काबुल: तपते मौसम के बीच वह मंगलवार का दिन था जब भारतीय दूतावास ने ऐलान किया कि वह अफगानिस्तान के चौथे सबसे बड़े शहर मजार-ए-शरीफ स्थित अपने परिसर को अस्थायी तौर पर बंद कर रहा है क्योंकि तालिबान विद्रोही इसके नजदीक पहुंच गए हैं और बाहर के इलाकों में भीषण लड़ाई जारी है.
तनाव, दहशत और आशंकाओं ने इस शहर की आबो-हवा को काफी बोझिल बना दिया लेकिन फिर भी कहीं-कहीं इस शहर, जो अफगानिस्तान के बल्ख प्रांत की राजधानी भी है- के लोगों ने उम्मीद नहीं छोड़ी.
ठीक चार दिन बाद शनिवार रात जब अमेरिका ने अपने राजनयिकों और अन्य लोगों को निकालने के लिए अपने सैनिकों को फिर अफगानिस्तान भेजना शुरू किया, तालिबान देश के प्रमुख वाणिज्यिक केंद्रों में से एक मजार-ए-शरीफ पर जीत का जश्न मना रहा था.
तालिबान प्रवक्ता जबीहुल्ला ने जीत का दावा करते हुए ट्वीट किया, ‘बल्ख प्रांत की राजधानी मजार शहर पर भी कब्जा कर लिया गया है… बड़ी संख्या में वाहन, हथियार और अन्य उपकरण मुजाहिद्दीन के कब्जे में आ गए हैं.’
हालांकि, शहर का अधिकांश हिस्सा जहां निराशा-हताशा के भाव से जूझ रहा है, वहीं लोगों के कुछ वर्गों- खासकर जिन्हें प्रतिष्ठित नीली मस्जिद या हजरत अली की दरगाह का खादिम माना जाता है- ने दिप्रिंट से कहा कि तालिबान के इस शहर में आने से ‘कतई नहीं डरते’ क्योंकि ‘वे हम में से ही एक हैं, दुश्मन नहीं.’
बल्ख के पूर्व गवर्नर अता मोहम्मद नूर ने इस हफ्ते के शुरू में अपने भव्य आवास पर दिप्रिंट को दिए विशेष इंटरव्यू में अमेरिका पर जल्दबाजी में काम करने और ‘गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार’ करने का आरोप लगाया था.
सैन्य वर्दी में नजर आ रहे अफगानिस्तान की जमीयत-ए-इस्लामी पार्टी के नेता नूर, उनके दोनों बेटे भी इसी पोशाक में थे, न केवल इस बात के लिए पूरी तरह आश्वस्त थे कि उन्हें और उनकी मिलिशिया को अफगान सेना के साथ मिलकर तालिबान को पीछे धकेलने में कामयाबी जरूर मिलेगी बल्कि उन्हें यह भी यकीन था कि मजार-ए-शरीफ कभी तालिबान के हाथों में नहीं आएगा.
शहर तब एकदम जीवंत नजर आ रहा था और रोजमर्रा की गतिविधियां सामान्य थीं, लोग हमेशा की तरह अपनी छोटी-मोटी दुकानें चला रहे थे, मुख्य सिटी सेंटर के पास सड़क के किनारे चाय की चुस्कियां लेते हुए लोग एक-दूसरे से बातचीत में सवाल कर रहे थे कि जब शहर ‘सुरक्षित’ है तो मीडिया यहां क्यों चक्कर काट रहा है.
शहर के लोकप्रिय बुजकशी चौक पर हर दिन की तरह ही लोग जुटे हुए थे और आपस में बातें कर रहे थे कि अगर तालिबान ने यहां कब्जा कर लिया तो उनका क्या होगा.
11 अगस्त को राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान के खिलाफ उत्तर के विद्रोहियों का समर्थन करने के उद्देश्य से मजार-ए-शरीफ का दौरा भी किया था.
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मजार-ए-शरीफ हाथ से निकला
शनिवार को जैसे ही मजार-ए-शरीफ तालिबान के हाथों में चला गया, नूर ने सोशल मीडिया पर एक के बाद एक कई पोस्ट में आरोप लगाया कि शहर एक ‘संगठित साजिश’ के कारण उसके कब्जे में आ गया है और यही साजिश काबुल को भी झेलनी पड़ेगी.
उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा कि ‘अफसोस की बात है कि एक बड़ी और संगठित साजिश के तहत सभी सरकारी सुविधाएं और सरकारी बल तालिबान को दे दिए गए.’ उन्होंने कहा कि न केवल उन्हें बल्कि 1990 के दशक में तालिबान से लड़ने वाले उत्तरी गठबंधन के प्रमुख नेता रहे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल राशिद दोस्तम को भी ‘फंसा’ दिया गया.
माना जाता है कि नूर और दोस्तम अब उज़्बेकिस्तान भाग गए हैं, जबकि उनके सहयोगी, जिनमें उनकी मिलिशिया के साथी भी शामिल है, सड़क मार्ग से उज्बेक सीमाओं की ओर बढ़ रहे हैं. हालांकि सीमा के द्वार बंद हैं.
मजार-ए-शरीफ तालिबान के हाथों में जाने के साथ ही काबुल पर आसन्न खतरा स्पष्ट हो गया था.
अफगानिस्तान की राजधानी पर तालिबान के कब्जे का खतरा गहराने के मद्देनजर ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने शनिवार को पहले से तय 3,000 सैनिकों की जगह अपने 5,000 सैनिकों को मोबलाइज करने की मंजूरी दी ताकि, ‘अभियान के दौरान हमारे सैनिकों की मदद करने वाले अफगानों और तालिबान के आगे बढ़ने से सबसे ज्यादा खतरे में होने वाले लोगों को व्यवस्थित और सुरक्षित तरीके से निकाला जा सके.’
उन्होंने एक बयान में कहा, ‘मैंने अपने सशस्त्र बलों और हमारे खुफिया अधिकारियों को ये सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि अफगानिस्तान में भविष्य के आतंकवादी खतरों से निपटने के लिए हम पर्याप्त क्षमता और सतर्कता बनाए रखेंगे.’
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