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Thursday, 13 November, 2025
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बिहार चुनाव में महिलाओं की वोटिंग अब तक की सबसे ज्यादा क्यों रही

इस विधानसभा चुनाव में बिहार में महिलाओं की भागीदारी रिकॉर्ड तोड़ रही — 71.6 फीसदी जो 1962 के बाद सबसे ज्यादा है.

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नई दिल्ली: भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) द्वारा किए गए स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन से लेकर मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना (एमएमआरवाई) के तहत महिलाओं को मिले 10,000 रुपये तक बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कई कारण ऐसे रहे जिन्होंने आज़ादी के बाद से महिलाओं की सबसे ज्यादा वोटिंग का रास्ता तैयार किया.

दो चरणों में हुए विधानसभा चुनाव के लिए मतदान मंगलवार को समाप्त हुआ. चुनाव आयोग के मुताबिक, इस बार बिहार में कुल मतदान 66.91 प्रतिशत रहा जो 1951 के बाद से राज्य में अब तक का सबसे ज्यादा है.

पहले चरण में जहां 61.56 फीसदी पुरुषों ने वोट डाला, वहीं महिलाओं की वोटिंग 69.04 प्रतिशत रही. दूसरे चरण में 64.1 फीसदी पुरुषों के मुकाबले 74.03 फीसदी महिलाओं ने वोट डाले.

कुल मिलाकर, ईसीआई के शुरुआती आंकड़ों के अनुसार, इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी 71.6 प्रतिशत रही — जो 1962 के बाद से अब तक की सबसे ज्यादा है, जब पहली बार पुरुषों और महिलाओं की वोटिंग का अलग-अलग हिसाब रखा गया था.

यह चौथी बार है जब बिहार में महिलाओं की वोटिंग दर पुरुषों से ज्यादा रही. ईसीआई के आंकड़ों के मुताबिक, यह ट्रेंड 2010 में शुरू हुआ था, जब 54.49 फीसदी योग्य महिलाओं ने वोट डाले, जबकि पुरुषों का प्रतिशत 51.12 रहा.

इसी तरह, 2015 के चुनाव में 60.48 फीसदी महिलाओं ने वोट डाले, जबकि पुरुषों का प्रतिशत 53.32 रहा. 2020 में 59.69 फीसदी महिलाओं ने वोट किया, जबकि पुरुषों की भागीदारी 54.45 फीसदी रही.

कुल संख्याओं में भी महिलाएं आगे रहीं — 2.51 करोड़ महिलाओं ने वोट डाला, जबकि पुरुष मतदाता 2.47 करोड़ रहे — यानी महिलाओं ने पुरुषों से 4.34 लाख ज्यादा वोट डाले. 2020 के मुकाबले (जब 2.08 करोड़ महिलाओं ने वोट किया था), 2025 के चुनाव में 43 लाख ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया. यह बढ़ोतरी पुरुष मतदाताओं की तुलना में भी अधिक है — पुरुष वोटिंग में 36 लाख की बढ़ोतरी दर्ज हुई (2020 में 2.11 करोड़ से बढ़कर 2025 में 2.47 करोड़).

राजनीतिक विश्लेषक और चुनाव विशेषज्ञ संजय कुमार इसे “भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव” मानते हैं. उन्होंने कहा, “हमने कई राज्यों में यह ट्रेंड देखा है, लेकिन पुरुषों और महिलाओं के वोटिंग प्रतिशत में 9 अंकों का अंतर पहले कभी नहीं देखा गया — न बिहार में और न किसी और राज्य में.”

कुछ विशेषज्ञ इसे “महिला सशक्तिकरण की कहानी” बताते हैं. राज्य सरकार द्वारा महिलाओं को दिए गए 10,000 रुपये के लाभ को भी एक अहम कारण माना जा रहा है. वहीं कुछ इसे ईसीआई के बिहार SIR अभियान का असर बताते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि महिलाओं की इतनी बड़ी भागीदारी से चुनाव नतीजों पर क्या असर पड़ेगा? इस पर संजय कुमार 2020 तक के 332 विधानसभा चुनावों की एक स्टडी का ज़िक्र करते हैं.

उनका कहना है कि इनमें से 188 चुनावों में वोटिंग प्रतिशत बढ़ा और इन 188 में से 89 बार सत्तारूढ़ सरकार फिर से चुनी गई.

वहीं, 144 चुनावों में वोटिंग प्रतिशत में गिरावट दर्ज हुई, और इनमें से 56 बार सत्ताधारी सरकार दोबारा सत्ता में लौटी.

कुमार का निष्कर्ष है कि वोटिंग प्रतिशत और चुनाव परिणामों के बीच कोई “मजबूत सीधा संबंध” नहीं है.


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महिलाएं: मतदाता वर्ग

एमएमआरवाई योजना — बिहार में एनडीए सरकार की एक पहल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सितंबर के अंत में शुरू की गई थी. इस योजना के तहत 75 लाख महिलाओं के बैंक खातों में 10,000 रुपये ट्रांसफर किए गए.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अनुसार, तब से अब तक 1.41 करोड़ महिलाओं को इस योजना के तहत 10,000 रुपये मिल चुके हैं.

यह डायरेक्ट कैश बेनिफिट उन नकद ट्रांसफर योजनाओं जैसी ही है, जो बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश और दिल्ली जैसे अन्य राज्यों में महिलाओं के लिए घोषित की गई हैं.

बिहार में मतदान केंद्र पर वोट डालने का इंतज़ार करतीं महिला मतदाता | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट
बिहार में मतदान केंद्र पर वोट डालने का इंतज़ार करतीं महिला मतदाता | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

हालांकि, बिहार में किया गया वादा इससे बड़ा है. जिन महिलाओं को इस रकम से बेहतर रोजगार का मौका मिला है, उन्हें अतिरिक्त 2 लाख रुपये देने का भी वादा किया गया है.

बिहार की आबादी में लगभग आधी हिस्सेदारी रखने वाली महिलाओं को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नीतियां अक्सर इसी वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं. उन्होंने सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण देने से लेकर अब हर महिला के खाते में 10,000 रुपये ट्रांसफर करने तक कई पहलें की हैं, जिनसे महिलाओं को सीधा फायदा हुआ है.

कुमार का कहना है कि यह 10,000 रुपये की मदद, अन्य कल्याणकारी योजनाओं के साथ मिलकर, महिलाओं की चुनावी भागीदारी पर निश्चित रूप से असर डालेगी.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “अगर आप देखें कि पिछले 10-15 सालों में भारत के कई राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या क्यों बढ़ी है, तो इसका बड़ा कारण यह है कि सरकारें विशेष समुदायों के लिए कल्याण योजनाएं लेकर आई हैं. अब ज़्यादातर राजनीतिक दल महिलाओं को एक अलग मतदाता वर्ग के रूप में देखते हैं. इसलिए महिलाओं या बालिकाओं के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाएं अब कई राज्य सरकारों की खास पहचान बन चुकी हैं.”

एक ऐतिहासिक रुझान

दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो राहुल वर्मा के अनुसार, महिला मतदाता भागीदारी बढ़ने के पीछे तीन मुख्य कारण हैं और इनमें 10,000 रुपये की मदद सबसे नीचे आती है.

वर्मा बताते हैं कि बिहार में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पिछले तीन चुनावों में भी लगातार अधिक रहा है. वह इसे “एक ऐतिहासिक रुझान” मानते हैं.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “यह एक सशक्तिकरण की कहानी भी हो सकती है, जहां समय के साथ महिलाओं को शिक्षा मिली है. पूरे देश में महिलाओं का मतदान प्रतिशत बढ़ा है और पुरुषों व महिलाओं के बीच मतदान में जो अंतर था, वह घटा है. इसलिए यह एक बड़े सामाजिक बदलाव का हिस्सा है.”

उनके मुताबिक दूसरा कारण है बिहार में हुआ SIR अभियान. इस प्रक्रिया में जिन मतदाताओं को मृत पाया गया, या जो अपने पते से हट चुके थे, उनके नाम सूची से हटाए गए. रिपोर्ट्स के मुताबिक, महिलाओं के नामों की डिलीशन दर पुरुषों से ज्यादा थी.

उन्होंने कहा, “शादी की वजह से महिलाएं अक्सर एक जगह से दूसरी जगह चली जाती हैं. इसलिए महिला मतदाताओं की अधिक डिलीशन का मतलब यह भी हो सकता है कि महिलाओं की कुल संख्या घट गई और इससे प्रतिशत बढ़ा दिखा. यह एक सांख्यिकीय भ्रम भी हो सकता है.”

दूसरे शब्दों में, वर्मा समझाते हैं कि महिला मतदाताओं का बढ़ा हुआ प्रतिशत इस वजह से भी हो सकता है कि जो महिलाएं पहले वोट नहीं डालती थीं, उनके नाम SIR के दौरान हट गए, जिससे वोटिंग का प्रतिशत अपने आप अधिक दिखा.

उन्होंने कहा कि 10,000 रुपये की मदद का प्रभाव मतदान पर “सबसे कम” रहा होगा.

सशक्तिकरण की कहानी

विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार में महिलाओं की बड़ी संख्या में वोटिंग को अकेले नहीं देखा जा सकता. उनका मानना है कि यह महिलाओं की समाज में धीरे-धीरे बढ़ती भागीदारी और उनकी बढ़ती स्थिति का नतीजा है.

इसके साथ ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी बताया कि राज्य सरकार द्वारा स्थानीय निकाय चुनावों में महिलाओं को 50% आरक्षण देने के फैसले का बड़ा असर हुआ है. उनका कहना है कि शुरू में महिलाएं चुनाव तो लड़ती थीं, लेकिन सिर्फ पुरुष उम्मीदवारों की जगह पर नाम भर के लिए. मगर पिछले कुछ सालों में महिलाएं “राजनीतिक रूप से जागरूक और राजनीतिक रूप से दिलचस्पी रखने वाली” हो गई हैं.

उन्होंने कहा कि अब कई जिलों में स्थानीय निकाय चुनावों में चुनी गई महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा होती है, क्योंकि महिलाएं अब गैर-आरक्षित सीटों से भी जीतने लगी हैं.

उनके मुताबिक, सोशल मीडिया भी एक बड़ा बराबरी लाने वाला जरिया बना है. उन्होंने कहा, “सोशल मीडिया पर जानकारी पाने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं है.” यानी आज के समय में जानकारी हासिल करना आसान हो गया है.

उन्होंने आगे कहा, “इससे भी महिलाओं में जागरूकता बढ़ी है. अगर मुझे महिलाओं की ज़्यादा वोटिंग से किसी एक चीज़ को जोड़ना हो, तो वह जागरूकता होगी — राजनीतिक जागरूकता. और यह राजनीतिक जागरूकता आरक्षण की व्यवस्था, स्थानीय चुनावों और सोशल मीडिया जैसी चीज़ों से आई है.”

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर तनवीर एजाज़ का कहना है कि अब बिहार की राजनीतिक पार्टियां महिलाओं को एक अलग मतदाता वर्ग के रूप में देखती हैं.

एज़ाज ने कहा, “जेडीयू की नीतियां लंबे समय से महिलाओं को लक्ष्य बनाती रही हैं और जब भी बिहार में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत बढ़ा है, इसका फायदा ज्यादातर जेडीयू को मिला है. यही वजह है कि जेडीयू ने महिलाओं और जीविका दीदियों को 10,000 रुपये देने की योजना बनाई.”

उन्होंने आगे कहा, “चुनाव से ठीक पहले अगर आपको पैसा मिलता है, तो आपको लगता है कि आप सशक्त हैं और सरकार चुनने की ताकत आपके पास है. जब महिलाएं राजनीतिक रूप से सशक्त होती हैं, तो उन्हें अपने परिवार में भी बोलने की जगह मिलती है. इसलिए यह सिर्फ राजनीतिक सशक्तिकरण नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण भी बन जाता है.”

एजाज़ कहते हैं कि यही वजह है कि महागठबंधन ने भी वादा किया है कि अगर वह सत्ता में आता है तो ‘जीविका दीदियों’ को स्थायी नौकरी और 30,000 रुपये मासिक वेतन देगा.

बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वोट डालने के बाद उंगली पर स्याही का निशान दिखातीं महिला मतदाता | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट
बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वोट डालने के बाद उंगली पर स्याही का निशान दिखातीं महिला मतदाता | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

साफ मतदाता सूची और नया खिलाड़ी

66.91 प्रतिशत के कुल वोटिंग प्रतिशत में साफ-सुथरी मतदाता सूचियों का भी योगदान है.

बिहार में SIR की अंतिम सूची में 7.4 करोड़ मतदाता शामिल थे, जबकि पहले यह संख्या 7.89 करोड़ थी. ड्राफ्ट सूची में 65 लाख नाम हटाए गए — इनमें से 22 लाख मृत पाए गए, 36 लाख लोग अपने रजिस्टर्ड पते पर नहीं मिले और सात लाख लोग स्थायी रूप से कहीं और चले गए थे. अंतिम सूची में और 3.66 लाख मतदाताओं को “अयोग्य” बताकर हटा दिया गया.

कुमार का कहना है कि जब भी राजनीति में कोई नई पार्टी आती है, तो वोटिंग प्रतिशत बढ़ जाता है. बिहार के मामले में, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) राजनीति में नई पार्टी के तौर पर आई है.

कुमार बताते हैं कि बिहार में पारंपरिक तौर पर हमेशा दो ध्रुव रहे हैं — महागठबंधन और एनडीए.

उन्होंने कहा, “अगर आप देखें, तो पिछले कई चुनावों में इन दोनों गठबंधनों को कुल मिलाकर लगभग 73-75 प्रतिशत वोट मिले हैं. यानी करीब 25-27 प्रतिशत मतदाता ऐसे हैं जो अन्य क्षेत्रीय दलों या निर्दलीयों को वोट देते हैं. मुझे लगता है कि ये वही मतदाता हैं जो दोनों मुख्य गठबंधनों से थोड़ा निराश हैं और उन्हें मौजूदा राजनीतिक विकल्प पसंद नहीं आए.”

कुमार ने आगे कहा, “संभव है कि इस बार ये मतदाता राजनीति में आए नए खिलाड़ी से प्रभावित हुए हों. प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी ने बिहार के लोगों से बड़े बदलाव का वादा किया है और शायद यही लोगों को नया उत्साह देने का कारण बना.”

जातीय लामबंदी और छठ का असर

इस साल चुनाव छठ पूजा के करीब हुए, जो राज्य का सबसे प्रमुख त्योहार है. हर साल लाखों लोग इस मौके पर अपने घर लौटते हैं.

यह त्योहार 25 से 28 अक्टूबर तक मनाया गया, और इसके कुछ ही दिन बाद मतदान हुआ — पहला चरण 4 नवंबर को और दूसरा 11 नवंबर को.

वर्मा ने कहा, “क्योंकि चुनाव छठ के तुरंत बाद हुए, हो सकता है लोग अपने घरों में ही रुके रहे हों और वोट डालने चले गए हों.”

कुमार एक और कारण बताते हैं — सूक्ष्म स्तर की जातीय लामबंदी — जिसने लोगों को वोट डालने के लिए प्रेरित किया हो सकता है.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “देखिए, कितनी छोटी-छोटी जातीय पार्टियां हैं जिनका अपना समर्थन आधार है — हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी और इंडियन इंक्लूसिव पार्टी, जो ताती-तत्वा और पान समुदायों के वोट जुटाती है. इन पार्टियों ने कम से कम अपनी जाति या समुदाय के मतदाताओं को सक्रिय किया होगा. जब कोई व्यक्ति अपने ही समुदाय का नेता उभरते हुए देखता है, तो उसमें वोट डालने का उत्साह बढ़ जाता है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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