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Sunday, 17 November, 2024
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भागवत ‘हिंदुओं की रक्षा नहीं कर रहे’—दक्षिणपंथी, RSS प्रमुख के मुस्लिम DNA वाले बयान पर क्यों भड़के

पिछले एक महीने में भारतीयों के पूर्वजों को लेकर अपनी टिप्पणी के कारण आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है, जिसे दक्षिणपंथी मुसलमानों की तरफ अमन का हाथ बढ़ाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं.

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नई दिल्ली: आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जबसे यह कहा है कि हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है, उन्हें हिंदूवादी दक्षिणपंथियों की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा है.

भागवत ने पहली बार 4 जुलाई को गाजियाबाद में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान यह बात कही थी जिसे दक्षिणपंथी मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ाए जाने के तौर पर देखते हैं.

भागवत ने उस समय मुसलमानों से भारत में इस्लाम खतरे में होने के ‘डर के दुष्चक्र में न फंसने’ का आग्रह करते हुए कहा था, ‘हिंदू-मुस्लिम एकता भ्रामक है क्योंकि वे अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही हैं. सभी भारतीयों का डीएनए समान है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो.’

फिर 21 जुलाई को गुवाहाटी में एक पुस्तक विमोचन के अवसर पर भागवत ने अपनी बात दोहराते हुए कहा कि भारतीय ‘अलग-अलग धर्मों और खान-पान की आदतों के बावजूद सदियों से एक साथ रह रहे हैं क्योंकि हमारी संस्कृति एक है.’

हालांकि, उन्होंने यह दावा करके ‘आउटरीच’ की नाराजगी भी बढ़ाई कि कुछ (मुसलमान पढ़ें) लोग हावी होना चाहते रहे हैं और 1930 में देश में मुस्लिम आबादी को बढ़ाने की मुहिम चलाई गई थी.

यह बात भी आरएसएस प्रमुख के खिलाफ गुस्से को बहुत ज्यादा कम नहीं कर पाई है.

भागवत को आरएसएस और भाजपा के कुछ प्रमुख समर्थकों, दक्षिणपंथी पोर्टल और सोशल मीडिया पर सक्रिय कई ‘हिंदुत्व समर्थकों’ की ओर से खासी नाराजगी का सामना करना पड़ा है.


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‘मुसलमानों का तुष्टिकरण’

आलोचनाओं में मुख्यत: इस बात पर जोर दिया गया कि भागवत ‘मुसलमानों का तुष्टिकरण’ करना चाहते हैं.

सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वालों में मानुषी पत्रिका की संस्थापक और मुखर दक्षिणपंथी विचारक मधु किश्वर थीं.

उन्होंने डीएनए वाले बयान के दिन 4 जुलाई को ही ट्वीट किया था, ‘श्री मोहन भागवतजी की एक्सपायरी डेट उनके आरएसएस प्रमुख बनने से पहले की है!’

किश्वर ने दिप्रिंट से कहा कि यहां तक कि कांग्रेस पार्टी भी आरएसएस से ज्यादा ईमानदार है.

उन्होंने कहा, ‘आरएसएस का हिंदूवादी विचारधारा के प्रचार से कोई लेना-देना नहीं है; वे गांधी से ज्यादा गांधीवादी हैं. उन्होंने हमारे अपने लोगों और विचारधारा की रक्षा नहीं की है. वे अच्छे लोगों के रूप में दिखना चाहते हैं. हम सब जो आरएसएस की पृष्ठभूमि से नहीं आते हैं, ने उनका समर्थन किया लेकिन आखिर में यही पाया कि वे हिंदुओं की रक्षा के प्रति ईमानदार नहीं हैं. उनसे ज्यादा ईमानदार तो कांग्रेस ही है.’

हिंदुत्व के कट्टर समर्थक माने जाने वाले सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी एम. नागेश्वर राव भी गुवाहाटी में भागवत की बयान को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं.

उन्होंने 25 जुलाई को किए ट्वीट में लिखा, ‘केवल जिन्ना की प्रशंसा करने पर आडवाणी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया था. लेकिन उन लोगों का क्या जो एमआरएम; (सीआरएम?); सर्वधर्म समभाव/समादार; समान डीएनए स्कीम; रोटी-बेटी संपर्क आदि की बातें कर एच-सोसाइटी को लाखों गुना ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं.’

फिर दक्षिणपंथी पोर्टल भी इस मामले को लेकर आरएसएस प्रमुख पर निशाना साधने में पीछे नहीं रहे.

ऑपइंडिया की तरफ से 9 जुलाई को चलाए गए एक ओपिनियन पीस में डीएनए वाले बयान को आरएसएस की ‘गांधीवादी भूल’ करार दिया गया. ‘आरएसएस, मोहन भागवत और हिंदुओं-मुसलमानों के साझा डीएनए पर हालिया टिप्पणी: अद्वितीय योगदान देने वाले एक संगठन की गांधीवादी भूल है’ शीर्षक से जारी इस लेख में कहा गया है, ‘केवल डीएनए साझा करने का मतलब राष्ट्र के लिए समान दृष्टि साझा करना नहीं है.’

इसमें कहा गया, ‘एक ही भाषा, धर्म और जातीयता साझा करने वाले लोगों के बीच तमाम युद्ध लड़े गए हैं. भारत का इतिहास और यहां तक कि मौजूदा परिस्थितियां भी यह स्पष्ट करती हैं कि एक ही डीएनए साझा करने से लोग समान नहीं हो जाते.’

लेख का समापन इस पर जोर देते हुए किया गया कि यद्यपि आरएसएस ‘एक बहुत सम्मानित संस्था है…यह उन आम हिंदू को अलग-थलग करने का जोखिम उठा रही है जो ‘धर्मनिरपेक्षता’ के झूठ के प्रति जागरूक हो गया है.’

नया इंडिया अखबार के लिए अपने लेख में स्तंभकार शंकर शरण ने ‘तुष्टिकरण’ का तर्क दिया. उन्होंने लिखा, ‘आरएसएस के संस्थापक हेगड़ेवार ने इसे एक हिंदू संगठन के रूप में स्थापित किया था जो मुसलिमों के लिए नहीं था. गुरु गोलवलकर ने तो मुसलमानों और ईसाइयों को वोट देने के अधिकार से वंचित करने तक की वकालत की थी. उन्होंने स्पष्ट किया था कि मुसलमान हिंदुओं से अलग हैं. ये मुसलमानों पर नवविकसित विचार हैं.’

जाहिर है, छोटे-मोटे हिंदूवादी संगठनों की तरफ से भी उदार रुख नहीं अपनाया जाना था. गाजियाबाद स्थित डासना देवी मंदिर के विवादों में घिरे रहे महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने आरएसएस प्रमुख पर जमकर हमला बोला. नरसिंहानंद ने कहा, ‘भागवत हर किसी के ठेकेदार नहीं हैं. वह अपने डीएनए के बारे में बात करने के लिए स्वतंत्र हैं. वो औरंगजेब का डीएनए साझा कर रहे होंगे, लेकिन यह सबके लिए सच नहीं है.’

विहिप नेता साध्वी प्राची ने भी कुछ इसी तरह के विचार व्यक्त किए, जिनका कहना था, ‘गाय का मांस खाने वालों का डीएनए हमारे बीच कभी नहीं पाया जा सकता.’

‘यह तुष्टिकरण नहीं है’

हालांकि, आरएसएस प्रमुख के पास समर्थन करने वाले भी कम नहीं हैं.

आरएसएस 360: डेमिस्टिफाइंग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी किताबें लिखने वाले रतन शारदा ने दिप्रिंट से कहा कि मुसलमानों के प्रति संगठन के रुख से कोई बदलाव नहीं आया है.

उन्होंने कहा, ‘भागवतजी के डीएनए वाले बयान को अलग संदर्भ में नहीं देखा जा सकता है, बल्कि इसे गुवाहाटी में उनके पूरे भाषण के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जहां उन्होंने कहा कि भोजन की आदतों और पूजा में अंतर के बावजूद हम समान संस्कृति साझा करते हैं, लेकिन यह प्रभुत्व स्थापित करने का आधार नहीं बन सकता. हमें मिलजुलकर रहना होगा. इससे पहले भी आरएसएस प्रमुखों ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए ऐसी विचारधारा अपनाई थी. सुदर्शनजी के कार्यकाल (2000-2009) के दौरान भी व्यापक स्तर पर मेलजोल बढ़ाने के लिए मुस्लिम मंच की स्थापना की गई थी.’

उन्होंने आगे कहा, ‘हिंदुओं के बाद मुस्लिम संख्या की दृष्टि से एक बड़ा वर्ग है. अगर मुसलमानों की तरफ से बड़ी संख्या में लोग समृद्धि और राष्ट्र निर्माण के लिए मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं, तो उनका स्वागत किया जाना चाहिए. यह सुदर्शनजी का विचार था.’

दिप्रिंट के लिए अपने लेख में दिल्ली स्थित थिंक-टैंक विचार विनिमय केंद्र के शोध निदेशक अरुण आनंद ने तर्क दिया कि भागवत की टिप्पणियां वास्तव में, ‘आरएसएस के उस रुख की पुनरावृत्ति ही थीं, जिसका 1925 में इसकी स्थापना के बाद से ही लगातार पालन किया जा रहा है. भारत में भले ही कोई भी किसी भी धर्म का पालन करता हो, किसी को भी ‘बहुसंख्यक’ या ‘अल्पसंख्यक’ के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए.’

उन्होंने लिखा, ‘आरएसएस हमेशा से ही मानता रहा है कि पूजा पद्धति के आधार पर समाज को वर्गीकृत करना ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ और ‘वोट बैंक की राजनीति’ का मूल कारण है, जिसने समाज को बहुत क्षति पहुंचाई है, और इसीलिए संघ ने हमेशा इसका विरोध किया है.’

विश्लेषकों का कहना है कि यह कुछ और नहीं बल्कि एक बाध्यता है जो दुनियाभर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल होने की वजह से सामने आ खड़ी हुई है.

सेंटर फॉर डेवलपिंग स्टडीज के संजय कुमार ने कहा, ‘इन बयानों का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. वे जानते हैं कि मुसलमान उन्हें वोट नहीं देंगे. लेकिन आरएसएस और प्रधानमंत्री इस तथ्य से भलीभांति अवगत हैं कि हाल के दिनों में असहिष्णुता, लिंचिंग और दिल्ली दंगों जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति के कारण विश्व स्तर पर पीएम की छवि खराब हुई है. एक हिंदूवादी संगठन के प्रमुख के तौर पर यह भागवत का कर्तव्य है कि वह धारणाओं को बदलें. यह टिप्पणी छवि बदलने की कोशिश है.’

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के प्रोफेसर आफताब आलम इस आकलन का समर्थन करते हैं. उन्होंने कहा, ‘दुनियाभर में मंथन चल रहा है. अफगानिस्तान में तालिबान अपनी जगह बना रहा है, ट्रंप अब अमेरिका में नहीं हैं और चीन अशांति पैदा कर रहा है. भारत के लिए जरूरी है कि दुनिया को अपनी बहुलतावादी संस्कृति दिखाए और आक्रामक हिंदू समूहों पर लगाम कसे, जबकि घरेलू मुसलमानों को दूसरे देशों से प्रभावित न होने के लिए आश्वस्त करे.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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