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Saturday, 23 November, 2024
होमविदेशतालिबान से लड़ रहे हमलोगों को न भूलें- भारतीय मिशन पर हमला नाकाम करने वाले अफगान नेता ने कहा

तालिबान से लड़ रहे हमलोगों को न भूलें- भारतीय मिशन पर हमला नाकाम करने वाले अफगान नेता ने कहा

2016 में आतंकवादियों के खिलाफ लड़ते हुए भारतीय वाणिज्य दूतावास  को बचाने वाले बल्ख के पूर्व गवर्नर अता नूर ने दिप्रिंट से कहा कि भारत को तालिबान के खिलाफ उनकी लड़ाई में अफगानिस्तान की मदद करनी चाहिए नहीं तो यह फिर से तमाम आतंकवादी समूहों का एक महफूज ठिकाना बन जाएगा.

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मजार-ए-शरीफ: जमीयत-ए-इस्लामी पार्टी के प्रभावशाली नेता अता मोहम्मद नूर का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान के पुराने दोस्त भारत को तालिबान के साथ उसकी जंग में हर संभव मदद करनी चाहिए, ताकि इस युद्ध से जूझ रहे देश को लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी), जैश-ए-मोहम्मद, और अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के लिए फिर से महफूज पनाहगाह बनने से रोका जा सके,

बल्ख सूबे की राजधानी मजार-ए-शरीफ में स्थित अपने आलीशान आवास पर दिप्रिंट को दिए गये एक विशेष साक्षात्कार में बात करते हुए, नूर ने कहा कि नई दिल्ली को काबुल में अशरफ गनी सरकार की सहायता करनी चाहिए और एक ऐसे समय में अफगानिस्तान को ‘भूलना’ नहीं चाहिए जब वह तालिबान के साथ. एक गृह युद्ध में फंसा हुआ है.

इस साक्षात्कार का अनुवाद करने वाले नूर के बेटे खालिद नूर अफगान शांति वार्ता टीम के सदस्य और यूके के रॉयल सैंडहर्स्ट रॉयल एकेडमी ऑफ मिलिट्री ट्रेनिंग के पूर्व छात्र हैं.

अता नूर ने कहा, जो बल्ख प्रांत के गवर्नर भी थे ने कहा, ‘भारत अफगानिस्तान का मित्र है और हम ऐतिहासिक रूप से मित्र रहे हैं. अब जबकि अफगान सरकार ने मदद और सहायता मांगी है, मुझे उम्मीद है कि हमारे भारतीय मित्र सरकार की सहायता करेंगे.’

वे आगे कहते हैं, ‘अगर वे (भारत) ऐसा नहीं करते हैं तो अफगानिस्तान के हालात उन्हें भी प्रभावित करेंगे क्योंकि उज्बेकिस्तान के ईमू (इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान), अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, एटिम (तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट) – जैसे  सभी अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी समूह फिर से सक्रिय हो जाएंगे और अफगानिस्तान उन के लिए एक महफूज ठिकाना बन जाएगा.

इसलिए सभी क्षेत्रीय देशों, विशेषकर हमारे भारतीय मित्रों के लिए यह बहुत अहम हो जाता है कि वे अफगानिस्तान की सहायता करें और इन कठिन दिनों में हम अपने सहयोगियों से यह उम्मीद करते हें कि हमारे लिए कुछ अच्छा करेंगे.

नूर की यह टिप्पणी एक ऐसे समय में आई है जब अफगानिस्तान में सुरक्षा के हालात लगातार बिगड़ रहें हैं और इस देश की सेनाएं तालिबान गुटों को पीछे धकेलने में लगी हैं क्योंकि यहां से अंतरराष्ट्रीय सैनिकों की वापसी के बीच बे काफ़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं.

इस देश मे तैनात अंतरराष्ट्रीय सेनाएं 9/11 की घटना के बाद अफगानिस्तान पहुंचीं थीं और आतंकवाद के खिलाफ 20 साल तक चले एक ऐसे युद्ध के बाद इस देश को छोड़ने के लिए तैयार हो रहीं जो इस युद्धग्रस्त राष्ट्र में शांति बहाल करने में एकदम विफल रहा है. उनकी वापसी की अंतिम तारीख 31 अगस्त मुक़र्रर की गयी है.

इस सप्ताह की शुरुआत में, नूर द्वारा समर्थित अफगान सरकारी बलों ने पवित्र मजार-ए-शरीफ शहर पर तालिबान के हमले को रोकने में कामयाबी हासिल की थी. उधर, इस आशंका के बीच कि यह शहर तालिबान के हाथ में जा सकता है, भारत ने मंगलवार को वहां अपना वाणिज्यक दूतावास बंद कर दिया था और अपने राजनयिकों और अन्य भारतीय नागरिकों को वहां से सुरक्षित निकाल लिया था.

तालिबान की सक्रियता बढ़ने के समय से ही उसके खिलाफ जंग लड़ रहे नूर को ‘लंबे समय से भारत का दोस्त’ माना जाता है.  2016 में, जब मज़ार -ए-शरीफ स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास आतंकवादियों के हमले की चपेट में आ गया था तब बल्ख सूबे के गवर्नर रहे नूर ने खुद अपने हाथों में बंदूक उठाई और इसकी हिफ़ाज़त के लिए दौड़ पड़े थे.

वे बताते हैं, ‘मैं खुद मजार-ए-शरीफ में भारतीय वाणिज्य दूतावास में उनकी हिफ़ाज़त के लिए गया था और एक इंसान के रूप में यह मेरा फर्ज़ था और वह एक ऐसे देश के लिए किया गया था जिसने हमेशा मुश्किल वक्त में अफगानिस्तान की मदद की है. मुझे अपनी किए पर कोई पछतावा नहीं है.’


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तालिबान के खिलाफ एक गठबंधन खड़ा होगा

सोने का पानी चढ़े फ्रेम में लगी फूलों की एक बड़ी सी पेंटिंग के सामने सेना जैसी पोशाक पहन बैठे हुए नूर कहते हैं कि वे वह समझते हैं कि भारत को मजार-ए-शरीफ में अपना वाणिज्य दूतावास क्यों बंद करना पड़ा.

वो ये भी कहते हैं, ‘भारत के खिलाफ कई तरह के छद्म युद्ध और आपसी प्रतिद्वंद्विता भी चल रहीं हैं और वे लगातार खतरे में रहते हैं. इसलिए उन्हें कुछ निर्णय (वाणिज्य दूतावास को बंद करने के बारे में) लेने पड़े. इससे मैं निराश नहीं हूं लेकिन मैं उनसे अफगानिस्तान को न भूलने को कहूंगा.’

इस बुधवार को नूर ने पूर्व उप-राष्ट्रपति मार्शल अब्दुल राशिद दोस्तम और हजारा बाहुबली नेता मोहम्मद मोहकिक के साथ उत्तरी अफगानिस्तान, जहां बल्ख स्थित है, की सुरक्षा करने और इसे तालिबान के हाथों में जाने से रोकने के उद्देश्य से अफ़ग़ान राष्ट्रपति गनी के साथ बैठक की.

कई लोग इस बैठक को उस नॉर्दर्न अलायन्स  के फिर से खड़ा होने के रूप में भी देख रहे हैं, जिसने 1990 के दशक में अहमद शाह मसूद के नेतृत्व में तालिबान गुटों से जमकर लड़ाई लड़ी थी.

9 सितंबर 2001 को अल कायदा द्वारा मसूद की हत्या को 9/11 के आंतक कर्टेन रेज़र बताया जाता है जो ठीक इसके दो दिन बाद हुई थी.

नूर का कहना है, ‘तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान की रक्षा के लिए एक गठबंधन खड़ा होगा.’  साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि वह और उनके लोग अफगानिस्तान के चौथे सबसे बड़े शहर मजार की “रक्षा करने के लिए ‘प्रतिबद्ध’ हैं.

वे कहते हैं, ‘हमारे लोग इस शहर की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं. वे तालिबान के खिलाफ लड़ने के लिए, उन अंधेरे से भरे दिमाग वाले लोगों के खिलाफ लड़ने के लिए, जो किसी पर किसी भी प्रकार की दया नहीं दिखाते हैं, चाहे वह महिलाएं हों या बच्चे हों. वे न तो किसी मर्द को देखते हैं ना किसी आम नागरिक को, वे केवल लोगों की हत्याएं करते हैं. इसलिए यह हमारा काम और हमारा फर्ज़ है कि हम इन लोगों की हिफाजत करें और उनकी मुखालफत करें.‘

पिछले महीने, नूर ने अफगानिस्तान के प्रमुख शांति वार्ताकार अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ, अफ़ग़ानों की इंट्रा अफगान डायलॉग के तहत तालिबान के साथ शांति समझौता करने वाले अफगान दल के साथ कतर की राजधानी दोहा की यात्रा भी की थी.

अमेरिकी सेनाएं गैर-जिम्मेदाराना‘ तरीके से अफ़ग़ानिस्तान से लौट रही हैं 

नूर के अनुसार, हालांकि अमेरिकी सैनिकों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी तयशुदा थी, लेकिन उनके बाहर निकालने का काम जल्दबाजी में किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में ‘आतंक के खिलाफ 20 साल तक जंग लड़ने के बाद वे निहायत हीं ‘गैर-जिम्मेदाराना तरीके से’ पीछे हट रहे हैं.

उनका कहना है, “मैं खुद को एक आज़ाद इंसान और एक ऐसे शख्स के रूप में मानता हूं. जो वाकई आज़ादी में यकीन रखता है और मैं यह बिल्कुल नहीं चाहता कि कोई भी विदेशी सेना मेरे देश में रहे. हालांकि, दो दशक पहले का परिदृश्य अलग था, हालात बदल गये थे, और संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप करने का निर्णय लेते हुए यह तय किया था कि अंतर्राष्ट्रीय बलों को यहां हस्तक्षेप करना चाहिए. इसलिए, जब वे आए, तो हमने उनका विरोध नहीं किया और हमने आतंकवाद और फिरकापरस्ती के खिलाफ लंबी लड़ाई देखी.’

वे आगे कहते हैं, ‘इसलिए, 20 वर्षों के बाद, उनसे हमारी अपेक्षा थी कि वे कम-से-कम अपनी वापसी से पहले  यह सुनिश्चित करेंगे कि इस इलाक़े में स्थिरता हो, इस देश में विकास हो और यहां के लोगों के अधिकारों की गारंटी हो. परंतु, उन्होंने इसके लिए इंतजार नहीं किया. उन्होंने यह सब कुछ नहीं देखा और वास्तव में वे निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना तरीके से पीछे हट गए.’

उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बलों और अमेरिकी सुरक्षा बलों की इस गैर-जिम्मेदाराना वापसी के बाद से बहुत सारे जिले तालिबान के हाथ में आ चुके हैं.

वे बताते हैं, ‘बाद में कुछ सूबे भी उनके हाथों में आयें हैं. बेशक, यह सब बल्ख प्रांत को भी प्रभावित कर रहा है. पिछले दो महीनों में हमें भी काफ़ी कुछ मुश्किलें हुई हैं. बल्ख के आसपास लड़ाई हो रही थी, लेकिन पिछले दो दिनों से यह लड़ाई और तेज हो रही है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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