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गुरूवार, 8 मई, 2025
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फिल्म स्टडीज़ के लिए बंदिशें मत लगाइए- SC ने FTII से कहा कलर-ब्लाइंड छात्रों को सभी कोर्सेज़ में दाखिला मिले

SC के निर्देश 35 वर्षीय आशुतोष कुमार की याचिका पर जारी हुए, जिसे पांच साल पहले योग्यता के आधार पर फिल्म संपादन कोर्स में दाख़िला लेने के बाद भी, FTII ने वापस लौटा दिया था.

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नई दिल्ली: ‘कला रूढ़ि-विरोधी है’, मंगलवार को ये कहना था सुप्रीम कोर्ट का, जब उसने देश के एक प्रतिष्ठित फिल्म और ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट- भारतीय फिल्म और टेलिविज़न संस्थान (एफटीआईआई) को निर्देश दिया कि वो अपने सभी कोर्सेज़ में रंगहीनता की समस्या वाले व्यक्तियों को दाख़िला दे.

न्यायमूर्ति एसके कॉल और एमएम सुंद्रेश की खण्डपीठ ने कहा कि पुणे-स्थित संस्थान को ऐसे उम्मीदवारों को दाख़िला देने के लिए ‘उपयुक्त गुंजाइश’ पैदा करनी चाहिए.

ये आदेश कोर्ट द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट पर आधारित है, जिसने कलर-ब्लाइंड छात्रों को लेकर एफटीआईआई के प्रवेश मानदंडों की समीक्षा की थी और उन कोर्सेज़ के पाठ्यक्रमों की भी जांच की, जिनमें ऐसे व्यक्तियों को दाख़िले से बाहर रखा जाता था.

कोर्ट ने आदेश दिया कि एक्सपर्ट पैनल की रिपोर्ट को ‘एफटीआईआई को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करना है.’ कोर्ट ने कहा कि एक ‘प्रमुख संस्थान’ के नाते, एफटीआईआई से अपेक्षा की जाती है कि वो एक ‘उदार सोच प्रक्रिया’ को प्रोत्साहित करेगा और ‘फिल्मों से संबंधित कोर्सेज़ को किसी एक दायरे में क़ैद नही करेगा.’

एससी निर्देश एक 30 वर्षीय व्यक्ति आशुतोष कुमार की ओर से दायर याचिका पर जारी हुए, जिसे पांच साल पहले फिल्म संपादन कोर्स में योग्यता के आधार पर दाख़िला लेने के बाद भी, एफटीआईआई ने वापस लौटा दिया था. कुमार को जब बॉम्बे हाईकोर्ट से कोई राहत नहीं मिली, तो 2017 में उसने शीर्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाया.

आदेश से दूसरे फिल्म ट्रेनिंग संस्थानों में दाख़िलों पर भी असर पड़ेगा, चूंकि एससी ने आगे कहा है, ‘इसी तरह के पाठ्यक्रम से निर्देशित दूसरे स्कूलों को भी इस विषय पर हुई चर्चा को मानना होगा, जो कि कमेटी के निष्कर्ष हैं.’

‘बाहर कीजिए या वैकल्पिक बनाइए’

अपनी याचिका में कुमार ने दावा किया कि जिस कमेटी ने उसकी मेडिकल जांच की, उसमें कोई नेत्र विशेषज्ञ नहीं था जो उसकी रंगहीनता की नेचर और सीमा का पता लगा पाता. उसने कहा कि जिस कलर-ग्रेडिंग मॉड्यूल की वजह से उसे दाख़िले के अयोग्य पाया गया, वो तीन साल के फिल्म संपादन कोर्स के लिए बिल्कुल बेमतलब था.

कुमार की दलील का समर्थन करते हुए, शीर्ष अदालत द्वारा नियुक्त पैनल ने सिफारिश की, कि कलर-ग्रेडिंग मॉड्यूल को या तो कोर्स से हटा दिया जाए या वैकल्पिक बना दिया जाए. उसका कहना था कि फिल्म संपादन भूमिका में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है.

दिसंबर 2021 में गठित इस एक्सपर्ट पैनल के सदस्य थे- नेत्र रोग विशेषज्ञ जिग्नेश तासवाला, फिल्म निर्देशक रवि के चंद्रन, फिल्म संपादक अक्किनेनी श्रीकर प्रसाद, कलरिस्ट स्वपनिल पटोले, स्क्रिप्ट सुपरवाइज़र शुभा रामचंद्रन, एफटीआईआई के संपादन विभाग के हेड के राजशेखरन, और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट शोएब आलम.

पैनल ने ये भी पाया कि कलर-ब्लाइंड छात्र चार और कोर्स के लिए अयोग्य थे- सिनेमैटोग्राफी, इलेक्ट्रॉनिक सिनेमैटोग्राफी, कला निर्देशन और प्रोडक्शन डिज़ाइन व एडिटिंग.

पैनल में एक सदस्य का नज़रिया बाक़ी से अलग था- और वो थे राजशेखरन. उनकी राय में पाठ्यक्रम में कोई भी संशोधन, उन विशेषज्ञों के ज्ञान को चुनौती देने का प्रयास होगा, जिन्होंने पाठ्यक्रम डिज़ाइन किया था.

उनकी राय को ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने बहुमत की राय का समर्थन किया. उसने कहा, ‘हम देख सकते हैं कि तिल का ताड़ बनाने की कोशिश की जा रही है, चूंकि पूरे कोर्स में वो विशेष मॉड्यूल सिर्फ 20 मिनट का है. कमेटी की भी राय थी कि उसे वैकल्पिक बनाया जा सकता है’.

उसने आगे कहा, ‘(पैनल के) निष्कर्ष से एक सिफारिश स्पष्ट है कि एफटीआईआई के सभी कोर्सेज़ में सभी व्यक्तियों को दाख़िला दिया जाएगा. किसी भी बाधा को पार किया जा सकता है. कलर ब्लाइंड उम्मीदवारों के लिए एफटीआईआई को अपने पाठ्यक्रम में गुंजाइश बनानी चाहिए, और कलर-ग्रेडिंग मॉड्यूल को इसके मौजूदा फिल्म-संपादन पाठ्यक्रम से या तो बाहर कर देना चाहिए, या फिर वैकल्पिक बना देना चाहिए.’

बेंच ने एफटीआईआई के विवेक पर छोड़ दिया, कि या तो मॉड्यूल को हटा दे या फिर उसे वैकल्पिक बना दे. उसने कहा कि कोर्ट संस्थान की स्वायत्तता में दख़लअंदाज़ी नहीं करना चाहता.

बेंच ने कहा कि रंगहीनता अंधेपन की कोई क़िस्म नहीं है, बल्कि एक कमी है, एक चिकित्सकीय समस्या जिसमें रंगों के बीच पहचान करना मुश्किल हो जाता है.

ये भी देखा गया कि पैनल के सुझाव उन प्रथाओं के अनुरूप थे, जिसका विदेशी संस्थानों में पालन किया जाता है. कमीशन ने 10 शीर्ष फिल्म और ट्रेनिंग संस्थानों को लिखा था, लेकिन सिर्फ दो से जवाब हासिल हुआ था.


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‘दाख़िला रोकने से रचनात्मक प्रतिभा ख़त्म हो सकती है’

अपनी रिपोर्ट में एक्सपर्ट कमेटी ने विभिन्न पहलुओं पर ग़ौर किया, जिनमें वो मॉड्यूल्स भी शामिल थे जो कलर-ब्लाइंड उम्मीदवारों के दाख़िले में बाधा बन सकते हैं. ऐसे मॉड्यूल्स के महत्व और पेशेवर उपयोग तथा प्रोफेशनल की पेशेवर भूमिका पर भी विचार किया गया.

इन पहलुओं की जांच करने के बाद कंपनी की राय थी, कि एक पेशेवर फिल्म संपादक की भूमिका में कलर-ग्रेडिंग मॉड्यूल की कोई प्रासंगिकता नहीं थी. उसने कहा, ‘कलरिस्ट, जो एक विशिष्ट प्रोफेशनल होता है, रंगों में सुधार और शुद्धि का काम करता है’.

कमेटी के विचार में, कलर ब्लाइंड उम्मीदवारों को फिल्मों से जुड़े कोर्सेज़ में दाख़िला दिया जाना चाहिए, क्योंकि इस माध्यम की कृतियां कला का एक सहयोगी रूप होती हैं. कलर ब्लाइंड उम्मीदवारों के दाख़िले पर प्रतिबंध लगाने से ‘रचनात्मक प्रतिभा की बलि चढ़ सकती है, और कला का विकास व्यर्थ जा सकता है’, चूंकि समावेशिता कला के इस रूप को समृद्ध करती है. पैनल ने कहा कि ‘शैक्षिक और पेशेवर जीवन में किसी भी रुकावट को, एक सहायक की मदद से पार किया जा सकता है’.

राजशेखरन की असहमति पर कोर्ट ने कहा कि उनकी झिझक से लगता है, कि वो ‘संस्थान में किसी को परेशान करना नहीं चाहते’. कोर्ट ने कहा, ‘इसलिए, वो जो डिज़ाइन करते हैं वो एक यथास्थिति है: एफटीआईआई सब कुछ ज़्यादा जानता है: उसके एक्सपर्ट्स सब जानते हैं, हमें मत छेड़िए, इसके बावजूद कि इस कोर्ट के गठित किए हुए एक्सपर्ट पैनल की क्या राय है, जो अपने फैसले में एकमत है’.

बेंच कुमार के इस अनुरोध पर भी ग़ौर करने पर सहमत हो गई, कि एफटीआईआई को उसे अगले शैक्षणिक सत्र में दाख़िला देने का निर्देश दिया जाए. इससे पहले उसके वकील सीनियर एडवोकेट कोलिन गोंसाल्वेज़ ने एससी के एक पिछले आदेश की ओर ध्यान आकृष्ट किया था, जिसमें कोर्ट ने संविधान के अंतर्गत अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए, एक कलर ब्लाइंड छात्र को एमबीबीएस में दाख़िला दिलाया था.

ये देखते हुए कि संस्थान ने कुमार की याचिका का विरोध किया था, कोर्ट ने उसे लिखित में अपना जवाब दाख़िल करने के लिए, अगले दो सप्ताह का समय दिया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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