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Thursday, 19 December, 2024
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IIT गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने फलों, सब्जियों की शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए तैयार की खाने योग्य कोटिंग

मुख्य रूप से माइक्रो-एलगी एक्सट्रेक्ट से बनी इस परत को सीधे किसी फल या सब्जी पर लेपित किया जा सकता है या इसे उनके भंडारण के लिए प्रयुक्त होने वाले पाउच के रूप में भी बदला जा सकता है.

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नई दिल्ली: भारतीय वैज्ञानिकों ने खाद्य सामग्री की बर्बादी से निपटने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में फलों और सब्जियों के लिए एक सुरक्षात्मक कोटिंग विकसित की है.

आईआईटी, गुवाहाटी की एक टीम का कहना है कि उन्होंने एक साधारण डिप-कोटिंग तकनीक के माध्यम से एक बायोडिग्रेडेबल (जैविक रूप से नष्ट हो जाने वाले) और एडिबल (खाने योग्य) परत विकसित की है, जो खराब होने वाले उत्पादों की शेल्फ लाइफ (ख़राब होने से पहले की समय सीमा) को बढ़ा देगी.

इस कोटिंग का परीक्षण आलू, टमाटर, हरी मिर्च, खासी मैंडरिन, सेब और स्ट्रॉबेरी जैसी सब्जियों पर कर लिया गया है और शोधकर्ताओं का कहना कि इस विधि को अपनाने से फसल के बाद होने वाले प्रसंस्करण में कोई खास अधिक लागत नहीं आएगी.

इस टीम का नेतृत्व आईआईटी गुवाहाटी के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग और सेंटर फॉर एक्सीलेंस इन सस्टेनेबल पॉलिमर (सीओई – सुसपोल) के प्रोफेसर विमल कटियार तथा केमिकल इंजीनियरिंग विभाग एवं सीओई – सुसपोल के प्रोफेसर वैभव वी. गौड़ ने किया था.

उनके शोध के परिणाम रॉयल सोसाइटी ऑफ केमिस्ट्री एडवांस में प्रकाशित किए गए हैं जहां लिखा गया लेख टमाटर पर इस तरह की कोटिंग के प्रभाव को दिखाता है. साथ ही, अमेरिकन केमिकल सोसाइटी’ज फ़ूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी की पत्रिका में भी छपा है जहां लेखक ने इस कोटिंग की सामान्य प्रभावकारिता के बारे में बात की है

प्रोफेसर कटियार ने एक मीडिया विज्ञप्ति में कहा: ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार, हर साल 4.6 से 15.9% फल और सब्जियां फसल की कटाई के बाद बर्बाद हो जाती हैं और आंशिक रूप से यह खराब भंडारण की स्थिति के कारण होता है. वास्तव में, आलू, प्याज और टमाटर जैसे कुछ उत्पादों में फसल के बाद का नुकसान 19% तक हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप इन अत्यधिक खपत वाली वस्तुओं की कीमतें अधिक हो जाती हैं.‘

शोधकर्ताओं का कहना है की यह कोटिंग मुख्य रूप से सूक्ष्म शैवाल के अर्क (माइक्रो-एलगी एक्सट्रेक्ट) से बनाई गई है और इसे सीधे किसी फल या सब्जी पर लेपित किया जा सकता है या इसे उनके भंडारण के लिए प्रयुक्त होने वाले पाउच के रूप में भी बदला जा सकता है.

इस तरह की कवरिंग को बनाने के लिए, अपशिष्ट डी-ऑयल ग्रीन शैवाल बायोमास या डुनालिएला टेरटियोलेक्टा से प्राप्त एक कच्चे शैवाल का इथेनॉलिक अर्क प्राप्त किया गया था. इस द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टीईआरआई), भारत से प्राप्त किया गया था.

ये शैवाल आमतौर पर खारे वातावरण में पाए जाते हैं और इन्हें आसानी से उगाया भी जा सकता है. इन्हें अपने एंटीऑक्सीडेंट गुणों के लिए जाना जाता है और इसी वजह से इनका उपयोग एडिबल फिल्म को बनाने के लिए किया गया.

शोधकर्ताओं ने कहा कि डनलीएला टेरटियोलेक्टा हरी शैवाल बायोमास अर्क के साथ एक सक्रिय खाने योग्य फ़ूड-पैकेजिंग सामग्री के विकास से जुड़ा यह पहला अध्ययन है.

उन्होंने इस अर्क को चिटोसन, एक कार्बोहाइड्रेट जो कि चिटिन के डीसेटाइलेशन से प्राप्त होता है तथा कड़े खोलवाले जलजीवों (क्रस्टेशियंस) और कीड़ों (इंसेक्ट्स) में पाया जाता है, के साथ मिलाया. चिटोसन में एंटिमाइक्रोबियल और कवकरोधी (एंटीफंगल) गुण होते हैं. इसके पहले, खराब अवरोध और यांत्रिक गुणों के कारण फ़ूड पैकेजिंग में चिटोसन का सीमित तौर पर ही उपयोग होता था.

इन कोटिंग्स की जैव सुरक्षा नॉन-टॉक्सिक साबित हुई है और इसलिए यह फ़ूड पैकेजिंग के लिए सर्वथा उपयुक्त है. प्रोफेसर कटियार ने अपने प्रेस नोट में कहा है, ‘इस कोटिंग का बड़े पैमाने पर उत्पादित किया जा सकता है और इसे सुरक्षित रूप से खाया जा सकता है क्योंकि उनमें कोई प्रतिकूल गुण नहीं होते हैं. वे मूल खाद्य पदार्थों की बनावट, रंगत, रूप, स्वाद, पोषण मूल्य आदि को बरक़रार रखते हैं, और उनके शेल्फ लाइफ को कई हफ्तों या फिर कई महीनों तक बढ़ा देते हैं.‘

प्रयोगों के दौरान, एडिबल फिल्मों ने यह प्रदर्शित किया कि उनमें एंटीऑक्सीडेंट गुण (ऑक्सीजन जैसी गैसों के साथ होने वाली प्रतिक्रिया को रोकना) होते हैं जो स्वाभाविक रूप से होने वाली कोशिका क्षति से लंबे समय तक फल की रक्षा करते थे. इसके अलावा, इन फिल्मों ने यांत्रिक शक्ति, तथा प्रकाश, 40 डिग्री सेंटीग्रेड तक की गर्मी और तापमान, जल-वाष्प अवरोध और यूवी-विज़ प्रकाश-अवरोधक गुणों के प्रति स्थिरता का भी प्रदर्शन किया.

इसकी जैव सुरक्षा का परीक्षण बीएचके -21 कोशिकाओं के प्रयोग करके किया गया था. यह विषाक्तता और जैव-अनुकूलता के परीक्षण के लिए एक मानक प्रोटोकॉल है जिसके दौरान कोशिकाओं को बेबी हैम्स्टर (चूहों जैसा एक जानवर) के गुर्दे से प्राप्त किया जाता है और फिर इनका उपयोग विभिन्न सामग्रियों की विषाक्तता का विश्लेषण करने के लिए किया जाता है. परीक्षणों से पता चला कि कोटिंग्स पूरी तरह से गैर विषाक्त हैं

प्रोफेसर कटियार ने दिप्रिंट को बताया, ‘इन उत्पादों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने के लिए जांचकर्ताओं ने किसानों के साथ इसका फील्ड ट्रायल भी शुरू कर दिया है.’

उन्होंने आगे कहा: ‘आईआईटी गुवाहाटी स्थित एक स्टार्ट-अप, ‘बायोजगत प्राइवेट लिमिटेड’ विकसित, किये गए इस फॉर्मुलेशन के व्यावसायीकरण पर भी काम कर रहा है. हालांकि, अभी भी अन्य कंपनियों द्वारा भी इसका और अधिक लाभ उठाने की आवश्यकता है.’

पिछले छह वर्षों से इस परियोजना पर काम कर रहे प्रोफेसर कटियार ने यह भी कहा: ‘इसके घटक वे बायोपॉलिमर हैं जिनका उपयोग हम अपने दैनिक जीवन में रोजाना करते हैं. यह कोटिंग सस्ती भी है क्योंकि हम इसमें बहुत कम मात्रा में पॉलिमर का उपयोग करते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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