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Friday, 1 November, 2024
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क्यों मोदी और राहुल चुनावी विज्ञापनों में ज़्यादा नहीं दिखे?

रिसर्च कंपनी एडएक्स के अनुसार, इस साल जनवरी से मार्च के बीच तमाम संचार माध्यमों में राजनीतिक विज्ञापनों की उपस्थिति 2014 के मुकाबले काफी कम रही है. सिर्फ रेडियो पर विज्ञापन बढ़े हैं.

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नई दिल्ली: बड़े दांव वाले इस बार के चुनावी मुकाबले और चुनाव से पहले के तीखे अभियानों के मद्देनज़र यही लगता है कि 2019 में तमाम मीडिया माध्यमों को अधिकतम मात्रा में राजनीतिक विज्ञापन मिले होंगे. पर दरअसल ऐसा हुआ नहीं.

वर्ष 2019 की पहली तिमाही में 2014 की तुलना में राजनीतिक दलों के विज्ञापनों में भारी गिरावट आई है. उल्लेखनीय है कि 2014 का चुनाव भारत का सबसे महंगा चुनाव था.

टैम मीडिया रिसर्च से संबद्ध एडएक्स इंडिया के आंकड़ों के अनुसार जनवरी से मार्च 2019 की अवधि में 2014 के मुकाबले, टेलीविजन पर राजनीतिक विज्ञापनों में 83 प्रतिशत और प्रिंट विज्ञापनों में 9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है.

याद रहे कि 2014 में उसके पहले के चुनावी वर्ष 2009 के मुकाबले प्रिंट मीडिया में राजनीतिक विज्ञापनों में 25 फीसदी वृद्धि हुई थी. जबकि, टीवी विज्ञापनों में तो 169 प्रतिशत की भारी बढ़ोत्तरी हुई थी.

इस बार सिर्फ रेडियो पर राजनीतिक विज्ञापन बढ़े हैं. पर यह वृद्धि भी तुलनात्मक रूप से बहुत कम है. क्योंकि जहां 2014 में 2009 के मुकाबले रेडियो पर राजनीतिक विज्ञापनों में 400 फीसदी की वृद्धि देखी गई थी. वहीं, इस साल 2014 के मुकाबले मात्र 14 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है.

इस साल राजनीतिक विज्ञापनों में सबसे बड़ा हिस्सा भाजपा का रहा है. प्रिंट में तथा टेलीविजन और रेडियो पर राजनीतिक विज्ञापनों की संख्या की बात करें तो उनमें से 53 प्रतिशत भाजपा के रहे हैं. कांग्रेस 14 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ दूसरे नंबर पर काफी पीछे है, जबकि 6 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ तेलुगु देशम पार्टी तीसरे नंबर पर है.

इस बारे में टिप्पणी के लिए दिप्रिंट के संदेशों का ना तो भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रमुख अनिल बलूनी ने और ना ही कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने जवाब दिया.

आचार संहिता लागू होने से पहले सरकारी विज्ञापनों की बाढ़

10 मार्च को चुनाव आचार संहिता लागू होने के ठीक पहले नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों के प्रचार के लिए अखबारों के विभिन्न संस्करणों में करोड़ों के विज्ञापन प्रकाशित किए गए.

प्रमुख दैनिकों के दिल्ली संस्करण में दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने भी अनेक विज्ञापन प्रकाशित कराए.

हालांकि, बाकी पार्टियों के विपरीत इस बार भाजपा ने प्रचार के नए तरीके भी आजमाए हैं – उदाहरण के लिए, नमो टीवी और अभिनेता अक्षय कुमार के साथ प्रधानमंत्री मोदी का ‘गैर-राजनीतिक’ साक्षात्कार.

सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ब्यूरो ऑफ आउटरीच कम्युनिकेशन के एक अधिकारी ने बताया कि मौजूदा भाजपा सरकार का वैसे भी प्रिंट विज्ञापनों पर धन खर्च करने में यकीन नहीं है.

सरकारी विज्ञापनों के प्रसार से संबद्ध इस अधिकारी ने कहा, ‘उनका मानना है कि प्रिंट विज्ञापनों का प्रकाशन, खास कर राष्ट्रीय दैनिकों में, कुल मिलाकर एक निरर्थक प्रयास है क्योंकि पार्टी के मूल वोटरों तक इनकी पहुंच ही नहीं है. इसलिए उन्होंने हाल में क्षेत्रीय मीडिया और संपादकों तक पहुंच बनाने के प्रयास बढ़ा दिए हैं. साथ ही, उनका ये भी मानना है कि प्रिंट के विज्ञापन ज़्यादा याद भी नहीं रहते.’

चुनाव के दौरान कम प्रिंट विज्ञापन

वैसे तो अप्रैल माह के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं, पर विज्ञापन जगत के सूत्रों के अनुसार चुनाव शुरू होने के बाद से प्रिंट मीडिया में राजनीतिक विज्ञापनों में भारी गिरावट आई है.

वर्तमान में, जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 126 में सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए मतदान से 48 घंटे पहले की अवधि में राजनीतिक विज्ञापन दिखाने पर रोक है. प्रिंट और डिजिटल मीडिया को इस पाबंदी से छूट मिली हुई है. इस कारण राजनीतिक दल आमतौर पर मतदान से कुछ पहले प्रिंट विज्ञापन प्रकाशित कराते हैं.

संचार विशेषज्ञ दिलीप चेरियन के अनुसार इस बार के चुनाव के दौरान प्रिंट मीडिया पर राजनीतिक दलों का खर्च पिछले चुनाव के मुकाबले लगभग आधा रहा है.

चेरियन ने दिप्रिंट को बताया, ‘साथ ही लोग वीडियो और मीम जैसे संचार के नए तरीकों को अपनाते हुए डिजिटल मीडिया पर भी पैसे खर्च कर रहे हैं. डिजिटल विज्ञापन खास कर उन प्लेटफार्मों पर प्रसारित किए जा रहे हैं. जिन्हें कि फोन पर देखा जा सकता हो.’

हालांकि, एक प्रमुख राष्ट्रीय अखबार की मार्केटिंग का काम देखने वाले एक अन्य सूत्र के अनुसार प्रिंट विज्ञापनों में वृद्ध भले ही ना हुई हो, पर उनमें बड़ी गिरावट भी नहीं हुई है.

विज्ञापन जगत से जुड़े इस सूत्र के अनुसार क्षेत्रीय प्रकाशनों में राजनीतिक विज्ञापन छप रहे हैं. भले ही वे प्रमुख राष्ट्रीय दैनिकों में ज़्यादा नहीं दिखते हों. परंतु यदि आप राष्ट्रीय दैनिकों के मतदान वाले क्षेत्रों में जाने वाले संस्करणों को देखें तो आपको उनमें ये विज्ञापन दिख जाएंगे.’

‘आमतौर पर, मतदान की तिथि नजदीक आने पर प्रिंट मीडिया में विज्ञापन अधिक प्रमुखता और निरंतरता से आने लगते हैं. सिर्फ इसलिए नहीं कि वोटिंग से पहले के 48 घंटे की अवधि में भी उन्हें प्रकाशित किया जा सकता है, बल्कि उस दौरान उनके याददाश्त में रहने की अधिक संभावना के कारण भी. इसलिए अगले चरण की वोटिंग वाले क्षेत्रों के लिए प्रासंगिक संस्करणों में मतदान से पहले छपने के लिए हमारे पास विज्ञापन आ भी चुके हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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