी से किनारा कर लिया.
पाकिस्तान में घर वापसी
अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाने के लिए अल-जवाहिरी ने अब एक दूरस्थ जंग के मैदान को चुना. 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत विरोधी जिहाद शुरू हो गई थी, और अल-जवाहिरी ने जिहादी समूहों के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से 1980, 1981, 1984 और 1986 में वहां की यात्रा की. बिन लादेन के साथ वह पेशावर स्थित एक समूह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना जो अरब जिहादी और करिश्माई व्यक्तित्व वाले अब्दुल्ला आजम के इर्द-गिर्द केंद्रित था. अल-जवाहिरी ने घायल जिहादियों का इलाज किया, आजम का दफ्तर चलाने में मदद की, और समूह की नई पत्रिका अल-फत प्रकाशित की.
पेशावर का परिवेश अल-जवाहिरी कोई नया नहीं था. उसके नाना अब्दुल-वहाब को 1954 में पाकिस्तान में मिस्र का राजदूत नियुक्त किया गया था. कराची में राजदूत के घर ने इस्लामवादी-झुकाव वाले बुद्धिजीवियों के लिए एक सैलून का कार्य किया, उनमें मुस्लिम ब्रदरहुड के डी-फैक्टो विदेश मंत्री सैद रमजान प्रमुख थे.
पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने 1948 में रमजान से मुलाकात की थी, जब वह विश्व मुस्लिम कांग्रेस की एक बैठक में हिस्सा लेने कराची पहुंचे थे. खान ने इस्लामी विचारक को अपनी राय प्रसारित करने के लिए एक साप्ताहिक रेडियो कार्यक्रम भी मुहैया करा दिया था. पत्रकार कैरोलिन फ़ॉरेस्ट ने रिकॉर्ड किया है, रमजान ‘मीडिया में काफी सुर्खियों में रहते थे. और हर मौके पर शरीयत आधारित कानून के लिए दलीलें देते थे.’
सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के अवर्गीकृत दस्तावेजों से पता चलता है कि रमजान को ‘फालैंगिस्ट’ और ‘फासीवादी’ करार दिया गया था. हालांकि, खुफिया एजेंसी ने रमजान और अन्य मुस्लिम ब्रदरहुड राजनेताओं का समर्थन किया, और उन्हें विश्वसनीय कम्युनिस्ट विरोधी के तौर पर देखा.
इतिहासकार इयान जॉनसन रिकॉर्ड करते हैं, ‘1950 और 1960 के दशक में अमेरिका ने उनका समर्थन किया क्योंकि उन्होंने म्यूनिख स्थित एक मस्जिद पर कब्जा कर लिया, और स्थानीय मुसलमानों को वहां से निकालकर इसे ब्रदरहुड के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक बना दिया.
बदले में रमजान ने जमात-ए-इस्लामी के पाकिस्तानी इस्लामवादी नेता अबुल अला मौदुदी को कुतुब से मिलवाया. मौदुदी लंबे समय से तर्क देते रहे थे कि ‘गैर-इस्लामी सरकारों को खत्म करना और उनके स्थान पर पूरी ताकत के साथ इस्लामी सरकारें स्थापित करना’ अनिवार्य है. कुतुब ने 1970 के दशक में इन्हीं विचारों को अपना लिया.
9/11 का रास्ता बना
1988 में सोवियत संघ की हार ने अरब जिहादियों के भविष्य पर गहरे विभाजन को जन्म दिया. आजम चाहते थे कि अरब अफगानिस्तान में रहें, और आंदोलन के लिए एक मजबूत आधार का निर्माण करें जो धीरे-धीरे मध्य एशिया में फैल सके. हालांकि, अल-जवाहिरी और बिन लादेन को डर था कि जिहादी स्थानीय जातीय और गुटीय संघर्ष में फंस जाएंगे. और वे चाहते थे कि वे अपने ही देशों में आंदोलनों में फिर से शामिल हों. 1989 में आजम की हत्या ने इस बहस को निर्णायक रूप से खत्म कर दिया.
1989 के बाद मिस्र के इस्लामी जिहाद ने शासन के खिलाफ खौफनाक अभियान चलाया. मध्य पूर्व में कई और जगहों पर अल्जीरिया से लेकर लेबनान तक इस्लामवादियों ने आक्रामकता के साथ जंग छेड़ रखी थी. हालांकि खून तो काफी बहा लेकिन जिहादी आंदोलन जीत हासिल करने में नाकाम रहा. अल-कायदा नेतृत्व के लिए इसका स्पष्ट सबक था—जब तक अमेरिका की हार नहीं होती, तब तक अरब शासन का पतन नहीं होगा.
विद्वान ऐनी स्टर्नर्सन का रिकॉर्ड बताता है, ओसामा बिन लादेन और अल-जवाहिरी 1996 में अफगानिस्तान लौटे और इस भूमि को अमेरिका के खिलाफ अपने अभियान के लिए आधार बनाने में जुट गए. नैरोबी और दार अल-सलाम में अमेरिकी दूतावासों पर बमबारी के साथ एक नया जिहादी अभियान शुरू हुआ. हालांकि, काफी बड़े हमले के बावजूद ये अभियान एक रणनीतिक विफलता साबित हुए—मध्य-पूर्व में अल-कायदा को खदेड़ दिया गया और अफगानिस्तान के भीतर भी उसका खात्मा कर दिया गया.
अज्जा, अपने छह बच्चों में से दो के साथ अल-कायदा शिविर पर अमेरिकी वायु सेना के हवाई हमले में मारी गई.
अमेरिका के खिलाफ अभियान को जिहादी संगठन के अंदर ही तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा. सीरियाई जिहादी विचारक मुस्तफा अल-नस्र ने जोर देकर कहा कि ‘जमीनी स्तर में टकराव और भूमि पर कब्जे के बिना, हम कोई स्टेट नहीं बना सकते, जो कि इस सारे प्रतिरोध का रणनीतिक लक्ष्य है.’ वैश्विक जिहादी आंदोलन का नेतृत्व इस्लामिक स्टेट के हाथों में जा चुका है, जिसने 2014 में अपनी खिलाफत की स्थापना की थी.
2011 में लादेन को मार गिराए जाने के बाद आयमन अल-जवाहिरी ने धीरे-धीरे अल-कायदा को फिर खड़ा करने की कोशिश की. तालिबान के सबसे अहम गुट—हक्कानी नेटवर्क—के साथ अपने रिश्तों का फायदा उठाते हुए अल-जवाहिरी ने अल-कायदा को प्रशिक्षक और सैन्य विशेषज्ञ मुहैया कराने वाला संगठन बना दिया. उसने स्थानीय जातीय और मजहबी संघर्षों का फायदा उठाते हुए अर्ध-स्वायत्त क्षेत्र के सहयोगियों को तैयार करने पर ध्यान केंद्रित किया. ऐसे सहयोगी धीरे-धीरे बढ़े हैं, और खासकर लीबिया, यमन, सीरिया, माली और सोमालिया में सक्रिय भी हैं.
अल-जवाहिरी की तरह, उसके ये तमाम उत्तराधिकारी ऐसी घटनाओं को अंजाम देने की फिराक में हैं जिससे कई अफगानिस्तान उभर सकते हैं.
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