नई दिल्ली: महिंदा राजपक्षे के बाद प्रमुख राजपक्षे भाइयों में से एक गोटाबाया ने दो बार अपने देश की रक्षा की शपथ ली—पहले एक सैनिक के तौर पर और फिर राष्ट्रपति पद की. फिर भी, एक वर्ग के बीच श्रीलंका के ‘रक्षक’ जैसी अच्छी-खासी छवि हासिल करने वाले पूर्व रक्षा सचिव बुधवार को अपने देशवासियों को एक गहराते संकट के बीच छोड़ कर मालदीव भाग गए.
एक व्यक्ति जो कभी राजनीति में नहीं आना चाहता था, अब दूसरे देश में शरण लेने भागा है. उनके पास विकल्प सीमित हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वह सिंगापुर जा सकते हैं.
माना जाता रहा है कि गोटाबाया श्रीलंका और अमेरिका की दोहरी नागरिकता रखते हैं, जहां उन्होंने बतौर आईटी पेशेवर काम किया था. हालांकि, 2019 में उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने अपनी अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी, जिसके बाद उनके श्रीलंका में सर्वोच्च पद पर पहुंचने का रास्ता साफ हो पाया था.
हालांकि अमेरिकी विदेश विभाग ने कभी पुष्टि नहीं की कि क्या उन्होंने अपनी नागरिकता छोड़ दी है, गोटाबाया के छोटे भाई और श्रीलंका के पूर्व वित्त मंत्री बेसिल राजपक्षे कथित तौर पर द्वीप राष्ट्र छोड़कर भाग चुके हैं और माना जाता है कि वे अमेरिका रवाना हुए हैं.
73 वर्षीय गोटाबाया को कभी श्रीलंका के अधिकांश लोगों खासकर सिंहली बौद्धों ने देश का ‘रक्षक’ बताकर सिर-आंखों पर बैठाया था. उन्हें यह सम्मान 2009 में लगभग तीन दशक तक चले श्रीलंकाई गृहयुद्ध को खत्म करने में निभाई भूमिका के लिए दिया गया था.
गृहयुद्ध के दौरान गोटाबाया ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) के नेतृत्व वाले तमिल विद्रोह को कुचलने में अहम भूमिका निभाई थी, उस समय उनके बड़े भाई महिंदा राजपक्षे राष्ट्रपति थे.
ऐसा माना जाता है कि 2005 से 2009 तक रक्षा सचिव के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान लिट्टे लड़ाकों के निशाना बनने से गोटाबाया को अपना सिंहली राष्ट्रवादी जनाधार मजबूत करने में मदद मिली.
हालांकि, उन पर युद्ध के दौरान गंभीर मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगा, हालांकि उन्होंने आरोपों से इनकार किया है. 2006 में वह कथित तौर पर लिट्टे के एक आत्मघाती हमलावर की तरफ से की गई मारने की कोशिश में बच गए.
2015 में सत्ता से बाहर होने के बाद गोटाबाया राष्ट्रवादी लहर पर सवार होकर नवंबर 2019 में श्रीलंका के राष्ट्रपति बनकर लौटे, जो द्वीप राष्ट्र में एक के बाद बम धमाकों—जिसे ‘ईस्टर बमकांड’ भी कहा जाता है—के कारण उपजी थी. हमलों को लेकर सार्वजनिक आक्रोश श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) के लिए वरदान साबित हुआ जो कि राष्ट्रपति चुनाव में गोटाबाया की जीत का रास्ता साफ करने के लिए महिंदा राजपक्षे की तरफ से बनाई गई एक नई पार्टी थी.
राष्ट्रवाद के अलावा, सत्ता विरोधी भावना ने भी राजपक्षे की वापसी में एक अहम भूमिका निभाई.
उस समय, कई श्रीलंकाई कथित तौर पर गोटाबाया को ‘हिटलर’ के रूप में संदर्भित करते थे. लेकिन बौद्ध जनाधार के बीच उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि एक प्रमुख और प्रभावशाली बौद्ध भिक्षु ने ऐसे विशेषणों को भी प्रशंसा में बदल दिया. उनका कहना था कि अगर ऐसा ही तो गोटाबाया को हिटलर की तरह ही शासन करना चाहिए और देश का निर्माण करना चाहिए.
भिक्षु ने 2018 में गोटाबाया के 69वें जन्मदिन के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहा था, ‘हमें एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है जिसमें महिंदा राजपक्षे का आशीर्वाद हो और जो बौद्ध धर्म, बौद्ध व्यवस्था और सिंहली से जुड़ा हो. हम देख सकते हैं कि कानून-व्यवस्था पूरी तरह भंग हो चुकी है. हमें एक ऐसे नेता की जरूरत है जो सिद्धांत (दहामी नायकायेक) के प्रति निष्ठा दिखाए.’
हालांकि, यह गोटाबाया का ही नेतृत्व था जिस दौरान श्रीलंका दिवालिया घोषित हुआ जिसका नतीजा व्यापक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल के रूप में सामने आया. इससे एक शांतिपूर्ण ‘अरागलया’ (सिंहली भाषा में संघर्ष) की शुरुआत हुई जो जो 13 जुलाई को 96वें दिन में पहुंच गया.
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आईटी पेशेवर से सैन्य ताकत तक
20 जून 1949 को श्रीलंका के दक्षिणी प्रांत के मतारा जिले के पलातुवा में जन्मे गोटाबाया बहुसंख्यक सिंहली समुदाय से आते हैं. नौ भाई-बहनों में पांचवें गोटाबाया का जन्म राजनीति में सक्रिय एक हाई-प्रोफाइल परिवार में हुआ था.
वह 1971 में श्रीलंकाई सेना (तब सीलोन सेना) में शामिल हुए और 1991 तक यानी करीब दो दशक अपने देश की सेवा की और इस दौरान उन्होंने कई वीरता पुरस्कार भी जीते.
हालांकि, इसके बाद उन्होंने श्रीलंका छोड़ दिया और अमेरिका चले गए जहां उन्होंने लॉस एंजिल्स में एक आईटी पेशेवर के तौर पर काम किया.
गोटाबाया 2005 में अमेरिका से लौटे जब उनके बड़े भाई महिंदा राजपक्षे, जो तब राष्ट्रपति बन चुके थे, ने उन्हें रक्षा सचिव नियुक्त किया. परिजनों को सरकार में शीर्ष पदों पर पहुंचाना उन आरोपों में से एक है जो राजपक्षे परिवार पर लगता रहा है.
दोनों भाई, गोटाबाया और महिंदा, ऋण और ढांचागत विकास के लिए चीन पर बहुत अधिक निर्भर थे और यही वजह है कि श्रीलंका बीजिंग की ‘कर्ज जाल कूटनीति’ में फंस गया.
बीजिंग ने जहां कोलंबो को राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेगा ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ योजना के लिए प्रमुख स्थान के तौर पर चुना. वहीं द्वीप राष्ट्र को चीनी निवेश की भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
2017 में पूर्व मैत्रीपाला सिरिसेना सरकार को 2005 और 2015 के बीच महिंदा राजपक्षे शासनकाल के दौरान लिए गए कर्ज के भुगतान के लिए 15,000 एकड़ जमीन के साथ हंबनटोटा बंदरगाह औपचारिक तौर पर चीन को सौंपना पड़ा था.
नाटो में एक पूर्व अमेरिकी राजनयिक और सैन्य प्रोफेसर और अमेरिकी रक्षा विभाग के इंडो-पैसिफिक कमांड पैट्रिक मेंडिस ने हार्वर्ड इंटरनेशनल रिव्यू में प्रकाशित एक लेख में उल्लेख किया है, ‘राष्ट्रपति शी के राष्ट्रीय कायाकल्प के ‘नए युग’ के साथ श्रीलंका अब हिंद महासागर में भारत और अमेरिका के खिलाफ चीनी हितों को आगे बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रोजेक्ट के साथ युद्धपोतों का एक रणनीतिक ‘ठिकाना’ बन गया है.’
भारत के साथ रिश्ते
बताया जाता है कि तमिल विद्रोह को देखने और उस पर काबू पाने वाले के तौर पर गोटाबाया को श्रीलंकाई गृहयुद्ध में नई दिल्ली की तरफ से निभाई गई भूमिका के लिए भारत नापसंद रहा है.
वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के 1980 के दशक में भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को श्रीलंका भेजने के फैसले के विरोधी थे और यहां तक कि उन्होंने विद्रोहियों के खिलाफ सेना की सफलता नाकाम हो जाने के लिए भारत सरकार को जिम्मेदार भी ठहराया था.
लिट्टे के खिलाफ एक ऑपरेशन का जिक्र करते हुए—जिसे वडामराछी ऑपरेशन के नाम से जाना जाता है और जिसे 1987 में भारतीय सैनिकों ने नाकाम किया था—2011 में गोटाबाया ने कहा कि यह ‘आगे नहीं चल पाया क्योंकि भारत सरकार ने हस्तक्षेप किया था.’ उन्होंने यह भी कहा था कि गृहयुद्ध के अंतिम चरण में, राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे नई दिल्ली को सारे नवीनतम घटनाक्रम की जानकारी देने के लिए ‘निर्धारित प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया था.’
लेखक और पत्रकार यतीश यादव ने अपनी किताब ‘रॉ: ए हिस्ट्री ऑफ इंडियाज कोवर्ट ऑपरेशंस’ में लिखा है कि भारतीय खुफिया एजेंसी ने लिट्टे को कुचलने और भारतीय संपत्तियों की रक्षा करने में श्रीलंकाई सेना की मदद की कोशिश की थी.
दशकों बाद, राष्ट्रपति पद संभालने के बाद गोटाबाया ने चीन की ओर झुकाव बनाए रखते हुए भारत के साथ संबंध सुधारने की इच्छा जताई थी. 2019 में चुनाव जीतने के तुरंत बाद उन्होंने अपनी राजकीय यात्रा के लिए भारत को चुना क्योंकि कोलंबो और नई दिल्ली दोनों तनावपूर्ण रिश्तों को फिर से सुधारने की कोशिश में थे.
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