(सेड्रिक एम जॉन, क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन)
लंदन, 10 अप्रैल (द कन्वरसेशन) महासागर धरती के करीब तीन चौथाई हिस्से पर फैले हैं जिससे यह ग्रह आकाश से हल्के नीले रंग का दिखता है। लेकिन ‘नेचर पत्रिका’ में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में जापानी शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि पृथ्वी के महासागर कभी हरे हुआ करते थे।
प्राचीन काल में पृथ्वी के महासागरों के अलग रंग में दिखने का संबंध उनके रसायन विज्ञान और प्रकाश संश्लेषण के विकास से है। भूविज्ञान के स्नातक छात्र के रूप में, मुझे ग्रह के इतिहास को रिकॉर्ड करने के लिहाज से ‘बैंडेड आयरन’ संरचना के रूप में जाने जाने वाले एक प्रकार के ‘चट्टानी जमाव’ के महत्व के बारे में पढ़ाया गया था।
‘बैंडेड आयरन’ संरचना का जमाव आर्कियन और पैलियोप्रोटेरोजोइक युग में लगभग 3.8 से 1.8 अरब साल पहले हुआ था। उस समय जीवन महासागरों में एक कोशिका वाले जीवों तक ही सीमित था।
महाद्वीप ग्रे, भूरे और काले रंग की चट्टानों और जमा तलछटों का एक बंजर परिदृश्य था। महाद्वीपीय चट्टानों पर गिरने वाली बारिश की बूंदों से उसमें विद्यमान लोहा घुलकर नदियों के जरिये महासागरों में पहुंच गया।
लोहे के अन्य स्रोत समुद्र तल पर ज्वालामुखी थे। यह लोहा (आयरन) बाद में महत्वपूर्ण हो गया होगा। आर्कियन युग एक ऐसा समय था जब पृथ्वी का वायुमंडल और महासागर ऑक्सीजन गैस से रहित थे, लेकिन यह वह समय था जब सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा उत्पन्न करने वाले पहले जीव विकसित हुए थे।
इन जीवों ने अवायवीय यानी ऐनेरोबिक प्रकाश संश्लेषण का उपयोग किया, जिसका अर्थ है कि वे ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में भी प्रकाश संश्लेषण कर सकते हैं।
इसने महत्वपूर्ण परिवर्तनों को गति दी क्योंकि अवायवीय प्रकाश संश्लेषण का एक सहउत्पाद ऑक्सीजन गैस है। ऑक्सीजन गैस समुद्री जल में लोहे से संबद्ध है। ऑक्सीजन केवल वायुमंडल में एक गैस के रूप में मौजूद थी जब समुद्री जल का लोहा और अधिक ऑक्सीजन को बेअसर नहीं कर सकता था।
आखिरकार, प्रारंभिक प्रकाश संश्लेषण ने ‘महान ऑक्सीकरण घटना’ को जन्म दिया, जो एक प्रमुख पारिस्थितिकी मोड़ था जिसने पृथ्वी पर जटिल जीवन को संभव बनाया।
इससे बड़ा परिवर्तन हुआ और ऑक्सीजन रहित पृथ्वी पर ऑक्सीजन की प्रचुरता के साथ महासागर और वायुमंडल में बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध हो गई।
‘बैंडेड आयरन’ संरचनाओं में विभिन्न रंगों के ‘बैंड’ ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में जमा आयरन भंडार और लाल ऑक्सीकृत आयरन के बीच एक परिवर्तन के साथ इस बदलाव को रिकॉर्ड करते हैं।
हरे महासागरों का मामला
आर्कियन युग में हरे महासागरों के लिए हालिया शोध रिपोर्ट का मामला एक अवलोकन से शुरू होता है: जापानी ज्वालामुखी द्वीप इवो जीमा के आसपास के पानी में ऑक्सीकृत आयरन के एक रूप (एफ-3) से जुड़ा हरा रंग है। द्वीप के आसपास के हरे पानी में नीले-हरे शैवाल पनपते हैं।
अपने नाम के बावजूद नीले-हरे शैवाल आदिम बैक्टीरिया हैं और असली शैवाल नहीं हैं। आर्कियन युग में, आधुनिक नीले-हरे शैवाल के पूर्वज अन्य बैक्टीरिया के साथ विकसित हुए जो प्रकाश संश्लेषण के लिए इलेक्ट्रॉनों के स्रोत के रूप में पानी के बजाय ‘फेरस आयरन’ का उपयोग करते हैं। यह महासागर में लौह (आयरन) की उच्च स्तर की उपस्थिति की ओर इशारा करता है।
प्रकाश संश्लेषक जीव सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके कार्बन डॉइऑक्साइड को शर्करा में बदलने के लिए अपनी कोशिकाओं में वर्णक (ज्यादातर क्लोरोफिल) का उपयोग करते हैं। क्लोरोफिल पौधों को उनका हरा रंग देता है। नीले-हरे शैवाल इसलिए विचित्र हैं क्योंकि उनमें सामान्य क्लोरोफिल वर्णक तो होता ही है, साथ ही एक दूसरा वर्णक भी होता है जिसे फाइकोएरिथ्रोबिलिन (पीईबी) कहते हैं।
अपने शोधपत्र में शोधकर्ताओं ने पाया कि आनुवंशिक रूप से छेड़छाड़ करके तैयार किये गए आधुनिक नीले-हरे शैवाल पीईबी के साथ हरे पानी में बेहतर तरीके से बढ़ते हैं। हालांकि क्लोरोफिल हमें दिखाई देने वाले प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन पीईबी हरे-प्रकाश की स्थिति में बेहतर दिखता है।
प्रकाश संश्लेषण और ऑक्सीजन के उदय से पहले, पृथ्वी के महासागरों में घुला हुआ लोहा (ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में जमा हुआ लोहा) कम था। आर्कियन युग में प्रकाश संश्लेषण के उदय से जारी होने वाली ऑक्सीजन ने समुद्री जल में ऑक्सीकृत लोहे को जन्म दिया। शोधपत्र के कंप्यूटर सिमुलेशन ने यह भी पाया कि प्रारंभिक प्रकाश संश्लेषण द्वारा मुक्त हुई ऑक्सीजन ने ऑक्सीकृत लोहे के कणों की इतनी उच्च सांद्रता पैदा की कि सतह का पानी हरा हो गया।
एक बार महासागरों के पूरे आयरन के ऑक्सीकृत हो जाने के बाद केवल मुक्त ऑक्सीजन (ओ 2) बची।
महासागरों की रासायनिक संरचना में यह परिवर्तन धीरे-धीरे हुआ। आर्कियन युग करीब डेढ़ अरब साल का है।
क्या महासागरों का रंग फिर बदल सकता है?
हालिया जापानी शोध पत्र के अनुसार, हमारे महासगरों के रंग का संबंध पानी के रसायनशास्त्र और जीवन के प्रभाव से जुड़ा है। हम विज्ञान कथाओं से बहुत ज्यादा जानकारी लिए बिना भी अलग-अलग महासागरों के रंगों की कल्पना कर सकते हैं।
अगर सल्फर का स्तर ज्यादा होता तो पृथ्वी पर बैंगनी महासागर संभव होते। इसे तीव्र ज्वालामुखी गतिविधि और वायुमंडल में कम ऑक्सीजन सामग्री से जोड़ा जा सकता था, जिससे बैंगनी सल्फर बैक्टीरिया का प्रभुत्व हो जाता।
लाल महासागर सैद्धांतिक रूप से तीव्र उष्णकटिबंधीय जलवायु के तहत भी संभव हैं जब भूमि पर चट्टानों के क्षय से बना लाल रंग का ऑक्सीकृत आयरन नदियों या हवाओं द्वारा महासागरों में ले जाया जाता है। या अगर ‘लाल ज्वार’ से जुड़े एक प्रकार के शैवाल महासागरों की सतह पर हावी हो जाएं तो भी यह हो सकता है।
भूवैज्ञानिक लिहाज से समय के पैमाने पर कुछ भी स्थायी नहीं है और हमारे महासागरों के रंग में परिवर्तन का होना अपरिहार्य है।
(द कन्वरसेशन) संतोष मनीषा
मनीषा
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