मुंबई: लंबे समय से चली आ रही शिव सेना बनाम शिव सेना की लड़ाई में, महाराष्ट्र के स्पीकर राहुल नार्वेकर ने बुधवार को एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट के पक्ष में फैसला सुनाया, पार्टी के व्हिप को बरकरार रखा और शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) गुट द्वारा अपने विधायकों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिकाओं को खारिज कर दिया.
शिवसेना (यूबीटी) को थोड़ी राहत देते हुए स्पीकर ने शिंदे गुट द्वारा उसके विधायकों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिकाओं को भी खारिज कर दिया..
असली शिवसेना कौन है, इसका फैसला करते समय स्पीकर ने मोटे तौर पर तीन परीक्षण लागू किए – पार्टी का संविधान, नेतृत्व संरचना और विधायी ताकत – और उसी आधार पर फैसला सुनाया जो चुनाव आयोग द्वारा इस्तेमाल किया गया था: किस गुट के पास विधायी ताकत है.
पिछले साल फरवरी में, चुनाव आयोग (ईसी) ने शिंदे खेमे को असली शिवसेना माना था और पार्टी की विधायी ताकत के आधार पर उसे पार्टी का ‘धनुष और तीर’ प्रतीक आवंटित किया था.
दोनों पक्षों को महीनों तक सुनने के बाद अपने फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को पढ़ते हुए, बीजेपी विधायक, स्पीकर नार्वेकर ने कहा, “ईसी को सौंपे गए संविधान पर कोई आम सहमति नहीं है… पार्टियों के पास नेतृत्व संरचना पर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं, जिसे ध्यान में रखने की जरूरत है. एकमात्र पहलू विधायी शक्ति है.”
नार्वेकर ने अपने आदेश में कहा, “कौन सा गुट वास्तविक राजनीतिक दल है, यह विधायी बहुमत से स्पष्ट है कि प्रतिद्वंद्वी गुट कब उभरे.”
उन्होंने 21 जून 2022 को विभाजन की तारीख निर्धारित की और कहा कि विधायी सचिवालय के पास उपलब्ध रिकॉर्ड के अनुसार, उस समय शिंदे गुट के पास भारी बहुमत – 55 में से 37 विधायक – था.
इस आधार पर, नार्वेकर ने शिंदे गुट के विधायक भरत गोगावले के व्हिप को भी बरकरार रखा और शिव सेना (यूबीटी) के विधायक सुनील प्रभु के व्हिप को खारिज कर दिया.
एकनाथ शिंदे ने जून 2022 में 39 अन्य विधायकों के साथ उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिससे पार्टी में विभाजन हो गया और ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार गिर गई, जिसमें अविभाजित शिवसेना, अविभाजित राष्ट्रवादी शामिल थी.
शिंदे गुट तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गया और शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर सरकार बनाई. दोनों गुटों ने एक-दूसरे के खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं दायर कीं.
एकनाथ शिंदे ने जून 2022 में 39 अन्य विधायकों के साथ उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिससे पार्टी में विभाजन हो गया और ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार गिर गई, जिसमें अविभाजित शिवसेना, अविभाजित राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस शामिल थी.
शिंदे गुट तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गया और शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर सरकार बनाई. दोनों गुटों ने एक-दूसरे के खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं दायर कीं.
पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला करने की जिम्मेदारी स्पीकर के पाले में डाल दी थी.
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विवाद की जड़ें
जून में शिंदे के विद्रोह के कुछ ही घंटों के भीतर, ठाकरे समूह ने एक प्रस्ताव पारित कर शिंदे को शिवसेना विधायक दल के नेता पद से हटा दिया और उनके स्थान पर पार्टी विधायक अजय चौधरी को नियुक्त किया. ठाकरे के नेतृत्व वाली पार्टी ने सुनील प्रभु को अपना मुख्य सचेतक भी नियुक्त किया.
लगभग उसी समय, शिंदे गुट ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि शिंदे विधायक दल का नेतृत्व करना जारी रखेंगे और विधायक भरत गोगावले को पार्टी का मुख्य सचेतक नियुक्त किया. ठाकरे गुट ने सबसे पहले 16 विधायकों के पहले समूह के खिलाफ अयोग्यता याचिका दायर की, जिन्होंने विद्रोह किया था और सचेतक के रूप में प्रभु द्वारा बुलाई गई बैठक में भाग नहीं लिया था. इसके बाद, दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं दायर कीं.
सुप्रीम कोर्ट ने मई में अपने फैसले में कहा था कि वह एमवीए सरकार को बहाल नहीं कर सकता क्योंकि ठाकरे ने फ्लोर टेस्ट का सामना किए बिना ही सीएम पद छोड़ दिया था.
हालांकि, अदालत ने इस बारे में सवाल उठाए कि शिंदे सरकार का गठन कैसे हुआ, जिसमें एमवीए सरकार को फ्लोर टेस्ट का सामना करने के लिए कहने के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के फैसले को “उचित नहीं” बताया गया.
इसने शिंदे खेमे के गोगावले को शिवसेना के मुख्य सचेतक के रूप में मान्यता देने के नार्वेकर के फैसले की भी आलोचना की, जिसे “अवैध” बताया गया क्योंकि यह उचित जांच के बिना लिया गया था कि शिवसेना का कौन सा गुट वैध पार्टी है.
इस प्रकार, इसने स्पीकर को उचित जांच करने और अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने का निर्देश दिया.
संविधान, नेतृत्व संरचना और पार्टी की इच्छा
नार्वेकर ने कहा कि शिवसेना (यूबीटी) पार्टी के कथित संशोधित 2018 के संविधान को मान रही थी, जबकि शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने तर्क दिया कि 1999 का संविधान रिकॉर्ड में लिया जाना चाहिए क्योंकि 2018 का संविधान कभी भी चुनाव आयोग के सामने पेश ही नहीं किया गया.
नार्वेकर ने कहा, “यदि दोनों गुटों ने अलग-अलग संविधान प्रस्तुत किए हैं, तो इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने से पहले चुनाव आयोग के पास संविधान फाइल किया गया था…प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि 1999 का संविधान वही है जो प्रतिद्वंद्वी गुटों के उभरने से पहले शिव सेना द्वारा चुनाव आयोग को प्रस्तुत किया गया था.”
स्पीकर ने रिकॉर्ड पर कहा कि शिंदे गुट ने आरोप लगाया था कि नेतृत्व संरचना निर्धारित करने के लिए 2018 में कोई संगठनात्मक चुनाव नहीं हुए थे, और सभी उम्मीदवारों को निर्विरोध विजेता घोषित कर दिया गया था. हालांकि, नार्वेकर ने कहा कि उनका अधिकार क्षेत्र चुनाव आयोग के पास उपलब्ध रिकॉर्ड तक सीमित है और इसलिए 2018 की नेतृत्व संरचना को मामले में प्रासंगिक नेतृत्व संरचना माना जाना चाहिए.
उन्होंने आगे बताया कि यह 1999 के संविधान के साथ असंगत था. 2018 की नेतृत्व संरचना में शिवसेना पक्ष प्रमुख (पार्टी प्रमुख) को सर्वोच्च पद के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि 1999 के संविधान में राष्ट्रीय कार्यकारिणी को सर्वोच्च पद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है. स्पीकर ने कहा कि इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी में निर्दिष्ट सदस्यों की संख्या और अन्य पदों व पदनामों में भी भिन्नता है.
नार्वेकर ने कहा, “यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 2018 की नेतृत्व संरचना को यह निर्धारित करने के लिए मानदंड के रूप में नहीं लिया जा सकता है कि कौन सी पार्टी असली है.”
नार्वेकर ने कहा, शिवसेना (यूबीटी) की दलील के अनुसार, पार्टी प्रमुख की इच्छा राजनीतिक दल की इच्छा मानी जाएगी. हालांकि, उन्होंने कहा कि 1999 का शिव सेना का संविधान कहता है कि पार्टी प्रमुख सर्वोच्च प्राधिकारी नहीं है और इसलिए उनकी इच्छा को राजनीतिक दल की इच्छा का पर्याय मानना “स्वीकार नहीं किया जा सकता”.
इसके अलावा, उन्होंने कहा, अगर यह तर्क स्वीकार कर लिया जाता है कि पार्टी प्रमुख की इच्छा ही पार्टी की इच्छा है, तो, ऐसी स्थिति में जहां पार्टी अध्यक्ष दल-बदल करता है, वह केवल यह दावा करके अयोग्यता के कानून से बच सकता है कि यह उसकी इच्छा है.
नार्वेकर ने कहा, “इसका मतलब यह भी होगा कि पार्टी अध्यक्ष उन पर सवाल उठाने वाले किसी भी सदस्य को अयोग्य ठहराने की मांग कर सकते हैं. यह पार्टी के भीतर असंतोष के खिलाफ होगा.”
‘आरोपों’ पर आधारित अयोग्यता याचिकाएं
स्पीकर ने शिंदे गुट के खिलाफ शिव सेना (यूबीटी) द्वारा दायर अयोग्यता याचिकाओं को मुख्य रूप से अपनी शुरुआत में ही यह कहकर खारिज कर दिया था कि शिंदे ही असली शिव सेना है और ठाकरे गुट का व्हिप मान्य नहीं है.
हालांकि, उन्होंने कहा, इन निष्कर्षों के बिना भी अयोग्यता याचिकाओं का कोई औचित्य नहीं है. उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा कि शिवसेना (यूबीटी) का यह दावा कि शिंदे गुट के नेता संपर्क में नहीं थे, महज एक आरोप है और इस बात के सबूत हैं कि मिलिंद नार्वेकर और एमएलसी रवींद्र फाटक जैसे ठाकरे गुट के नेता शिंदे गुट के सदस्यों से मिलने के लिए सूरत गए थे.
स्पीकर ने यह भी कहा कि यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है कि शिंदे गुट के सदस्यों को 21 जून 2022 को ठाकरे गुट द्वारा बुलाई गई बैठक के बारे में सूचित किया गया था, जिसका दावा है कि शिंदे गुट ने कथित तौर पर व्हिप के आदेशों की अवहेलना करते हुए इसमें भाग नहीं लिया था.
नार्वेकर ने कहा, “एकमात्र मटीरियल व्हाट्सएप मैसेज है… यह बिल्कुल स्पष्ट है कि किसी को भी 21 जून 2022 को किसी भी बैठक के लिए कोई नोटिस नहीं दिया गया था.”
उन्होंने आगे कहा कि किसी बैठक में शामिल न होने को स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ने के रूप में नहीं माना जा सकता है, और अधिक से अधिक इसे पार्टी के भीतर असंतोष होना माना जा सकता है.
शिवसेना (यूबीटी) के विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं भी इसी तरह के आधार पर खारिज कर दी गईं – व्हिप दिए जाने के सबूत की कमी के कारण.
नार्वेकर ने कहा, “यद्यपि याचिकाकर्ता (शिंदे गुट) ने यह दिखाने की कोशिश की कि उक्त व्हिप भेजा गया लेकिन वे इसका सबूत पेश करने में असफल रहे. मुझे व्हिप को भौतिक रूप से पेश करने को लेकर काफी विसंगतियां मिलीं.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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