नई दिल्ली: पेशावर में शनिवार को अपनी मस्जिद के बाहर बम विस्फोट में मारा गया इस्लामी मौलवी मुफ्ती मुनीर शाकिर पाकिस्तान में एक प्रमुख, लेकिन विवादास्पद शख्सियत था.
प्रतिबंधित आतंकवादी समूह लश्कर-ए-इस्लाम का संस्थापक खैबर पख्तूनख्वा में पेशावर के बाहरी इलाके में उरमार के पास जामिया मस्जिद में दोपहर की नमाज़ अदा कर रहा था, जब मस्जिद के बाहर आईईडी विस्फोट हुआ, जिसमें मुनीर शाकिर सहित चार लोग घायल हो गए.
डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, पेशावर के एक अस्पताल में उसकी मौत हो गई.
विवादास्पद इतिहास के बावजूद, कई इलाकों ने इस प्रकरण की निंदा की. खैबर पख्तूनख्वा के मुख्यमंत्री अली अमीन गंदापुर ने हमले की निंदा की और जिम्मेदार लोगों की शीघ्र गिरफ्तारी की मांग की.
पूर्व सीनेटर और नेशनल डेमोक्रेटिक मूवमेंट के प्रमुख मोहसिन दावर ने ‘एक्स’ पर लिखा, “मुफ्ती मुनीर शाकिर पेशावर में उन पर हुए हमले में शहीद हो गए क्योंकि उन्होंने हमारे लोगों के लिए शांति और न्याय की मांग की थी. पख्तूनख्वा में आतंकवाद बेकाबू होकर फैल रहा है. हमारे क्षेत्र को एक बार फिर हमारे लोगों की हत्या का मैदान बनाया जा रहा है.”
अफगानिस्तान के पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह ने भी मौलवी की हत्या पर शोक जताया.
उन्होंने एक्स पर लिखा, “बीते कुछ साल में, मुफ्ती शाकिर छोटे-मोटे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने वाले एक स्थानीय मौलवी से एक जातीय-राष्ट्रवादी व्यक्ति में बदल गए, जो न्याय की वकालत करते थे, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान की सत्ता संरचनाओं को फिर से आकार देना था, जिसके बारे में उनका मानना था कि उस पर एक जातीय समूह और प्रांत का प्रभुत्व था. उनके पास इस बारे में मजबूत राय थी कि कैसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां घरेलू राजनीति में हेरफेर करने और विदेश नीति को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक मदरसा प्रणाली का इस्तेमाल करती हैं. इस साहसिक स्पष्टता की वजह से उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.”
निडर वक्ता
कुर्रम क्षेत्र के कट्टरपंथी मौलवी मुफ्ती मुनीर शाकिर 2004 में खैबर एजेंसी के बारा में पहुंचा, जो पाकिस्तान के अस्थिर कबायली इलाकों में से एक है.
सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के आरोप में अपने गृहनगर से बाहर निकाले जाने के बाद, शाकिर का बारा पहुंचना शुरू में किसी की नज़र में नहीं आया, लेकिन वक्त के साथ, उसके चरमपंथी विचारों और उग्र बयानबाज़ी ने आग की लपटें पैदा कर दीं, जिससे पाकिस्तान में सबसे खतरनाक आतंकवादी समूहों में से एक का जन्म हुआ: लश्कर-ए-इस्लाम (LeI). इस संगठन पर 2008 में पाकिस्तान सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था.
पूर्व रेडियो प्रचारक शाकिर ने पहले एक स्थानीय रेडियो स्टेशन के प्रसारण पर प्रसारित अपने उग्र उपदेशों के लिए कुख्याति प्राप्त की थी, जहां उसने बरेलवी विचारधारा की निंदा की और शिया समुदाय को निशाना बनाया.
देवबंदी मौलवी, 2004 में खैबर जिले में जाने से पहले हरकत-उल-इस्लाम आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति रहा. उसके कट्टरपंथी विचारों ने जल्दी ही लोगों को आकर्षित किया, जिनमें से कई इस्लाम की सख्त, देवबंदी व्याख्या के उनके दृष्टिकोण को अपनाने के लिए तैयार थे.
उसने 2004 में LeI की स्थापना की, जिसका लक्ष्य बारा से शुरू करके खैबर जिले में इसे लागू करना था.
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लश्कर-ए-इस्लाम का उदय और टीटीपी से रिश्ते
लश्कर-ए-इस्लाम का उदय प्रतिद्वंद्वी धार्मिक समूहों, विशेष रूप से बरेलवी सूफी नेतृत्व वाले अंसार-उल-इस्लाम के साथ हिंसक झड़पों में डूबा हुआ था, जिसका नेतृत्व पीर सैफुर रहमान कर रहे थे, जो 1980 के दशक में अफगानिस्तान से भागने के बाद इस क्षेत्र में बस गए थे.
तालिबान राजनीति के लेखक और विशेषज्ञ सैयद मंजर अब्बास जैदी ने 2010 के एक लेख में लिखा था, अपनी विरोधी धार्मिक विचारधाराओं के साथ दोनों समूह एक कटु, खूनी संघर्ष में उलझ गए. उनकी प्रतिद्वंद्विता 2006 में चरम पर पहुंच गई जब एक स्थानीय जिरगा (आदिवासी परिषद) ने हस्तक्षेप किया और शाकिर और रहमान दोनों को क्षेत्र से निकाल दिया.
जबकि रहमान ने फैसले को स्वीकार कर लिया, शाकिर ने शुरू में विरोध किया, लेकिन आखिरकार स्थानीय लोगों द्वारा उसे बाहर कर दिया गया. इसके बाद उसने लोकल ट्रांसपोर्टर मंगल बाग को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया. बाग ने लश्कर-ए-इस्लाम को उसके सबसे हिंसक और प्रभावशाली दौर में पहुंचा दिया.
बाग के नेतृत्व में, एलईआई की महत्वाकांक्षा धार्मिक सुधार से आगे बढ़कर खैबर जिले पर पूर्ण नियंत्रण तक पहुंच गई, जिसमें रणनीतिक खैबर दर्रा भी शामिल था, जो अफगानिस्तान के लिए एक महत्वपूर्ण रास्ता था.
2008 तक, एलईआई इस क्षेत्र में एक शक्तिशाली ताकत बन गया, जिसने कई प्रतिद्वंद्वी समूहों को खदेड़ दिया था और अपना प्रभाव बढ़ाया. लश्कर-ए-इस्लाम क्रूर शरिया कानून का पर्याय बन गया.
समूह ने आबादी पर कठोर नियम लागू किए, जिसमें टेलीविजन, संगीत और यहां तक कि सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध भी शामिल था. महिलाओं की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया और समूह ने किसी भी बात को इनकार करने पर दंडित करने के लिए हिंसा का इस्तेमाल किया.
पाकिस्तानी सेना ने आतंकवादियों को खदेड़ने के लिए कई हमले किए, लेकिन LeI ने दृढ़ता दिखाई और 2008 में सेना द्वारा शुरुआती हमलों के बाद बारा पर फिर से कब्ज़ा कर लिया. 2015 तक, पाकिस्तान सेना के दबाव के कारण समूह अफगानिस्तान के नांगरहार प्रांत में चला गया.
हालांकि, समूह की किस्मत तब बदलने लगी जब देश के सबसे खतरनाक आतंकवादी समूह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने खैबर जिले में पैठ बनाना शुरू कर दिया. यह समूह जो कभी खुद को अपराध से लड़ने वाले सुधारवादी समूह के रूप में पेश करता था, बाद में TTP के साथ मज़बूत संबंधों वाले एक आतंकवादी समूह में बदल गया.
शुरुआत में TTP के विलय के प्रस्तावों का विरोध करने के बावजूद, LeI ने आखिरकार तालिबान के साथ सहयोग करना शुरू कर दिया, जिसमें दोनों समूह आतंकवादियों, संसाधनों और रणनीतियों को साझा करते थे. इस सहयोग ने लश्कर-ए-इस्लाम के लिए एक बदलाव को तैयार किया, जिसने पहले आत्मघाती बम विस्फोटों और पाकिस्तानी राज्य पर सीधे हमलों से परहेज़ किया था.
टीटीपी के साथ सेना में शामिल होने के बाद, एलईआई ने कई हमले किए, जिसमें 2010 में पेशावर में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर घातक बमबारी भी शामिल थी.
लेकिन 2010 के बाद लश्कर-ए-इस्लाम का प्रभाव कम होने लगा, जब पाकिस्तानी सेना ने खैबर जिले में इसे खत्म करने के मकसद से कई ऑपरेशन शुरू किए. इसके बाद, कई एलईआई आतंकवादी और उनके परिवार सीमा पार करके अफगानिस्तान भाग गए, जहां कथित तौर पर स्थानीय आदिवासी नेताओं और कुछ मामलों में अफगान सरकार ने उनका स्वागत किया.
अफगानिस्तान में, एलईआई ने नंगरहार प्रांत में शरण ली, जहां इसने इस्लामिक स्टेट-खोरासन प्रांत (आईएस-केपी) के साथ हाथ मिलाया, पाकिस्तान को अस्थिर करने के अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए खुफिया जानकारी और संसाधनों को साझा किया.
इन गठबंधनों के बावजूद, एलईआई के संचालन आंतरिक कलह और आईएस-केपी के साथ बढ़ते तनाव से बाधित थे. 2016 तक, मंगल बाग, वह नेता जिसने LeI को एक शक्तिशाली ताकत बनाने में मदद की थी, कथित तौर पर नंगरहार में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया. (ऐसी खबरें हैं कि वह 2021 में मारा गया था) उसके बाद, लश्कर-ए-इस्लाम ने पाकिस्तान भर में छिटपुट हमले करना जारी रखा है, बावजूद इसके कि उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है.
LeI के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से पाकिस्तानी सेना के बार-बार किए गए हमलों के बावजूद, यह समूह एक शक्तिशाली खतरा बना हुआ है. 2014 में, पाकिस्तानी सेना ने LeI के नेटवर्क को खत्म करने के लिए ‘खैबर 1’ और ‘जर्ब-ए-अज्ब’ जैसे ऑपरेशन शुरू किए, लेकिन समूह ने अपने कई नेताओं के मारे जाने या विस्थापित होने के बाद भी हमले जारी रखे.
LeI के आतंकवादी अंततः सीमा पार करके अफगानिस्तान के नंगरहार प्रांत में भाग गए, जहां से उन्होंने पाकिस्तानी नागरिकों और अधिकारियों को निशाना बनाने के लिए सीमा पार से हमले करना जारी रखा, खासकर खैबर जिले में.
उग्रवादी कदमों से लेकर सामाजिक बदलाव तक
अपने बाद के वर्षों में, मुनीर शाकिर ने अपने शुरुआती कट्टरपंथी जुड़ावों से खुद को दूर कर लिया. वह पश्तून अधिकारों का मुखर समर्थक बन गया, उसने पश्तूनों के साथ पाकिस्तानी राज्य के व्यवहार की आलोचना की और पश्तून तहफुज आंदोलन (PTM) का समर्थन किया. 2024 पश्तून जिरगा में उसकी भागीदारी ने आंदोलन के भीतर उसके बढ़ते प्रभाव को उजागर किया.
पेशावर में प्रेस क्लब के बाहर आयोजित 2024 की शांति रैली में, शाकिर ने भीड़ को संबोधित करते हुए क्षेत्र में चल रही हिंसा की निंदा की. उसने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में एक समूह इस्लाम के नाम पर पख्तूनों को मारता है, जबकि दूसरा कानून और व्यवस्था के नाम पर ऐसा करता है.
उसने कहा, “दोनों युद्धरत पक्षों के पास अलग-अलग औचित्य के साथ पख्तूनों को मारने का प्रमाण पत्र है. हम हथियार उठाकर पख्तूनों के हत्यारों को अपना क्षेत्र छोड़ने के लिए मजबूर कर सकते हैं, लेकिन हम शांति में विश्वास करते हैं.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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