नई दिल्ली: अमेरिका और तालिबान के बीच दोहा समझौते पर दस्तखत होने के दो साल और कट्टर इस्लामिक समूह के अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करने के एक साल बाद, ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों ने एक बार फिर संकेत दे दिया है कि शांति समझौता खत्म हो गया है. मंगलवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि सीआईए ने काबुल में किए गए एक ड्रोन हमले में अल क़ायदा प्रमुख अयमान अल-ज़वाहिरी को मार गिराया है.
वॉशिंगटन और काबुल ने एक दूसरे पर कथित शांति समझौते के तहत की गई प्रतिबद्धताओं के उल्लंघन का आरोप लगाया है, जिसपर फरवरी 2020 में दोहा में बाइडन के पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप और तालिबान के बीच दस्तखत किए गए थे.
मंगलवार को ज़वाहिरी की मौत का ऐलान करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा, ‘काबुल में अल-क़ायदा के लीडर की मेज़बानी करके और उसे आसरा देकर तालिबान ने दोहा समझौते का पूरी तरह उल्लंघन किया और वो दुनिया को आश्वासन दोहराते रहे कि वो आतंकवादियों को अफगान इलाके का इस्तेमाल नहीं करने देंगे, जिससे दूसरे देशों की सुरक्षा को खतरा हो’.
उन्होंने आगे कहा, ‘उन्होंने (तालिबान) अफगान लोगों के साथ भी विश्वासघात किया और अपनी खुद की घोषित इच्छा से भी पलट गए कि उन्हें अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की मान्यता और उनसे सामान्य रिश्तों की जरूरत है’.
ब्लिंकन ने आगे कहा कि तालिबान की ‘अपनी प्रतिबद्धताओं का पालन करने की अनिच्छा या असमर्थता’ को देखते हुए, अमेरिका ‘मजबूत मानवीय सहायता के साथ अफगान लोगों की मदद करेगा और खासकर महिलाओं तथा बच्चों के मानवाधिकारों के संरक्षण की वकालत करेगा’. एक तरह से उन्होंने काबुल के अंतरिम तालिबान शासन के लिए किसी भी तरह की मान्यता को खारिज कर दिया.
दूसरी ओर, तालिबान ने कहा कि इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान (आईईए) हमले की निंदा करता है और उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ये हमला ‘अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों और दोहा समझौते का स्पष्ट उल्लंघन है’.
आईईए प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने एक बयान में कहा कि वो मामले की जांच कर रहे हैं और उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसी हरकतों से ‘अमेरिका, अफगानिस्तान और क्षेत्र के हितों को नुकसान पहुंचेगा’.
ज़वाहिरी की हत्या रविवार को एक अमेरिकी ड्रोन से हुई, जो मुख्य काबुल शहर के शीरपुर इलाके में स्थित उसके घर से आकर टकराया था. इससे तालिबान के उन दावों पर सवाल खड़े हो गए हैं कि वो अफगानिस्तान की ज़मीन को दहशतगर्दी के लिए इस्तेमाल नहीं होने देगा.
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दोहा समझौते के सिद्धांत
दोहा समझौते पर, जिसे शांति समझौता भी कहा गया, अमेरिका और तालिबान के बीच नौ दौर की बातचीत के बाद फरवरी 2020 में दस्तखत किए गए थे.
समझौते पर अफगानिस्तान के लिए अमेरिका के पूर्व विशेष दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद और तालिबान के राजनीतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर ने दस्तखत किए थे और पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो उसके गवाह बने थे.
समझौते के तहत तालिबान ने अमेरिका को गारंटी दी थी कि वो अपनी जमीन पर दहशतगर्दी को पनपने नहीं देंगे.
समझौते के पहले हिस्से में कहा गया है, ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान और अमेरिका इस बात को मानते हैं कि अल-क़ायदा, आईएसआएस-के और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय आतंकी समूह या व्यक्ति, सदस्यों की भर्ती करने, पैसा जुटाने, अपने अनुयायियों को प्रशिक्षित करने और हमलों की योजना बनाने तथा उन्हें अंजाम देने के लिए अभी भी अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिनसे अमेरिका, उसके सहयोगियों और अफगानिस्तान की सुरक्षा को खतरा बना रहता है’.
इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्ष सहमत हो गए थे कि ‘अल-क़ायदा और उसके सहयोगी संगठनों को हराने के लिए कुछ कदम उठाए जाएं’ जिनके तहत इन आतंकी संगठनों को ‘भर्ती करने, प्रशिक्षण देने, पैसा जुटाने (जिसमें नार्कोटिक्स के उत्पादन या वितरण से हुई कमाई शामिल है), अफगानिस्तान से होकर गुजरने या उसके अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त यात्रा दस्तावेज का दुरुपयोग करने या अफगानिस्तान में किसी सहायक गतिविधि को अंजाम देने की अनुमति नहीं दी जाएगी’.
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‘आत्म-भ्रम की कवायद’
अनुभवी राजनयिक और काबुल में भारत के पूर्व राजदूत राकेश सूद ने कहा, ‘दोहा समझौता पश्चिम खासकर अमेरिका की ओर से आत्म-भ्रम की कवायद थी, जिसका हित सिर्फ ये था कि वो अफगानिस्तान से निकल आए’.
उन्होंने आगे कहा, ‘समझौते के तहत सिर्फ एक प्रतिबद्धता की अहमियत थी और वो थी उस देश से अमेरिकी सैनिकों की वापसी…तालिबान के हमेशा से अल क़ायदा के साथ रिश्ते रहे हैं. आधे दर्जन से अधिक यूएनएससी रिपोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि उनके बीच रिश्ते अभी भी सलामत हैं और पहले से ज़्यादा मज़बूत हैं’.
दोहा समझौते के चार व्यापक क्षेत्र थे- तालिबान की ओर से आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयां, अमेरिकी सैनिकों की वापसी के लिए एक सशर्त समय-सीमा, इंट्रा-अफगान वार्ता की शुरुआत और उन शर्तों पर चर्चा जिनसे आगे चलकर एक स्थायी युद्धविराम होगा.
वॉशिंगटन के विलसन सेंटर में उप निदेशक और साउथ एशिया के सीनियर एसोसिएट माइकल कुगेलमैन ने कहा, ‘दोहा समझौता हमेशा से कमज़ोर था और इसकी विरोधाभासी व्याख्याएं की जा सकती थीं. लेकिन सच्चाई ये है कि ज़वाहिरी काबुल में रह रहा था और तालिबान हुकूमत ने इस बारे में कुछ नहीं किया. ये दोहा समझौते का एक स्पष्ट उल्लंघन नज़र आता है, जिसकी शर्त है कि तालिबान ऐसे तत्वों को अफगान धरती पर रहने की अनुमति नहीं देगा, जो अमेरिका के लिए खतरा हों’.
उन्होंने आगे कहा, ‘ज़वाहिरी के अफगानिस्तान में रहने की जगह और उसकी अवधि, हमेशा के लिए तालिबान के इस प्रचारित मिथक की धज्जियां बिखेर देते हैं कि उसके अब अल-क़ायदा के साथ रिश्ते नहीं हैं. तालिबान को लाज़िमी तौर पर पता था और उन्होंने आवास हासिल करने में उसकी मदद की’.
हालांकि समझौते पर ऐसे समय दस्तखत हुए थे, जब अमेरिका ‘अंतहीन लड़ाईयों’ को बंद करने के लिए बेकरार था, लेकिन उसमें कोई ऐसा प्रवर्तन तंत्र नहीं था जिसके तहत कोई भी पक्ष, किसी ‘उल्लंघन’ की स्थिति में कानूनी विवाद का मामला दायर करा सके.
मिडिल ईस्ट आई की एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह के एशिया प्रोग्राम के एक विश्लेषक इब्राहिम बाहिस का ये कहते हुए हवाला दिया गया: ‘दोहा समझौते में कभी कोई प्रवर्तन या मध्यस्थता प्रणाली थी ही नहीं. इसलिए अगर दोनों पार्टियों के दायित्वों की व्याख्या को लेकर कोई असहमति है, तो दरअसल ऐसी कोई व्यवस्था थी ही नहीं जो उस विवाद को सुलझा सके’.
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