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Saturday, 21 December, 2024
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चीन और पाकिस्तान से पीछे छूटे भारत को जल-कूटनीति को लेकर गंभीर होना पड़ेगा

जल अब तेल की तरह सामरिक संसाधन बनता जा रहा है. लेकिन जल-कूटनीति, चीन और पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध इस्तेमाल किए जाने के बावजूद भारतीय विदेश नीति का प्रमुख औजार नहीं बन पाया है.

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नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में एक प्रभावी ताकत के रूप में उदय, उनके समक्ष मौजूद विदेश नीति संबंधी चुनौतियों को कम नहीं कर सकता. इनमें अंतर्राष्ट्रीय जल विवाद भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए, कम्युनिस्ट शासित नेपाल का चीन की तरफ रुझान न सिर्फ वहां कई स्कूलों में मंदारीन भाषा की पढ़ाई अनिवार्य किए जाने से, बल्कि ढाई अरब डॉलर लागत वाली 1200 मेगावाट की बूढ़ी-गंडक बांध परियोजना को दोबारा पटरी पर लाए जाने से भी जाहिर होता है. भारत की परिधि पर ताबड़तोड़ बांध तैयार करने में चीन की सक्रियता म्यांमार से लेकर तिब्बत और उससे आगे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर तक में दिख रही है, जहां वह 720 मेगावाट की कारोट और 1,124 मेगावाट की कोहाला परियोजनाओं का निर्माण कर रहा है. कोहाला तथाकथित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा योजना के तहत सबसे बड़ा चीनी निवेश है.

दक्षिण एशिया में दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी बसती है, पर उन्हें दुनिया के जल संसाधनों के महज 8.3 फीसदी से काम चलाना पड़ता है. जल इस क्षेत्र के लिए तेल जैसा महत्वपूर्ण संसाधन हो गया है, जहां अन्य ऊर्जा स्रोतों के सहारे तेल पर निर्भरता कम की जा सकती है. जल का कोई और विकल्प नहीं है. भारत को जल कूटनीति को क्षेत्रीय विदेश नीति के महत्वपूर्ण औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए. ताकि नियम आधारित सहयोग और संघर्ष निवारण की व्यवस्था संभव हो सके.

नदी बेसिनों को लेकर भारत की एक विशिष्ट स्थिति है. ये क्षेत्र का इकलौता ऐसा देश है. जो ऊपरी, मध्यवर्ती और निचली, तीनों ही श्रेणी की नदी बेसिनों में आता है. व्यापक भौगोलिक विस्तार होने के कारण क्षेत्र की सभी महत्पूर्ण नदी बेसिनों में भारत की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी है. भारत ऊपरी धारा वाले देशों खास कर चीन और पाकिस्तान के नदी जल संबंधी क्रिया-कलापों से प्रभावित हो सकता है, पर खुद भारत के पास इस तरह की गतिविधियों की बहुत कम गुंजाइश है. क्योंकि वह निचली धारा के देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ क्रमश: सिंधु और गंगा की संधियों में बंधा है. वास्तव में चीन द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बहाव वाली अपनी नदियों को पुनर्नियोजित करने के प्रयासों का प्रभाव भारत से अधिक एशिया के किसी देश पर नहीं पड़ेगा. क्योंकि चीनी नियंत्रण वाले इलाकों से निकलने वाली नदियों के जल का करीब आधा–सीधे या नेपाल से होकर–अकेले भारत को प्राप्त होता है.

फिर भी जल-कूटनीति को शायद ही भारतीय विदेश नीति के प्रमुख औजारों में शामिल किया जाता हो. भारत ने यदि जल को सामरिक संसाधन माना होता और द्विपक्षीय रिश्तों को साधने में जल-कूटनीति पर जोर दिया होता, तो उसने एकतरफा सिंधु जल संधि (आईडब्लूटी) पर हस्ताक्षर नहीं किए होते, जो अब भी नदी जल में हिस्सेदारी संबंधी दुनिया की सबसे उदार संधि है. भारत के मुख्य वार्ताकार निरंज गुलाटी ने अपनी किताब में स्वीकार किया है कि आईडब्लूटी संधि किए जाने से पहले भारत में जल की उपलब्धता पर इसके संभावित दीर्घकालीन असर के बारे में कोई अध्ययन नहीं कराया गया था. आज भारत की निचली सिंधु बेसिन में बढ़ते जल संकट के कारण भूजल स्तर के घटने की रफ्तार के मामले में पंजाब-हरियाणा-राजस्थान भूपट्टी अरब प्रायद्वीप के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर है.

इस बीच, चीन और पाकिस्तान नदी जल को भारत के खिलाफ औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. पाकिस्तान की जल युद्ध रणनीति, आईडब्लूटी के संघर्ष-समाधान के प्रावधानों के सहारे किसी तरह की असहमति को अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना देने पर केंद्रित है. चीन की 2017 में भारत को नदी जल संबंधी आंकड़े देना बंद करने की कार्रवाई– जो न सिर्फ द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन थी. वरन उसके कारण असम में बाढ़ संबंधी गैरजरूरी मौतें भी हुईं. साफ है कि कैसे दबाव बनाने की कूटनीतिक में चीन को अपरंपरागत तरीकों के इस्तेमाल से भी गुरेज नहीं है.


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सिर्फ सिंधु नदी मामले में अपनी मजबूत स्थिति का इस्तेमाल कर ही भारत पाकिस्तान के अपरंपरागत युद्ध को समाप्त करने की आशा कर सकता है.

मोदी के नए एकीकृत जल ऊर्जा मंत्रालय का लक्ष्य भारत की जल समस्या को गंभीर बनाने में सहायक रहे टुकड़ा-टुकड़ा काम करने के तरीके को सुधारना है. पर बगैर संस्थागत और एकीकृत नीति निर्माण प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण एवं निरंतर घटते संसाधन के लिए समग्र दृष्टिकोण बनाना या जल संबंधी दीर्घकालीन हितों को बढ़ावा देने वाली प्रभावी जल-कूटनीति विकसित करना आसान नहीं होगा.

भारत को साझा जल संसाधनों के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के पालन के लिए चीन पर दबाव डालना चाहिए. और पाकिस्तान के साथ, भारत को ज़्यादा झुकने की ज़रूरत नहीं है. पुलवामा जनसंहार से दो हफ्ते पहले भारत ने आईडब्लूटी के प्रावधानों तहत पाकिस्तान के सिंधु जल निरीक्षकों की मेजबानी की थी. ऐसे दौरों को मार्च 2020 तक के लिए टाला जा सकता था. स्थायी सिंधु आयोग की बैठक अगस्त 2018 में हुई थी, पूर्ववर्ती बैठक के मात्र पांच महीने बाद, जबकि अगली बैठक मार्च 2019 से पहले निर्धारित नहीं थी. फरवरी में भारत ने अपने तीन भावी लघु पनबिजली संयंत्रों के डिजायन बिना वजह पाकिस्तान से साझा किए थे. जबकि पाकिस्तान ने भारतीय निरीक्षकों के पारस्परिक दौरे को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर रखा है.

बंगाल की खाड़ी बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिम्सटेक) को मोदी द्वारा प्राथमिकता दिए जाने के मद्देनज़र दूरंदेशी भारतीय कूटनीति को बांग्लादेश-भूटान-भारत-म्यांमार-नेपाल विकास कॉरिडोर में जल और पनबिजली संसाधनों पर बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए. अंतिम उद्देश्य जल और ऊर्जा ग्रिडों के सहारे बिम्सटेक को एशिया के अग्रणी आर्थिक विकास क्षेत्र बनाने का होना चाहिए. भारत ने पहले ही सीमा पार बिजली व्यापार के लिए नियम घोषित कर दिए हैं जो कि पड़ोसी देशों को भारत के बिजली ग्रिडों के जरिए बिजली निर्यात की सहूलियत देते हैं.


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जल संसाधनों से समृद्ध भूटान, म्यांमार और नेपाल में पनबिजली उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं. नेपाल जहां अब भी भारत से बिजली का आयात करना है. वहीं मज़बूत भारत-भूटान संबंध दोनों देशों के बीच जल तथा स्वच्छ एवं सस्ती ऊर्जा के मामले में घनिष्ठ सहयोग को दर्शाते हैं. भूटान के दुनिया की सबसे छोटी पर सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार होने में मुख्य योगदान भारत को उसके पनबिजली निर्यात का है. छोटे, पर्यावरण अनुकूल और नदी धारा पर स्थापित संयंत्रों से आगे बढ़ते हुए भूटान अब भारत के सहयोग से जलाशय आधारित 2,585 मेगावाट की सांकोश नदी परियोजना स्थापित कर रहा है. इसके लिए निर्मित बांध भारत के किसी भी बांध के मुकाबले बड़ा होगा.

पानी निरंतर क्षेत्रीय विकास का एक महत्वपूर्ण कारक बनता जाएगा. भारत को जल-कूटनीति पर गंभीरता से काम करते हुए सीमा-पार जल विवादों में मज़बूत नेतृत्व का परिचय देना चाहिए.

(ब्रह्मा चेल्लानी ‘वाटर, पीस, एंड वार’ के लेखक हैं. यहां प्रस्तुत विचार लेखक के निजी हैं.)

(हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ विशेष अनुबंध के तहत )

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