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Wednesday, 1 May, 2024
होममत-विमत‘मटन, मुगल, मुस्लिम’, मोदी के लिए विपक्ष गैर-हिंदू और भारत विरोधी क्यों हैं

‘मटन, मुगल, मुस्लिम’, मोदी के लिए विपक्ष गैर-हिंदू और भारत विरोधी क्यों हैं

मोदी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को मांस-मछली खाने वाले आधे-मुसलमानों की तरह पेश करना पसंद करते हैं जो ‘मुस्लिम’ घोषणा पत्र जारी करते हैं, मुसलमानों को खुश करते हैं और उनसे भारत का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद नहीं की जा सकती.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में विपक्ष पर उंगली उठाते हुए कहा – ‘सावन के महीने में मटन बनाने का मौज ले रहे हैं’. मोदी ने विपक्ष पर “मुगल मानसिकता” रखने का भी आरोप लगाया और जब कांग्रेस ने 6 अप्रैल को अपना घोषणापत्र जारी किया, तो उन्होंने घोषणा की कि उस पर “मुस्लिम लीग की मुहर” है. 20वीं सदी की शुरुआत में मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा स्थापित मुस्लिम लीग को 1947 में भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार माना जाता है.

इस तरह मोदी के विश्वदृष्टिकोण में मटन खाना एक तरह से भारतीयों के हितों के खिलाफ है. मछली खाना वैसे ही राष्ट्र-विरोधी है, जैसा कि राष्ट्रीय जनता दल नेता तेजस्वी यादव के मछली खाने के वीडियो पर पीएम की प्रतिक्रिया से ज़ाहिर था. मटन और मछली खाना न केवल हिंदू विरोधी है, बल्कि खुद कांग्रेस पार्टी, किसी कारण से, मुस्लिम लीग के समान है.

‘मुस्लिम प्रतीक’ नफरती वस्तुएं

यहां संदेश ज़ाहिर तौर पर बेतुका है, लेकिन असल में चालाकी से यह सांप्रदायिक है. चुनाव का समय आता है और हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण मोदी के लिए ज़रूरी हो जाता है, एक ऐसे नेता जिनका करियर धार्मिक नाम-पुकार और ध्रुवीकरण पर बना है. विपक्ष पर नवरात्रि के दौरान मांसाहारी खाने का आरोप लगाना और कांग्रेस के घोषणापत्र को मुस्लिम लीग के घोषणापत्र के समान कहना विपक्ष को “अन्य” करने के लिए बनाया गया है और इसे किसी तरह ‘मुस्लिम’ के रूप में कलंकित करते हुए इसे गैर-हिंदू, भारत-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी करार दिया गया है.

यहां धारणा यह है कि हिंदू समाज या “बहुसंख्यक” एक समरूप समूह है जो नवरात्रि के दौरान “शुद्ध शाकाहारी” रहता है, जबकि मोदी के राजनीतिक प्रतिस्पर्धी मांस और मछली खाने वाले अर्ध-मुस्लिम हैं जो ‘मुस्लिम’ घोषणापत्र पेश करते हैं, मुसलमानों को खुश करते हैं. एक मुगल (मुस्लिम) मानसिकता से इसलिए भारत का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुद्दा यह है कि मोदी एक सच्चे भारतीय और सच्चे हिंदू हैं क्योंकि वे नवरात्रि के दौरान शाकाहारी भोजन खाते हैं. अन्य भारतीय विरोधी मांसाहारियों का एक समूह है जो भारत के दुश्मन हैं.

यह कथा फिर से भाजपा-आरएसएस की उन्मादी और दुश्मनों की खोज को उजागर करती है. भाजपा-आरएसएस राजनीतिक परियोजना को हर दिन एक दुश्मन की ज़रूरत होती है. किसी दिन ‘अर्बन नक्सली’ दुश्मन होते हैं, अगले दिन ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ दुश्मन होते हैं, तीसरे दिन ‘खान मार्केट गैंग’ दुश्मन होते हैं (कोई बात नहीं अगर बीजेपी नेता खुद दिल्ली के खान मार्केट में नियमित रूप से देखे जाते हैं) चौथे दिन ‘खालिस्तानी’ दुश्मन हैं, और पांचवें दिन ‘लिबटार्ड सिकुलरिस्ट’ दुश्मन हैं. अब मांसाहारी भी हैं ‘दुश्मन’ हैं.

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मुसलमान सच्चे दुश्मन हैं और मुगल, बिरयानी और मुस्लिम लीग जैसे सभी “मुस्लिम” प्रतीक नफरती वस्तुएं हैं जिन्हें हिंदुत्व झुंड को सक्रिय रखने के लिए लगातार अपमानित किया जाना ज़रूरी है.

कांग्रेस के घोषणापत्र में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस्लामी मातृभूमि के लिए प्रचार करने की मुस्लिम लीग की राजनीति से दूर-दूर तक मेल खाता हो. इसका तात्पर्य मुस्लिम अलगाव से बिल्कुल भी नहीं है. एकमात्र मुस्लिम संदर्भ मौलाना आज़ाद स्कॉलरशिप का है और यही इसके बारे में है.


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संकीर्ण सोच वाली खाद्य संस्कृति क्यों थोपी जाए?

यह सुझाव कि हिंदुओं को शाकाहारी माना जाता है या कि केवल वे जो नवरात्रि के दौरान शाकाहारी भोजन खाते हैं, “मुगल मानसिकता” के बिना सच्चे हिंदू हैं, हास्यास्पद, धूर्त, चालाकीपूर्ण और निश्चित रूप से संवैधानिक नहीं है.

सबसे पहले, भारत के बड़े हिस्से, जैसे कि पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत के कुछ हिस्से, उत्तर भारत की तरह नवरात्रि अनुष्ठानों का पालन नहीं करते हैं. उदाहरण के लिए बंगाल में भक्ति अवसरों के साथ अक्सर मांसाहारी दावतें होती हैं जैसे कि सरस्वती पूजा के दौरान जोरा इलिश (हिल्सा मछली का एक जोड़ा) और विजयादशमी के दौरान मटन करी. दूसरा, 2006 में हिंदू-सीएनएन-आईबीएन के लिए सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) द्वारा भोजन की आदतों पर किए गए राष्ट्र सर्वे में पाया गया कि केवल 31 प्रतिशत भारतीय शाकाहारी हैं. 2021 इंडिया टुडे के सर्वे से पता चला कि 70 प्रतिशत से अधिक भारतीय मांसाहारी भोजन करते हैं. भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मांसाहारी थे और जब मैंने उन पर अपनी किताब के दौरान शोध किया, तो मुझे इस बात का कोई सबूत नहीं मिला कि उन्होंने कभी नवरात्रि या शाकाहार का पालन किया हो. तो एक अखिल भारतीय संकीर्ण सोच वाली “खाद्य संस्कृति” को पूरे भारत में सांस्कृतिक मानक के रूप में चुपचाप क्यों थोपा जा रहा है?

जवाब सीधा है, क्योंकि यह चुनाव का समय है और वोटों की तलाश में मोदी वही कर रहे हैं जो वे हमेशा करते रहे हैं: एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजन को बढ़ावा देना. अगर भाजपा के “अबकी बार 400 पार” के लिए “मांसाहारियों” और पूरी तरह से अप्रासंगिक और व्यावहारिक रूप से अस्तित्वहीन मुस्लिम लीग को “दुश्मन” दिखाना पड़े, तो यह राजनीतिक रूप से क्रूर है और मोदी जैसे अति-महत्वाकांक्षी राजनेता ऐसा ज़रूर करेंगे.

चुनाव प्रचार के दौरान मोदी बार-बार ‘Dog Whistle Politics’ (विरोध भड़काए बिना विशेष समूह का समर्थन हासिल करना) करते हैं. मोदी बहुसंख्यक राष्ट्रवादी वोटों को एकजुट करने के लिए विपक्ष को “हिंदू विरोधी”, “भारत विरोधी” और इस प्रकार देशद्रोही दिखाने के लिए “मुस्लिम” और “मुगल” जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं.

भाजपा-आरएसएस ने हमेशा राजनीतिक लामबंदी और ‘हिंदू वोट’ हासिल करने के लिए ‘मुसलमान को दुश्मन’ की तरह इस्तेमाल किया है. सत्ता की तलाश में भाजपा-आरएसएस ने “क्रोधित हिंदू” के उदय को प्रोत्साहित किया. 1980 के दशक के अंत में संघ ने “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान” जैसे उत्तेजक नारे प्रचारित किए. मुख्यधारा के संघ परिवार के नेता ऐसी भाषा का प्रयोग करते रहते हैं. 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चुनावों को “80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत” का खेल बताया. जबकि योगी ने कहा कि 80 प्रतिशत का आंकड़ा उनकी सरकार के सुरक्षा एजेंडे से खुश मतदाताओं को दर्शाता है और 20 प्रतिशत आलोचकों को दर्शाता है, उनकी टिप्पणी को ध्रुवीकरण करने वाला माना जा सकता है. आखिरकार, यूपी में लगभग 20 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम हैं, जबकि बहुसंख्यक हिंदू हैं.

2019 में मोदी ने केरल के वायनाड से राहुल गांधी की उम्मीदवारी पर हमला किया और उस सीट का ज़िक्र किया जहां “बहुमत अल्पसंख्यक है”. 2019 के झारखंड चुनावों के दौरान, मोदी नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी प्रदर्शनकारियों के पीछे पड़ गए: “संपत्ति में आग लगाने वालों को टीवी पर देखा जा सकता है. उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है.” 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान, मोदी ने भीड़ को कब्रिस्तान (मुस्लिम कब्रिस्तान), शमशान (हिंदू श्मशान घाट), रमज़ान और दिवाली के बारे में बताया. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की थी कि अगर बीजेपी गलती से हार गई तो पाकिस्तान में जश्न के पटाखे छोड़े जाएंगे.

1999 के चुनावों के दौरान, शिवसेना नेता बाल ठाकरे पर छह साल के लिए मतदान करने या चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था क्योंकि उन्होंने ध्रुवीकरण वाली भाषा का इस्तेमाल किया था, लेकिन आज, धर्म और संस्कृति का ऐसा निर्लज्ज सांप्रदायिक संदर्भ किसी और से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की ओर से आता है.

फिर भी, लोकतंत्र के रूप में भारत का अस्तित्व समुदायों के बीच पुल बनाने पर निर्भर करता है. लोकतंत्र में सभी नागरिक समान हैं, चाहे वे मांस या मछली खाते हों या नवरात्रि मनाते हों या नहीं. राजनेता भोजन के विकल्पों (या शादी से लेकर पहनावे से लेकर साथी चुनने तक किसी अन्य व्यक्तिगत विकल्प) को उजागर करना या यह तय करना कि किस समय क्या खाना चाहिए, बेहद खतरनाक है और हमें धर्मतंत्र के करीब लाता है. नेता राज्य की दमनकारी शक्ति से लैस होकर आते हैं. इस प्रकार, जब राजनीतिक नेता व्यक्तिगत पसंद तय करने की कोशिश करते हैं, तो इसमें जबरदस्ती और धमकी की बू आती है. मुसलमानों को लगातार बदनाम करने के कारण एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है: आज, 303 सांसदों वाली सत्तारूढ़ भाजपा में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है. क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र खुद को दुनिया के सामने इसी तरह परिभाषित करना चाहता है?

लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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