बेंगलुरु: चंद्रमा के दोनों ध्रुवों पर पहले कुछ मीटर की गहराई में उपस्थित भूमिगत बर्फ का भंडार दोनों ध्रुवों की सतह पर मौजूद बर्फ से पांच से आठ गुना ज्यादा है. यह नासा की जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल), आईआईटी कानपुर, आईआईटी धनबाद और दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सहयोग से इसरो के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी) के वैज्ञानिकों की एक टीम द्वारा किए गए अध्ययन के प्रमुख निष्कर्षों में से एक है.
टीम ने चंद्रमा पर बर्फ के वितरण का अध्ययन करने के लिए नासा के लूनर रिकॉनिसेंस ऑर्बिटर (एलआरओ) से एकत्र किए गए उपकरणों और डेटा के साथ काम किया. इससे जो निष्कर्ष निकला उसकी समीक्षा की गई और उसे इस सप्ताह जर्नल ऑफ़ फोटोग्रामेट्री एंड रिमोट सेंसिंग में प्रकाशित किए गए.
भारत की अंतरिक्ष एजेंसी का नवीनतम अध्ययन ज्यादा उम्मीदें जगाता है. कुछ महीने पहले पीयर-रिव्यू किए गए जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित इसरो के एक अन्य अध्ययन के साथ जब इसे स्टडी किया गया तो पता चला कि चंद्रयान-2 के सतह के नीचे उपस्थित ध्रुवीय बर्फ के सबूत के मुताबिक दृढ़ता से संकेत मिलता है कि चंद्रमा के ध्रुवों पर तीन मीटर गहराई तक मौजूद भूमिगत बर्फ, सतह पर मौजूद बर्फ के भंडार की तुलना में 5 से 8 गुना अधिक है.
दोनों अध्ययन एक साथ बताते हैं कि दोनों ध्रुवों पर बर्फ की मात्रा न केवल पहले की तुलना में बहुत अधिक है, बल्कि ड्रिलिंग और जल संसाधन के रूप में उपयोग करने के लिए पर्याप्त व्यवहार्य भी है.
इसरो ने एक बयान में कहा कि इस अध्ययन में चंद्रमा के ध्रुवों में वॉटर आइस मिलना चंद्रमा पर इसरो की भविष्य की खोज के लिए एक बड़ा आधार प्रदान करेगी.”
2010 में इसकी खोज के बाद से, चंद्रमा पर वॉटर आइस हाल के दिनों के साथ-साथ आने वाले दशकों में के लिए भी चंद्र मिशन के लिए आकर्षकण का कारण रही है. पिछले दशक में, वैज्ञानिक आगामी चंद्र मिशनों और भविष्य की मानव बस्तियों के लिए यथासंभव अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए, चंद्र पर उपस्थित आइस वॉटर की मात्रा और प्रसार को समझने के लिए प्रयासरत रहे.
चूंकि चंद्रमा, पृथ्वी का सबसे निकटतम खगोलीय पिंड है, इसलिए भविष्य में खगोल विज्ञान और सौर मंडल की खोज के लिए इसके एक आधार के रूप में कार्य करने की उम्मीद है. इस प्रकार, चाहे तरल हो या जमा हुआ, पानी की उपस्थिति यथास्थान मूल्यवान संसाधन के रूप में काम कर सकता है.
आइस वॉटर की खोज मूल रूप से चंद्रयान 1 मिशन के नासा और इसरो उपकरणों द्वारा स्वतंत्र रूप से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव (वैज्ञानिक भविष्यवाणियों की पुष्टि) पर की गई थी. ऑर्बिटर एक इम्पैक्टर लेकर गया था जिसे दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रमा की सतह पर फेंका गया था, जिससे मिट्टी की ऊपरी परतें हट गईं और नीचे बर्फ दिखाई देने लगी. यह टकराव भारत के पहले प्रधानमंत्री की जयंती पर हुआ और पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के सुझाव पर इस स्थल का नाम ‘जवाहर स्थल’ रखा गया. अब्दुल कलाम ने नेहरू की INCOSPAR की स्थापना का सम्मान किया, जो बाद में इसरो बन गया.
पिछले दशक के अध्ययनों और चंद्रयान सीरीज जैसे मिशनों ने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर ध्यान केंद्रित किया है और सतह पर बड़ी मात्रा में बर्फ की खोज की है. यथास्थान पानी की उपस्थिति से एक बड़ा लाभ है क्योंकि यह उपयोग के लिए स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है, जिससे पृथ्वी से प्रक्षेपण की लागत कम हो जाती है.
बर्फ का अध्ययन करने के लिए भविष्य के कई मिशन यहां उतरने वाले हैं, जिनमें भारत (चंद्रयान 4), चीन (चांग’ई), रूस (लूना), यूएसए (आर्टेमिस) आदि के मिशन शामिल हैं.
पानी का उपयोग इसके अणुओं को तोड़कर और हाइड्रोजन निकालकर, या सांस लेने के लिए ऑक्सीजन निकालकर ईंधन प्रदान करने के लिए भी किया जा सकता है.
आइस वॉटर की उपलब्धता के कारण लागत में भारी गिरावट ने वाणिज्यिक, शैक्षिक और वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए चंद्रमा पर सार्वजनिक और निजी मिशनों को गति दी है, साथ ही सतह पर स्थायी मानव उपस्थिति स्थापित करना भी शुरू कर दिया है.
नवीनतम अध्ययन में आगे जो डेटा मिला है वह बताता है कि कम पता लगाए गए उत्तरी ध्रुव में दक्षिणी ध्रुव की तुलना में दोगुनी बर्फ है.
अन्य निष्कर्ष
नया अध्ययन चंद्रमा पर बर्फ का निर्माण कैसे हुआ इसके संभावित मैकेनिज़म के बारे में भी बताता है. नासा के एलआरओ पर विभिन्न रिमोट सेंसिंग उपकरणों का उपयोग करके स्थायी रूप से छाया वाले क्षेत्रों (पीएसआर) का अध्ययन करके, टीम सबसे पहले इन गड्ढों में आइस वॉटर की उपस्थिति की पुष्टि करने में सक्षम थी जो हर समय सूरज की रोशनी से अछूते रहते हैं.
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ये क्रेटर दोनों ध्रुवों पर 80° से 85° अक्षांश बैंड पर बनते हैं. वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया कि उत्तरी ध्रुव पर, अधिकांश बर्फ चंद्रमा के उस तरफ थी जो हिस्सा पृथ्वी की तरफ रहता है, जबकि दक्षिणी ध्रुव पर, अधिकांश ध्रुवीय बर्फ उस तरफ था जो पृथ्वी के विपरीत दिशा में होता है. यह एक “एंटीपोडल” वॉटर आइस वितरण है, और टीम ने पाया कि यह इस बात से मेल खाता है कि छिद्रों के पास ज्वालामुखी कैसे वितरित होता है.
इससे वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि लाखों साल पहले जब चंद्रमा विवर्तनिक रूप से सक्रिय हुआ करता था, तब ज्वालामुखियों से निकलने वाली गैस ध्रुवों पर आइस वॉटर का संभावित स्रोत हो सकती है.
इसके अतिरिक्त, वॉटर आइस भी 90°W से 90°E तक अनुदैर्ध्य समरूपता में प्रदर्शित होती है, और यह चंद्रमा पर गड्ढों के पैटर्न का संकेत दे सकती है. यह पिछले ऑब्जर्वेशन को बढ़ावा देता है जिससे निष्कर्ष निकला है कि अतीत में चंद्रमा पर छोटे टकराव 90°W क्षेत्र में सबसे अधिक बार हुए थे, और 90°E की ओर छोटे क्रेटर की आवृत्ति में गिरावट आई है.
चंद्रमा पर ऐसी छोटी चट्टानों के लगातार टकराने से हो सकता है कि सतह की सबसे बाहरी परत या क्रस्ट सक्रिय हो, जिससे पूरा मटीरियल एक साथ मिल गया हो. इसे इंपैक्ट गार्डनिंग कहते हैं. इसकी वजह से वॉटर आइस बिखरकर इधर उधर मिल गया होगा जो कि ज्वालामुखीय विस्फोट द्वारा बनी होगी.
दूसरी ओर, बड़े क्रेटर्स ने इसके विपरीत ट्रेंड को फॉलो किया होगा, जो कि 90°W से 90°E की ओर चलने पर तेजी से बढ़ने लगते हैं. जब ये क्रेटर सतह से टकराते हैं तो रिगोलिथ को अंदर धकेल देते हैं और रिगोलिथ विस्थापन नामक प्रक्रिया में चारों ओर रिगोलिथ के इजेक्टा का निर्माण भी करते हैं. यह उपसतह बर्फ को ऊपर दिखाई देने से रोकते हैं, इस प्रकार 90°W से 90°E तक जाने पर पानी के स्तर में कमी को समझा जाता है.
लेखकों ने अपने पेपर में कहा है कि प्रस्तुत निष्कर्ष भविष्य में चंद्रमा के ध्रुवों पर पानी के नमूने के लिए महत्वपूर्ण होंगे जो मानव या रोबोटिक मिशनों द्वारा आयोजित किए जाएंगे. यह प्रक्रिया मनुष्यों द्वारा वहां आधार स्थापित करने का प्रयास करने से पहले एक आवश्यक कदम के रूप में की जाएगी.
इसरो ने कहा कि जैसा कि जांच में प्रस्तुत किया गया है, चंद्रमा के ध्रुवों पर आइस वॉटर की वितरण और गहराई का सटीक ज्ञान, भविष्य के मिशन को भेजने में बड़ी भूमिका अदा कर सकता है.
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