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Thursday, 19 September, 2024
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बांग्लादेश में अंतरिम सरकार 3 महीने से ज़्यादा शासन कर सकती है, ‘आवश्यकता के सिद्धांत’ पर गौर कीजिए

मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली 15-सदस्यीय अंतरिम सरकार के शपथ लेने के साथ ही बांग्लादेश में शिक्षाविदों और पत्रकारों का कहना है कि संविधान के अनुसार इसका कार्यकाल 3 महीने से ज़्यादा हो सकता है.

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नई दिल्ली: नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली बांग्लादेश की अंतरिम सरकार गुरुवार रात 8 बजे ढाका में शपथ लेने वाली है. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि देश में 2006-08 वाला राजनीतिक संकट दोबारा लौट सकता है, जिसमें सेना द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से संचालित “अंतरिम” सरकार संवैधानिक रूप से निर्धारित तीन महीने की अवधि से कहीं अधिक समय तक सत्ता में रही थी.

हुसैन मुहम्मद इरशाद प्रशासन (1983-1990) में कानून राज्य मंत्री निताई रॉय चौधरी ने कहा, बांग्लादेश के संविधान के अनुच्छेद 123 (3) के अनुसार, संसद भंग होने के 90 दिनों के भीतर चुनाव होने चाहिए, लेकिन चूंकि, मंगलवार को असामान्य परिस्थितियों में संसद भंग कर दी गई थी, इसलिए ‘आवश्यकता का सिद्धांत’ लागू हो सकता है.

चौधरी ने दिप्रिंट को बताया, “संसद सामान्य परिस्थितियों में समाप्त नहीं हुई है. वर्तमान समय की तरह ‘असाधारण स्थिति’ में, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की विभिन्न व्याख्याओं में ‘आवश्यकता का सिद्धांत’ (जैसा कि उल्लेख किया गया है) कहता है कि चुनाव जल्द से जल्द होने चाहिए, लेकिन कोई सटीक समय सीमा नहीं दी गई है. नई अंतरिम सरकार को पहले देश में व्यवस्था लानी होगी और फिर इस सिद्धांत की जांच करनी होगी.”

13वीं शताब्दी के अंग्रेज़ी न्यायविद हेनरी डी ब्रैक्टन द्वारा गढ़ा गया ‘आवश्यकता का सिद्धांत’ कहता है कि प्रशासनिक कार्य जो अन्यथा वैध नहीं हैं, उन्हें ‘आवश्यकता’ द्वारा वैध बनाया जाता है. वर्तमान बांग्लादेश के मामले में यह हिंसक विरोधों के बीच कानून और व्यवस्था को बहाल करने की आवश्यकता को संदर्भित कर सकता है. ‘आवश्यकता का सिद्धांत’ और अन्य “निहित सिद्धांतों” ने पहले भी बांग्लादेश और पाकिस्तान में विभिन्न न्यायालयों के फैसलों में विशेषता दिखाई है.

बांग्लादेश के संविधान के मुताबिक, नए चुनाव नवंबर के मध्य तक होने चाहिए, क्योंकि 6 अगस्त को संसद भंग कर दी गई थी, लेकिन बांग्लादेश में शिक्षाविदों और पत्रकारों ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि उन्हें इस पर संदेह है.

ढाका के एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “नई सरकार को संविधान का पालन करने की ज़रूरत नहीं है. यह एक अर्धसैनिक तख्तापलट है.”

यह इस बात का संदर्भ था कि कैसे पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना सोमवार को नाटकीय घटनाक्रम में अपने देश से चलीं गईं, जिसके बाद बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वकर-उज-ज़मान ने मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा की.

ढाका में रहने वाले एक शिक्षाविद ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “यूनुस संभवतः पूर्णकालिक प्रधानमंत्री बनेंगे. मुझे उम्मीद है कि वे संविधान द्वारा निर्धारित 90-दिन की अवधि से कहीं अधिक समय तक वे सत्ता में बने रहेंगे.”


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क्या कहता है संविधान

अनुच्छेद 123 (3) (बी) के अनुसार, संसद के विघटन के 90-दिनों के भीतर विधायकों का आम चुनाव होना चाहिए.

इसमें कहा गया है, “संसद के सदस्यों का आम चुनाव होगा: (ए) कार्यकाल की समाप्ति के कारण विघटन के मामले में, ऐसे विघटन से पहले 90 दिनों की अवधि के भीतर और (बी) ऐसे समाप्ति के अलावा किसी अन्य कारण से विघटन के मामले में, ऐसे विघटन के बाद 90 दिनों के भीतर.”

हालांकि, संविधान में “ईश्वरीय कृत्य” चेतावनी भी है.

प्रावधान में लिखा है, “ऐसे मामले में जहां मुख्य चुनाव आयुक्त की राय में, ईश्वरीय कृत्य के कारण, इस खंड में निर्दिष्ट अवधि के भीतर ऐसा चुनाव कराना संभव नहीं है, ऐसा चुनाव ऐसी अवधि के अंतिम दिन के बाद अगले 90 दिनों के भीतर कराया जाएगा.”

इसका मतलब है कि संविधान असाधारण परिस्थितियों में अगले चुनाव के लिए अधिकतम 180 दिनों की अनुमति देता है. ऐसी स्थिति में परिणामों की घोषणा के 30 दिनों के भीतर संसद की बैठक होनी चाहिए.

2006-08 का संकट

2006-08 के बांग्लादेश राजनीतिक संकट में सेना प्रमुख मोईन उद्दीन अहमद के नेतृत्व में सेना ने देश में आपातकाल घोषित होने के बाद कार्यवाहक सरकार का समर्थन करने के लिए हस्तक्षेप किया. यह सरकार संवैधानिक तीन महीने की अवधि से कहीं ज़्यादा दो साल तक चली थी.

अतीत में बांग्लादेश में हर राष्ट्रीय चुनाव से पहले एक तटस्थ कार्यवाहक सरकार (एनसीजी) को सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण सुनिश्चित करने के लिए एक ज़रूरी बफर की तरह देखा जाता था. एनसीजी में गैर-पक्षपाती व्यक्ति शामिल थे जिन्हें स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने और उनकी निगरानी करने का काम सौंपा गया था.

यह तंत्र पहली बार 1996 में शुरू किया गया था जब बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के नेतृत्व वाली सरकार सत्ता में थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया और उनकी सरकार ने 13वां संशोधन पेश किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक अनिर्वाचित 11-सदस्यीय एनसीजी का प्रावधान था.

लेकिन 2004 में खालिदा ज़िया के नेतृत्व वाली सरकार ने एक और संशोधन पेश किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ा दी गई. इसे चुनावों में हेरफेर करने के तरीके की तरह देखा गया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि एक विशेष पूर्व मुख्य न्यायाधीश NCG का मुख्य सलाहकार बन जाए.

इसने हसीना की अवामी लीग के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शनों के साथ एक राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया, जिसमें NCG के लिए एक वैकल्पिक मुख्य सलाहकार की मांग की गई. दंगे और हिंसा सड़कों पर फैल गई. बाद में एनसीजी ने 2007 में नए चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा, लेकिन अवामी लीग ने इसका बहिष्कार करने का फैसला किया और जनवरी 2007 में सेना प्रमुख मोइन उद्दीन अहमद ने एनसीजी का समर्थन करने के लिए हस्तक्षेप किया.

बांग्लादेश में नए चुनाव होने में दो और साल लगेंगे, जो संवैधानिक रूप से अनिवार्य तीन महीने की अवधि से कहीं ज़्यादा है. हसीना की अवामी लीग ने 2008 के चुनावों में जीत हासिल की और 2009 में सत्ता में आई, जिससे बांग्लादेश में तीन साल के अप्रत्यक्ष सैन्य शासन का अंत हो गया.

लेकिन जून 2011 में एनसीजी का तंत्र समाप्त हो गया.

हसीना के नेतृत्व वाली सरकार ने 15वां संशोधन पेश किया, जिसने इस व्यवस्था को खत्म कर दिया. 15-सदस्यीय विशेष संसदीय समिति ने पहले एनसीजी को खत्म करने के खिलाफ सलाह दी थी और कहा था कि इसे अगले दो चुनावों तक जारी रखना चाहिए, लेकिन बाद में अवामी लीग सरकार के साथ बातचीत के बाद समिति ने अपनी सिफारिश बदल दी.

संशोधन और इसे जिस तरह से पेश किया गया, उसकी न केवल विपक्ष बल्कि संवैधानिक कानून विशेषज्ञों और शिक्षाविदों ने भी तीखी आलोचना की.

ढाका विश्वविद्यालय में कानून विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर मैमुल अहसान खान ने उल्लेख किया कि कैसे ज़िया या हसीना द्वारा बांग्लादेश के संविधान में बार-बार किए गए बदलावों ने इसकी सर्वोच्चता को कमज़ोर कर दिया.

उन्होंने एशियाई मानवाधिकार आयोग के लिए 2014 के एक शोध पत्र में लिखा, “बांग्लादेश का संविधान कठोर है; इसे इतनी जल्दी और आसानी से नहीं बदला जाना चाहिए था. यह मायने रखता है कि बांग्लादेश अपने संविधान को कितनी बार नाटकीय ढंग से बदलता है, जिससे देश के सर्वोच्च कानून की विशेषताएं कम हो जाती हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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