बेंगलुरू: यूक्रेन में चल रहे युद्ध की पृष्ठभूमि में भारत रूस के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने की कोशिश कर रहा है, और ऐसे में दोनों देशों के सालों पुराने रक्षा और वैज्ञानिक संबंध उभर कर सामने आए हैं.
भारत और रूस – और इसके पूर्ववर्ती सोवियत संघ – ने लंबे समय से पांच मुख्य पहलुओं पर केंद्रित आपसी रणनीतिक संबंध कायम रखे हैं. ये हैं : राजनीतिक सम्बन्ध, आतंकवाद, रक्षा, नागरिक परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष.
वर्तमान में कार्यरत अधिकांश भारतीय रक्षा उपकरण सोवियत संघ या रूस में निर्मित हैं, और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहयोग के दायरे में स्पेस फिजिक्स (अंतरिक्ष भौतिकी) और एयरोस्पेस (अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी) भी शामिल हैं.
पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव और उसके प्रति अमेरिका के समर्थन – आइजनहावर प्रशासन द्वारा 1950 के दशक में इस्लामाबाद को सैन्य सहायता प्रदान करने के फैसले से लेकर, 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान के साथ राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की निकटता तक – के बीच साल 1971 में हस्ताक्षरित भारत-सोवियत शांति, मित्रता और सहयोग संधि (इंडो-सोवियत ट्रीटी ऑफ़ पीस, फ्रेंडशिप, एंड कोऑपरेशन) के बाद दोनों देशों के मध्य यह साझेदारी विकसित हुई.
हालांकि, पिछले कुछ दशकों में रूसी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर भारत की निर्भरता कम हुई है, लेकिन फिर भी दोनों देश भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी, इसरो, और इसके रूसी समकक्ष, रोस्कोस्मोस, के माध्यम से आपस में सहयोग करना जारी रखे हुए हैं.
इसरो द्वारा प्रस्तावित गगनयान मिशन के लिए इसके चार अंतरिक्ष यात्री उम्मीदवारों के पहले समूह ने पिछले साल मार्च में रूस में अंतरिक्ष यान में उड़ान हेतु अपना प्रशिक्षण पूरा किया. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यूक्रेन में चल रहा युद्ध इसरो की इन योजनाओं को कैसे प्रभावित करेगा.
ऐतिहासिक रहा है अंतरिक्ष सहयोग
ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पोलर सैटलाइट लांच व्हीकल -पीएसएलवी) के विकास से पहले, भारत अपने पहले दो उपग्रहों – आर्यभट्ट और भास्कर – को क्रमशः 1975 में कोस्मोस रॉकेट द्वारा बैकोनूर कोस्मोड्रोम से और फिर 1979 में इंटरकॉसमॉस व्हीकल से प्रक्षेपित (लॉन्च) करने के लिए तत्कालीन सोवियत संघ के साथ अपने संबंधों पर निर्भर रहा था.
इसके बाद, भास्कर-2 ने भी 1981 में एक इंटरकॉसमॉस वाहन पर ही उड़ान भरी. फिर 1988 में, भारत का पहला अत्याधुनिक, घरेलू रूप से निर्मित रिमोट सेंसिंग उपग्रह, आईआरएस-1 ए, सोवियत वोस्तोक वाहन द्वारा लॉन्च किया गया था. उसके बाद 1991 में आईआरएस-1 बी भी इसी रॉकेट द्वारा अंतरिक्ष में ले जाया गया था.
सोवियत संघ के पतन के बाद भी भारत ने अपने अंतरिक्ष मिशन के लिए रूस के साथ सहयोग करना जारी रखा. इसी क्रम में भारत ने साल 1995 में रूसी मोलनिया-एम रॉकेट पर आईआरएस-1 सी को लॉन्च किया, जो रूसी वाहन पर लॉन्च किया जाने वाला अंतिम उपग्रह था. पीएसएलवी ने इस समय सफलता के साथ काम करना शुरू कर दिया था और इसने कम वजन वाले उपग्रहों के प्रक्षेपण (नॉन-हैवी लिफ्ट लांच) के मामले में रूस पर निर्भरता को कम कर दिया था.
फिर रूस ने ग्लावकोस्मोस, जो मूल रूप से इसकी सरकारी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कोस्मोस की सहायक कंपनी है, के माध्यम से इसरो के सबसे भारी प्रक्षेपण वाहन, जीएसएलवी (जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) के विकास के लिए प्रौद्योगिकी सहायता प्रदान करने हेतु साल 1991 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. हालांकि, अमेरिका ने इसके लिए साल 1992 में भारत और रूस पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाए थे कि इस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने एक बहुपक्षीय संधि का उल्लंघन किया है. रूस तब इस परियोजना से पीछे हट गया, जिससे जीएसएलवी के अभी भी चल रहे विकास क्रम में काफी देरी हुई है.
दोनों देशों ने अंतरग्रहीय मिशनों पर भी आपस में सहयोग किया है.
चंद्रयान -2 को मूल रूप से रोस्कोस्मोस के साथ एक संयुक्त परियोजना के रूप में देखा गया था, जिसमें रूस इस मिशन के लिए लैंडर विकसित करने का काम कर रहा था. हालांकि, 2011-2012 में अपने फोबोस-ग्रंट मंगल मिशन की विफलता के बाद जब रूस ने कहा कि वह तय समय पर इस लैंडर की आपूर्ति करने में असमर्थ होगा, तो इसरो ने स्वतंत्र रूप से अपने स्वयं के लैंडर, विक्रम, को विकसित किया.
उपग्रह सेवाओं पर चल रहे सहयोग में भारत में बनाये जाने वाले वे ग्राउंड स्टेशन भी शामिल हैं जिन्हें रूस अमेरिकी जीपीएस प्रणाली के समानान्तर तैयार किये जा रहे अपने संस्करण, ग्लोनास उपग्रह समूह, का समर्थन करने के लिए स्थापित करने की प्रक्रिया में है. भारत भी, अपने नौवहन उपग्रह समर्थन कार्यक्रम, नाविक (एनएवीआईसी), के लिए रूस में ग्राउंड स्टेशन स्थापित करने की योजना बना रहा है.
भारत-रूस क बीच यूथसैट नामक एक संयुक्त वायुमंडलीय उपग्रह कार्यक्रम भी चल रहा है, जो दोनों देशों के विश्वविद्यालय स्तर के छात्रों के लिए एक वैज्ञानिक-शैक्षिक कार्यक्रम है. इस श्रेणी का पहला, यूथसैट, और दूसरा, रिसोर्ससैट -2, उपग्रह साल 2011 में श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी द्वारा लॉन्च किया गया था. इन उपग्रहों में रूसी और भारतीय दोनों पेलोड शामिल थे.
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गगनयान
भारत और रूस, और पूर्व में सोवियत संघ भी, मानवीय अंतरिक्ष उड़ान में भी सहयोगी रहे हैं.
अंतरिक्ष के लिए उड़ान भरने वाले पहले भारतीय राकेश शर्मा ने 1984 में सोयुज टी-11 रॉकेट लांचर पर रूसी चालक दल के साथ ऐसा किया था. दोनों देश अब भारत के प्रस्तावित मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन गगनयान पर सहयोग कर रहे हैं.
इसरो के मानव अंतरिक्ष उड़ान केंद्र (ह्यूमन स्पेस फ्लाइट सेंटर) की स्थापना के बाद, यह घोषणा की गई थी कि जुलाई 2019 में ग्लाव्कॉस्मॉस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं, जो उन संभावित 12 में से चार भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों के चयन, समर्थन और प्रशिक्षण में सहयोग करेगा जिन्होंने बेंगलुरु में प्रारंभिक परीक्षण और मूल्यांकन पूरा कर लिया था.
इस चार उम्मीदवारों ने फरवरी 2020 के बाद से मॉस्को स्थित गगारिन रिसर्च एंड टेस्ट कॉस्मोनॉट ट्रेनिंग सेंटर (जीसीटीसी) में अपना साल भर का प्रशिक्षण पूरा किया. कोविड महामारी के दौरान भी उनका प्रशिक्षण जारी रहा और यह 2021 में समाप्त हुआ. इसके बाद, वे स्पेससूट प्रोटोटाइप परीक्षण के लिए रूस लौट गए.
फिर साल 2019 में, इसरो ने ‘अपने कार्यक्रम संबंधी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए रूस और पड़ोसी देशों के साथ विविध मामलों में समय पर हस्तक्षेप के लिए प्रभावी तकनीकी समन्वय को सक्षम करने’ हेतु मास्को में एक तकनीकी संपर्क इकाई (टेक्नीकल लिएशन यूनिट – आईटीएलयू) की भी घोषणा की. कथित तौर पर इसरो की ऐसी ही आईटीएलयू वाशिंगटन डीसी और पेरिस में पहले से मौजूद हैं.
रक्षा संबंध
ऐसा अनुमान है कि भारत का लगभग 70 प्रतिशत सैन्य हार्डवेयर (साजो-सामान) रूसी मूल का है. इनमें पनडुब्बियां, नौसेना के कई युद्धपोत और नवीनतम वायु रक्षा प्रणालियां शामिल हैं. वर्तमान में सेवारत भारत का एकमात्र विमानवाहक पोत, आईएनएस विक्रमादित्य, भी रूसी मूल का है.
रूस भारत के स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियों (एसएसबीएन) के अपने बेड़े में शामिल करने के लिए उसके नौसैनिकों को प्रशिक्षित करने हेतु भारत वर्षों से रूसी परमाणु-संचालित आक्रामक पनडुब्बियों (अटैक सबमरीन या एसएनएन) की चक्रा सीरीज का संचालन कर रहा है. भारत की पहली स्वदेश निर्मित एसएसबीएन, आईएनएस अरिहंत, ने 2016 में सेवा में प्रवेश किया था.
ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल, दुनिया की सबसे तेज क्रूज मिसाइल मानी जाती है. इसकी वर्तमान मारक सीमा 290 किमी है और इसे 350-400 किमी तक बढ़ाने के लिए परीक्षण चल रहे हैं. यह भी रूस के साथ हमारा एक संयुक्त उद्यम वाला उत्पाद है.
भारत रूस निर्मित अत्याधुनिक एस-400 ट्रिउम्फ वायु रक्षा प्रणाली को शामिल करने की प्रक्रिया में है, जिससे पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ रही है.
भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमानों (फाइटर जेट्स) के 30 स्क्वाड्रन में से अधिकांश रूसी हैं, जिनमें एसयू -30 एमकेआई, मिग -21 बाइसन और मिग -29 शामिल हैं.
भारतीय रक्षा जगत के संबंध ताजिकिस्तान के साथ भी हैं, जो भौगोलिक रूप से रूस के करीब स्थित है, और रूसी सहयोग के साथ काम कर रहा है.
भारत का पहला और एकमात्र विदेशी सैन्य अड्डा – ताजिकिस्तान स्थित गिसार सैन्य हवाई अड्डा (जीएमए) – 1990 के दशक के अंत में रूसी सहायता से हासिल किया गया था और इसे 2000 के दशक की शुरुआत में विकसित किया गया था. जीएमए, जिसे उस अयनी गांव के नाम से जाना जाता है जहां वह स्थित है, ताजिक राजधानी दुशांबे के पश्चिम में है.
जीएमए को अक्सर गलती से फारखोर बेस समझ लिया जाता है. दक्षिणी ताजिकिस्तान में बसा फरखोर उत्तरी अफगानिस्तान के साथ सीमा के पास एक ऐसा शहर है जहां भारत ने 1990 के दशक में एक अस्पताल चलाया था. यही वह जगह है जहां शक्तिशाली अफगान ताजिक गुरिल्ला नेता और उत्तरी गठबंधन (नॉर्थेर्न अलायन्स) द्वारा सोवियत संघ और बाद में तालिबान से लड़ते समय इसके कमांडर रहे दिवंगत अहमद शाह मसूद को 2001 में हुए एक आत्मघाती हमलावर के हमले के बाद इलाज के लिए ले जाया गया था. बाद में, उन्होंने इस हमले में लगी चोटों के कारण दम तोड़ दिया था .
सूत्रों ने बताया कि 9/11 हमले के बाद इस अस्पताल ने काम करना बंद कर दिया था. फ़िलहाल, भारत दक्षिणी ताजिकिस्तान के कुरगन तेप्पा में ताजिक सैन्य कर्मियों के लिए 50 बिस्तरों वाला एक अस्पताल चलाता है.
परमाणु ऊर्जा
जब भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) को भेदभावपूर्ण बताते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार करने के लिए पश्चिमी देशों ने उस पर लगाए प्रतिबंधों के साथ महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों से वंचित कर दिया था, तब सोवियत संघ ने ही भारत को परमाणु रिएक्टरों और इसके ईंधन की आपूर्ति की थी.
साल 1988 में, सोवियत संघ कथित तौर पर बिना किसी आधिकारिक समझौते के, तमिलनाडु के कुडनकुलम में दो परमाणु रिएक्टर बनाने के लिए सहमत हो गया था. इस समझौते को 1992 में आधिकारिक बना दिया गया था. साल 2000 में, रूस और भारत ने परमाणु ऊर्जा के ‘शांतिपूर्ण उपयोग’ पर सहयोग करने के लिए, और रूस द्वारा महाराष्ट्र के तारापुर रिएक्टर हेतु लो-एनरिच्ड (लघु-संवर्धित) यूरेनियम ईंधन की भारत को आपूर्ति करने के लिए एक और गुप्त समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए.
फिर साल 2009 में, दोनों देशों ने एक बड़ा परमाणु समझौता किया, जिसके तहत रूस तमिलनाडु के कुडनकुलम में चार परमाणु रिएक्टर तथा पश्चिम बंगाल में एक और रिएक्टर स्थापित करने के लिए सहमत हुआ. कुडनकुलम की दो इकाइयां वर्तमान में काम कर रही हैं, तथा तीसरी एवं चौथी इकाइयां स्थापना (इंस्टलेशन) के लिए तैयार की जा रही हैं. साथ ही, रूस पांचवीं और छठी इकाइयों के लिए चल रहे निर्माण कार्य में भी सहायता प्रदान कर रहा है.
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