नई दिल्ली: पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल ने सोमवार को जब गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली, तो राजनीतिक गलियारों में इसे लेकर कोई संदेह नहीं था कि इसका सीधा संबंध उनकी पहचान से है.
भूपेंद्र पटेल कडवा पाटीदार परिवार से आते हैं, जो गुजरात के उस पाटीदार समुदाय का ही एक वर्ग है, जिसे सत्तारूढ़ भाजपा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले लुभाना चाहती हैं. उन्होंने जैन समुदाय के विजय रूपाणी की जगह ली है, जिन्होंने शनिवार को आश्चर्यजनक ढंग से इस्तीफा दे दिया था.
आखिरकार, भाजपा को क्यों एक ऐसे समुदाय की नाराजगी दूर करने पर ध्यान देना पड़ रहा है जिसकी प्रधानमंत्री के गृह राज्य की आबादी में हिस्सेदारी महज 13 प्रतिशत है? दिप्रिंट ने गुजरात के पाटीदार पटेलों पर पड़ताल की और यह पता लगाने की कोशिश की कि क्या बात उन्हें राज्य की सत्ता के गलियारों में एक महत्वपूर्ण ताकत बनाती है.
पटेल कौन हैं?
पाटीदार परंपरागत रूप से एक कृषि प्रधान समुदाय है. मौजूदा समय में वे एक आर्थिक ताकत भी हैं—इस समुदाय के लोगों ने फार्मास्यूटिकल्स, बंदरगाह विकास, इस्पात उद्योग और खाद्य व्यवसाय से लेकर अन्य सभी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व कायम कर रखा है.
पटेलों में दो प्रमुख उप-जातियां होती हैं जिन्हें लेउवा और कडवा कहा जाता है और जो क्रमशः भगवान राम के पुत्र लव और कुश के वंशज होने का दावा करते हैं. ऐतिहासिक रूप से लेउवा सौराष्ट्र और मध्य गुजरात में बसे हैं, जबकि कडवा पटेल मूलत: उत्तरी गुजरात के निवासी रहे हैं.
मूलत: कृषि से जुड़े इस समुदाय में ऐसे सदस्य भी थे जिनके पास जमीनों के पट्टों हुआ करते थे और इसी के कारण उन्हें पाटीदार नाम दिया गया. पटेल समुदाय व्यापक स्तर पर कृषि और संबंधित गतिविधियों से ही जुड़ा रहा है.
दोनों अलग कैसे हैं?
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रीति-रिवाजों और वित्तीय स्थिति में अंतर के कारण कडवा और लेउवा के बीच रिश्ते कभी बहुत सौहार्द्रपूर्ण नहीं रहे हैं.
लेउवा पटेल अपने कडवा समकक्षों की तुलना में आर्थिक स्तर पर ज्यादा मजबूत रहे हैं, क्योंकि वह भौगोलिक रूप से मध्य गुजरात में बसे थे जो संसाधन और आधुनिकता के असर के लिहाज से ज्यादा सम्पन्न क्षेत्र में आता है.
गुजरात यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले और जाति और राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर गौरांग जानी इन दोनों के बीच अंतर समझाते हुए कहते हैं, ‘दोनों उपजातियों की परंपराएं हमेशा थोड़ी अलग रही हैं, यही वजह है कि दोनों एक-दूसरे से थोड़ी थोड़ी बनाकर ही रखते हैं. लेउवा खोडल देवी की पूजा करते हैं और कडवा उमिया माता के भक्त होते हैं.
उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, लेउवा अपने ‘छा गाम’ यानी छह गांवों के भीतर ही शादी करने की प्रथा का पालन करते हैं.’
उन्होंने बताया, ‘जिन छह गांवों में कुछ सबसे अमीर लेउवा बसे थे, उनमें खेड़ा जिले के नदियाड, भद्रन, धर्मज, करमसाद, सोजित्रा और वासो और सावली शामिल हैं. आज भी अमीर लेउवा पटेल इन छह गांवों में ही शादी को तरजीह देते हैं.’
प्रोफेसर जानी के मुताबिक, कडवा ‘सट्टा पट्टा’ की प्रथा का भी पालन करते हैं, जिसमें दूल्हा-दुल्हन के साथ दूल्हे और दुल्हन के सगे या चचेरे भाई-बहनों की भी एक-दूसरे से शादी कराई जाती है.
भारत में शुरुआती समय में उनका उत्थान कैसे हुआ
प्रोफेसर जानी के मुताबिक, जाति पदानुक्रम में पटेलों के स्थान से उन्हें सबसे अधिक लाभ पहुंचाया.
जानी ने बताया, ‘पाटीदार कभी समाज के ब्राह्मणवादी ढांचे का हिस्सा नहीं थे, इसलिए विदेश जाने वाले तमाम लोगों में उनका आगे रहना और खुद को समक्ष बनाना ज्यादा आसान था. यही वजह है कि एक पाटीदार समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सरदार पटेल को विदेश जाकर पढ़ाई करने के अपने फैसले में उस तरह विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, जैसा एक बनिया समुदाय से आने वाले गांधी को करना पड़ा था.’
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पटेलों ने अफ्रीकी देशों की यात्रा की और फिर अंततः ब्रिटेन जैसे प्रगतिशील देशों में बसे, और यहां रहने वाले अपने समुदाय के लिए एक समृद्ध प्रवासी साबित हुए.
प्रोफेसर जानी ने बताया, ‘उनके ताकतवर बनकर उभरने का एक और कारण यह था कि मुगल और ब्रिटिश काल के दौरान पाटीदार कर संग्रह का काम करते थे, जिसने जाति पदानुक्रम में उन्हें एक अहम स्थान दिलाया.’
उन्होंने बताया, ‘उस समय वे गुजरात की 200 रियासतों के लोगों से राजस्व एकत्र करते थे. उच्च जाति के राजपूत जमींदार होते थे, पाटीदार अपने उत्थान के लिए खड़े हुए और अंततः उन्हीं जमीनों का स्वामित्व हासिल करने में सफल रहे.’
राजनीति विज्ञान और राजनीतिक समाजशास्त्र में विशेषज्ञता रखने वाले जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर घनश्याम शाह ने कहा कि कृषि मानदंडों ने समुदाय को आगे बढ़ाने में और मदद की.
शाह ने कहा, ‘गुजरात के पटेलों को 1955 के भूमि सुधार अधिनियम से काफी लाभ हुआ; इसके बाद हरित क्रांति ने पहले से ही संपन्न समुदाय की अगली पीढ़ी को और समृद्ध जमींदार बना दिया. दूरदराज के गांवों तक पानी पहुंचना और नकदी फसलों के चलन के साथ पाटीदार और भी ज्यादा अमीर हो गए.’
सत्ता में भागीदारी
भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान इस क्षेत्र से महात्मा गांधी और अपने समुदाय के सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं की मौजूदगी के कारण पटेलों ने इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर संगठित और राजनीतिक सक्रियता के साथ हिस्सा लिया.
इसका नतीजा आजादी के बाद उनके बेहतर पदों पर पहुंचने के तौर पर सामने आया.
राज्य की राजनीति में उनकी भागीदारी के बारे में बताते हुए अहमदाबाद स्थित लोकनीति सीएसडीएस की एक शोधकर्ता महाश्वेता जानी ने कहा, ‘1980 के दशक में गुजरात में भाजपा के उदय का कारण सौराष्ट्र पटेल समुदाय का समर्थन ही था. कांग्रेस की तरफ से भूस्वामी राजपूतों का समर्थन करने और खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) गठबंधन बनाए जाने से खासकर सौराष्ट्र क्षेत्र में अलग-थलग पड़े पटेलों ने भाजपा को अपना समर्थन दे दिया.
गुजरात में 1981 का आरक्षण विरोधी आंदोलन काफी हद तक भाजपा समर्थित था और इसमें नव शिक्षित पाटीदार युवा सबसे आगे थे. विशेषज्ञों का दावा है कि यही वह समय था जब भाजपा ने राज्य में अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी. 1990 में जनता दल उम्मीदवार चिमनभाई पटेल की राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति पटेलों की बढ़ती ताकत का प्रमाण थी.
शाह ने यह भी बताया कि कैसे यह समुदाय संख्या में कम होने के बावजूद राज्य की राजनीति में अब भी दबदबा रखता है.
उन्होंने कहा, ‘आर्थिक तौर समृद्धि हासिल करने के बाद उन्होंने अन्य क्षेत्रों में निवेश करना भी शुरू कर दिया. पटेल अब देश के कुछ सबसे बड़े उद्योगों के मालिक हैं. आप किसी भी क्षेत्र का नाम लें और वहां आपको एक पटेल व्यवसायी मिल जाएगा.’
महाश्वेता जानी ने कहा कि समुदाय के पास अकूत संपत्ति होना भी एक अहम फैक्टर है, क्योंकि पैसा ही सत्ता और राजनीतिक दलों को वोट में तब्दील होता है.
शाह का तर्क है कि राज्यभर में समुदाय के सदस्यों के बीच ‘एकता’ भी उन्हें काफी महत्वपूर्ण बनाती है. उन्होंने कहा, ‘अगर पटेलों को लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है या उन्हें दरकिनार किया गया है, तो वे जिस पार्टी को चुनना चाहते हैं, उसका समर्थन सुनिश्चित कर लेते हैं. पूरी पटेल आबादी उसी पार्टी के साथ खड़ी होगी और उसे ही वोट देगी जिसका उनके नेता समर्थन कर रहे होते हैं.’
उन्होंने आगे जोड़ा, आर्थिक समृद्धि आने के साथ उन्होंने समुदाय के गरीब और निराश्रित लोगों के लिए यूनिवर्सिटी और छात्रावास बनाने जैसे कल्याणकारी कार्यक्रम भी शुरू कर दिया. इससे समाज में एकता की भावना पैदा हुई.
2015 का पटेल आंदोलन
कुछ समय पहले की एक घटना जिसकी गूंज आज भी गुजरात की राजनीति में सुनाई देती है, वह है 2015 का पटेल आंदोलन. तब हजारों की संख्या में पाटीदार युवा सड़कों पर उतर पड़े थे.
हार्दिक पटेल के नेतृत्व वाली पाटीदार अनामत संघर्ष समिति की मांग थी कि ताकतवर पटेल समुदाय को सरकारी नौकरियों और कॉलेजों में आरक्षण दिया जाए.
गौरांग जानी ने कहा, ‘पाटीदार युवा राज्य में मोदी शासन के तहत रोजगार और शिक्षा के अवसर बढ़ने की उम्मीद कर रहे थे. लेकिन एक दशक के इंतजार के बाद भी कुछ ठोस हासिल न होने पर युवा सड़कों पर उतर आए और आरक्षण की मांग करने लगे. देश में सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान है, ये दोनों ही मानक पाटीदार पर लागू नहीं होते हैं.’
विरोध प्रदर्शन का मामला गुजरात हाई कोर्ट में पहुंच गया. कोर्ट ने 2016 में आरक्षण की मांग को खारिज कर दिया और हार्दिक पटेल को दंगे और आगजनी का दोषी पाया. उन्हें दो साल की सजा सुनाई गई.
2019 में जब तत्कालीन रूपाणी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को लागू किया तो हार्दिक पटेल ने यह कहते हुए आंदोलन समाप्त कर दिया कि आरक्षण अब पटेलों को समान मौका देगा.
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