गुरुग्राम: रूस के राजदूत डेनिस अलीपोव ने कहा कि तेल कभी भी चर्चा से बाहर नहीं होगा. उन्होंने कहा कि अगर किसी वजह से भारत रूसी तेल की खरीद बंद करने का फैसला करता है, तो “अन्य देश” इसे खरीद लेंगे.
गुरुग्राम के क्वोरम क्लब में दिप्रिंट के कार्यक्रम ‘ऑफ द कफ’ में उनकी यह टिप्पणी उस समय आई है जब 21 नवंबर की समयसीमा नजदीक है. इस दिन ट्रंप प्रशासन और यूरोपीय संघ (EU) द्वारा रूसी तेल कंपनियों पर लगाए गए नए प्रतिबंध लागू होंगे, जिससे भारत की रूस से तेल खरीद पर असर पड़ सकता है.
अलीपोव का इशारा इस ओर था कि चीन की तेल रिफाइनिंग कंपनियां अमेरिकी, ब्रिटिश और यूरोपीय संघ द्वारा रूस की सबसे बड़ी तेल कंपनियों रोसनेफ्ट और लुकोइल पर लगाए गए ताजा प्रतिबंधों के बावजूद रूसी कच्चे तेल की खरीद जारी रखेंगी.
उन्होंने कहा, “तेल के मामले में, मेरा मानना है कि हमारे पास वैश्विक तेल उत्पादन का लगभग 8 से 12 प्रतिशत हिस्सा है. अगर इस हिस्से को वैश्विक बाजार से हटा दिया जाए, तो बाजार अस्थिर हो जाएगा. ऐसा किसी भी हालत में नहीं होगा. अगर भारत हमारी ओर से दी जा रही छूट का लाभ उठाते हुए तेल खरीदना बंद करता है, तो कोई और देश ऐसा करेगा और लाभ कमाएगा. इसलिए रूसी तेल बाजार में बना रहेगा.”
रूसी राजदूत ने कहा, “अगर भारत नहीं खरीदेगा, तो कोई और खरीदेगा. यह आपका फैसला है. भारत हमारे लिए नहीं, बल्कि अपने हित में रूसी तेल खरीदता है. यह कहना गलत और दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत रूस का समर्थन इसलिए कर रहा है ताकि हम यूक्रेन में युद्ध जारी रख सकें.”
वॉशिंगटन डी.सी. द्वारा लगाए गए प्रतिबंध कंपनियों और सरकारों को प्रतिबंधित फर्मों से तेल खरीदने से रोक सकते हैं, क्योंकि अमेरिकी वित्तीय बाजारों का प्रभाव बहुत बड़ा है.
रिपोर्टों के मुताबिक, भारत की रिलायंस इंडस्ट्रीज रोजाना लगभग 5 लाख बैरल तेल रोसनेफ्ट से खरीदती है. हालांकि, 21 नवंबर के बाद रोसनेफ्ट या लुकोइल के साथ कोई भी व्यापार अमेरिकी सरकार की सेकेंडरी सैंक्शन के दायरे में आ सकता है.
जहां भारतीय रिफाइनर रूसी तेल की खरीद पर पुनर्विचार कर रहे हैं, वहीं चीन की कंपनियां जैसे युलोंग पेट्रोकेमिकल मॉस्को से कच्चे तेल का आयात बढ़ाने की तैयारी में हैं. युलोंग पर हाल ही में ब्रिटेन ने प्रतिबंध लगाए थे.
अलीपोव ने कहा कि ये ताजा प्रतिबंध अब रूस की नीतियों पर “कोई असर” नहीं डालेंगे. उन्होंने बताया कि मॉस्को की अर्थव्यवस्था पर पहले ही लगभग “30,000 प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं”, लेकिन इससे उसकी यूक्रेन युद्ध नीति पर कोई फर्क नहीं पड़ा.
उन्होंने कहा, “यूरोपियों द्वारा पेश किए गए ये पैकेज, अमेरिकियों द्वारा लगाए गए प्रतिबंध—यह सब पहले से लागू उपायों का विस्तार मात्र हैं. इसमें कुछ नया नहीं है. और यह अनुभव दिखाता है कि यह व्यवस्था काम नहीं कर रही है. इससे हमारी नीति नहीं बदलेगी.”
करीब चार साल से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध में कीव को पश्चिमी देशों और नाटो से अरबों डॉलर की मदद मिली है. भारत ने लगातार कहा है कि “संवाद और कूटनीति” ही युद्ध समाप्त करने का रास्ता है.
युद्ध शुरू होने के बाद से भारत की छूट वाले रूसी तेल की खरीद में काफी बढ़ोतरी हुई है. वित्त वर्ष 2024-2025 में भारत ने रूस से लगभग 56 अरब डॉलर का कच्चा तेल खरीदा. जबकि 2019-2020 में यह आंकड़ा करीब 3.1 अरब डॉलर था. 2021-2022 में यह बढ़कर लगभग 5 अरब डॉलर हो गया.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिका भारत पर रूसी तेल की खरीद बंद करने का दबाव बना रहा है. ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो ने अगस्त में कहा था कि चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध “मोदी का युद्ध” है. वहीं भारत ने कहा है कि उसकी ऊर्जा खरीद वैश्विक बाजार की कीमतों पर आधारित है और राजनीतिक नहीं है.
ब्लूमबर्ग के अनुमान के मुताबिक, भारत के कुल कच्चे तेल आयात का लगभग 36 प्रतिशत हिस्सा रूस से आता है. भारत के लिए रूसी तेल सस्ता इसलिए है क्योंकि 2022 के अंत में लागू G7 मूल्य सीमा और उससे परे मॉस्को द्वारा दी गई अतिरिक्त छूट दोनों का फायदा मिलता है.
जी7 देशों द्वारा लागू मूल्य सीमा भारत की ऊर्जा स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और वैश्विक तेल बाजार को स्थिर रखने के लिए बनाई गई थी. यह बात भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत एरिक गार्सेटी ने कई बार सार्वजनिक रूप से कही है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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