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Thursday, 21 November, 2024
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प्रियंका के ‘माहौल’ में पहले ज़मीनी हकीकत जान लें कांग्रेसी

प्रियंका के आने से कांग्रेस को कितनी ऑक्सीजन मिलेगी देखना होगा. एक दौर था जब यूपी की सियासत में कांग्रेस का परचम था, लेकिन अब वह अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही है.

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लखनऊ: एक दौर था जब यूपी की सियासत में कांग्रेस का परचम था, लेकिन आज हालात ऐसे आ गए हैं जिस प्रदेश से कांग्रेस की शुरुआत हुई, वहीं पर अब अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही है. ऐसा कांग्रेस के इतिहास में पहला मौका होगा जब गांधी परिवार का कोई सदस्य यूपी कांग्रेस मुख्यालय पर लगातार 96 घंटे रुका हो. प्रियंका गांधी ने 11 से 15 फरवरी के बीच 96 घंटे लखनऊ में बिताए. 16-16 घंटे मीटिंग की. देशभर का मीडिया प्रियंका के पहले यूपी टूर को कवर करने पहुंचा. माहौल खूब बना, कार्यकर्ताओं में भी जोश दिखा. लेकिन आखिरकार कांग्रेस को यूपी में ‘प्रियंका कार्ड’ क्यों चलना पड़ा और ये चुनौती प्रियंका के लिए किस हद तक कठिन होने वाली है. इसके लिए यूपी में कांग्रेस की मौजूदा ज़मीनी स्थिति क्या है ये जानना भी ज़रूरी है.

लगातार हार से कार्यकर्ताओं का पलायन

एक वक्त था जब न सिर्फ केंद्र में बल्कि राज्य में भी लगातार कांग्रेस की सरकार बनती रही, लेकिन 1989 में इस पर ब्रेक लग गया. इसके बाद राम मंदिर आंदोलन से बीजेपी का उठना रहा हो या उसे चुनौती देने के लिए मुलायम-कांशीराम का एक हो जाना हो. इन परिस्थितियों ने कांग्रेस को सत्ता से दूर ही कर दिया. बीजेपी के बाद सपा व बसपा का दौर भी आया, लेकिन कांग्रेस तब से अभी तक इंतज़ार में ही है. वहीं दूसरी ओर पार्टी का संगठन कमज़ोर होता गया. हालात ये हो गए हैं कि साल 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस महज दो सीटें ही जीत पाई. ये दो सीटें भी अपने गढ़ रायबरेली-अमेठी की थीं. वहीं 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 7 सीटों पर ही विजय हासिल कर सकी. लगातार मिल रही करारी हार के कारण संगठन भी बिखर गया. रीता बहुगुणा जोशी समेत कई नेता दूसरे दलों में चले गए. अधिकतर कार्यकर्ताओं ने भी पलायन कर लिया.

कांग्रेस का प्रदर्शन (पिछले 15 वर्षों में)

साल – चुनाव – कुल सीटें (जीत)
2004 लोकसभा चुनाव -14
2007-विधानसभा चुनाव- 22
2009 -लोकसभा चुनाव-21
2012- विधानसभा चुनाव-28
2014- लोकसभा चुनाव- 2
2017- विधानसभा चुनाव-7

भाजपा की धार, सपा- बसपा की पकड़ कांग्रेस पर भारी

राम मंदिर आंदोलन से बीजेपी यूपी में खड़ी हो गई. न सिर्फ सरकार बनाई, बल्कि हर ज़िले में खुद को मज़बूत कर लिया. वहीं मुलायम-कांशीराम का गठबंधन टूटने के बाद भी सपा व बसपा कमज़ोर नहीं हुईं, बल्कि संगठन को बल दिया और कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर दी. तीनों ही दलों ने अपना वोट बैंक भी तैयार कर लिया. एक समय पर कांग्रेस का कोर वोट माने जाने वाले ब्राह्मण, मुस्लिम व दलित उससे दूर होते गए. कुछ सीटें छोड़ हर जगह कांग्रेस का प्रभाव कम होता चला गया. हालात ये आ गए कि 2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 5वें नंबर की पार्टी बन गई. अपना दल के भी उससे ज़्यादा विधायक जीत गए. लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर कविराज का कहना है कि बीजेपी, सपा व बसपा ने अपने कार्यकर्ताओं का कैडर तैयार किया. तमाम जातीय सम्मेलन व कार्यक्रमों के ज़रिए पार्टी से जोड़ा. वहीं कांग्रेस ने इस पर ज़्यादा फोकस नहीं किया. दूसरी तरफ अंदरूनी कलह ने भी कांग्रेस को यूपी में काफी कमज़ोर कर दिया.

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प्रियंका के जाने के बाद कांग्रेस आॅफिस के बाहर सन्नाटा, ये तस्वीर बहुत कुछ कहती है | प्रशांत श्रीवास्तव

कई ज़िलों में को-ऑर्डिनेशन का कन्फ्यूजन

यूपी कांग्रेस में प्रदेश व ज़िला स्तर पर को-ऑर्डिनेशन में काफी कन्फ्यूज़न दिखता है. आगरा, आज़मगढ़ समेत 14 ज़िलों में ज़िला अध्यक्ष, नगर अध्यक्ष के अलावा कार्यवाहक अध्यक्ष भी हैं. सूत्रों की मानें तो ज़िला कमेटी के सदस्यों में भी इस बात का कन्फ्यूजन है कि किसका आदेश मानें और किसका न मानें. वहीं माना जा रहा था कि प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर को नई पीसीसी (प्रदेश कांग्रेस कमेटी) की टीम मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्हें फ्री-हैंड नहीं दिया गया. उन्होंने अपने स्तर पर कुछ बदलाव ज़रूर किए, लेकिन फिर भी यूपी कांग्रेस के हालात नहीं बदल पाए हैं.

वरिष्ठ नेताओं का रोल ही नहीं क्लीयर!

यूपी कांग्रेस में राज्यसभा सांसद संजय सिंह, पीएल पुनिया, पूर्व सांसद प्रमोद तिवारी, निर्मल खत्री, बसपा से आए वरिष्ठ नेता नसीमुद्दीन समेत तमाम दिग्गज नेता हैं, लेकिन 2019 के चुनाव में यूपी में इनकी क्या भूमिका होगी ये अभी साफ नहीं हुआ है. ये नेता भी अभी इस पर कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं शायद उन्हें भी नहीं पता कि पार्टी की ओर से उन्हें क्या रोल मिलेगा. इसके अलावा अंदरूनी कलह भी कांग्रेस के कमज़ोर होने की अहम वजह मानी जाती है. कई नेताओं पर पार्टी से ज़्यादा ‘सेल्फ ब्रैंडिंग’ को तरजीह देने का आरोप है. पूर्व प्रदेश प्रभारी गुलाम नबी आज़ाद भी इस ट्रेंड को नहीं बदल पाए. यही कारण है कि आलाकमान को अंतत: प्रियंका गांधी व ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमान सौंपनी पड़ी.

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कार्यकर्ताओं के साथ प्रियंका गांधी | प्रशांत श्रीवास्तव

जिन कार्यकर्ताओं की नहीं हुई मुलाकात

कई कार्यकर्ता ऐसे भी रहे जो प्रियंका के टूर के दौरान नाराज़ दिखे. दरअसल इन्हें मिलने का मौका नहीं मिला. हालांकि इनकी शिकायत प्रियंका से नहीं अपने-अपने ज़िलाध्यक्षों से दिखी. ये नाराज़गी अगर दूर नहीं की गई तो पार्टी में गुटबाज़ी भी बढ़ा सकती है. प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय पर आजमगढ़ से आए दर्जन भर पदाधिकारी व कार्यकर्ता अपने ही ज़िलाध्यक्ष के खिलाफ नारेबाज़ी कर रहे थे. इनमें महिला कार्यकर्ता भी थीं. प्रदर्शन करने वालों का कहना था कि ज़िलाध्यक्ष नहीं चाहते कि कांग्रेस वहां मज़बूत हो. हमें प्रियंका जी से मिलने नहीं दिया गया.

सोशल मीडिया पर भी कमज़ोर

यूपी कांग्रेस का फेसबुक व ट्वीटर पर अकाउंट तो है, लेकिन लगातार अपडेट नहीं होता. इसके अलावा भाजपा या सपा की तुलना में मज़बूत आईटी सेल भी नहीं है जो लगातार अपडेट करती रहे. हाल ये है कि कांग्रेस नेताओं पर सोशल मीडिया टीम के नाम पर बताने को कुछ खास नहीं है. सब बस इसी उम्मीद में हैं कि प्रियंका गांधी के आने के बाद नई टीम भी आएगी. ये टीम कब आएगी किसी को नहीं पता.

मीटिंग के दौरान टीम प्रियंका ने टिकट के उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि जानने के अलावा वो वाट्सऐप और ट्विटर पर कार्यकर्ताओं की सक्रियता की भी जानकारी ली गई. इससे उम्मीद ज़रूर जगी है कि शायद कांग्रेस यूपी में अब सोशल मीडिया पर ज़रूर फोकस रखे. इसके साथ ही कार्यकर्ताओं से संपर्क के लिए प्रियंका गांधी की टीम ने ने एक वाट्सऐप ग्रुप भी बनाया है. इस ग्रुप का नाम उन्होंने ‘चौपाल’ रखा है. उन्होंने कार्यकर्ताओं से हर बूथ पर 10-10 कार्यकर्ताओं को जोड़ने के लिए कहा है.

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प्रियंका गांधी के साथ पश्चिमी यूपी के चुनाव प्रभारी ज्योतिरादित्य सिंधिया व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर | प्रशांत श्रीवास्तव

पश्चिम में ज़्यादा कमज़ोर कांग्रेस

प्रियंका को पूर्वी यूपी की ज़िम्मेदारी मिली है जिसमें अवध क्षेत्र भी आता है जहां कई सीटों पर कांग्रेस की स्थिति बेहतर है. वहीं पार्टी पर कई चेहरे भी हैं. वहीं ज्योतिरादित्य को पश्चिम यूपी की कमान मिली है जहां पिछले दो दशक से कांग्रेस की पकड़ बेहद कमज़ोर है. सहारनपुर, मुरादाबाद जैसे एक-दो ज़िलों को छोड़ दें तो ज़्यादातर जगह कांग्रेस से ज़्यादा मज़बूत सपा-बसपा या आरएलडी दिखी है. हालांकि राहुल गांधी अपने स्तर से वेस्टर्न यूपी में गंभीर मुद्दे पर सक्रिय रहे. किसानों की ज़मीन अधिगृहण के मुद्दे पर भट्टा-पारसौल में आंदोलन का हिस्सा बने सहारनपुर के दलित उत्पीड़न के मामले में भी आवाज़ उठाई, लेकिन तमाम प्रयास के बाद भी कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक मज़बूती नहीं मिली. साल 2014 लोकसभा चुनाव में तो पार्टी एक सीट भी पश्चिम यूपी में नहीं जीत पाई. ऐसे में दोनों नेताओं पर पूरे प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने की चुनोती है.

2019 से 2022 तक की चुनौतियां

2019 लोकसभा चुनाव तो करीब हैं लेकिन प्रियंका के जेहन में 2022 यूपी विधानसभा चुनाव भी हैं. इस बात का संकेत खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों लखनऊ में रोड शो के दौरान दिया था. उन्होंने कहा था कि वह 2022 में यूपी में कांग्रेस की सरकार देखना चाहते हैं.

दरअसल 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी की कुल 403 सीटों में से कांग्रेस को केवल 7 सीटें मिली थीं. ऐसे में, कांग्रेस नेताओं को उम्मीद है कि यदि प्रियंका गांधी को बतौर सीएम फेस आगामी विधानसभा चुनाव में पेश किया जाता है तो इससे पार्टी को सियासी संजीवनी मिलेगी. अगर अतीत पर गौर करें तो वर्ष 1989 के बाद से ही कांग्रेस पार्टी यूपी में एक सियासी वनवास के दौर से गुज़र रही है. अब तीस साल के करीब हो रहे हैं और कांग्रेस हर रोज़ सिमटती जा रही है. ऐसे में प्रियंका को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.

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किसान समित आगरा के प्रतिनिधियों से मिलतीं प्रियंका गांधी | प्रशांत श्रीवास्तव

टीम बदलने के मूड में नहीं प्रियंका

कांग्रेस से जुड़े सूत्रों का कहना है कि लोकसभा चुनाव तक प्रियंका संगठन में बड़े फेरबदल के मूड में नहीं हैं. उन्होंने नाराज़ चल रहे कई जिलों के कार्यकर्ताओं से अपने जिलाध्यक्ष को पूरा समर्थन देने की अपील की है. पदाधिकारियों को लेकर ज़िले-ज़िले से खूब शिकायत हुईं. कार्यकर्ताओं ने बताया कि कुछ बड़ों ने किस तरह संगठन के पदों पर कब्ज़ा कर लिया है. कार्यकर्ताओं ने समस्याएं भी खूब बताईं.

इंदिरा की छवि दूर रखने की कोशिश

रोड शो के दौरान कई कांग्रेसियों को उम्मीद थी कि प्रियंका इंदिरा गांधी की तरह साड़ी वाले लुक में दिखेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रियंका उस छवि में फिलहाल ढलना नहीं चाहतीं. इसका दूसरा कारण ये भी है कि कई विरोधी नेताओं ने ये भी कहा था कि कांग्रेस जान बूझकर प्रियंका को इंदिरा वाली छवि दिखाने की कोशिश करेगी. इसको लेकर बीजेपी नेताओं द्वारा तमाम टिप्पणियां भी की गईं थीं. प्रियंका न साड़ी में आईं न जींस-टॉप में..वह सूट में दिखीं और पूरे दौरे के दौरान अपने अंदाज़ को सबसे अलग रखा.

प्रियंका की क्या है रणनीति

प्रियंका गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को लोकसभा चुनाव जीतने की रणनीति समझाई. कहा-सबसे ज़्यादा ध्यान युवाओं और महिलाओं पर देने की ज़रूरत है क्योंकि, मोदी सरकार व योगी सरकार की जनविरोधी नीतियों से सबसे ज़्यादा वे प्रभावित हो रहे हैं.

उत्तर प्रदेश की सियासी रणभूमि प्रियंका गांधी के लिए नई नहीं है. 1999 से प्रियंका रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार की कमान संभालती रही हैं. इसके चलते आसपास के ज़िलों में भी उनका प्रभाव रहा है. दोनों जिलों के संगठन और क्षेत्र के लोगों से लगातार संपर्क बनाए रखती हैं. सूबे में ‘प्रियंका लाओ-यूपी बचाओ’ के पोस्टर कई बार लग चुके हैं.

दूसरे दलों की क्या है राय

वहीं बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय ने हाल ही में पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा था कि प्रियंका गांधी के आने से बीजेपी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. उन्होंने कहा कि परिवार से ऊपर उठकर कांग्रेस का कोई सामर्थ्य नहीं है. पांडेय ने गांधी परिवार पर हमला बोलते हुए कहा कि प्रियंका गांधी पहले भी राजनीति में निष्प्रभावी रही हैं. वहीं सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि प्रियंका गांधी का राजनीति में स्वागत है लेकिन वह खुलकर कुछ नहीं बोले.

अब जग रही है कांग्रेसियों में उम्मीद

वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राम कृष्ण द्विवेदी का कहना है कि प्रियंका यूपी कांग्रेस के लिए नई उम्मीद लेकर आई हैं .उन्हें उम्मीद है कि कांग्रेस के ‘अच्छे दिन’ लौटेंगे. पिछले कुछ साल से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और नेताओं का दूसरी पार्टियों में पलायन का सिलसिला चल रहा है, प्रियंका क्या इस धारा को उल्टी दिशा में मोड़ पाएंगी. इस पर कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता अंशू अवस्थी कहते हैं कि प्रियंका जी का ही असर है कि सुबह 5.30 तक कार्यकर्ता उनसे मिलने के लिए रुके रहे.कई कार्यकर्ता तो भावुक भी हो गए. वहीं प्रदेश प्रवक्ता अशोक सिंह का भी कहना है कि ये 96 घंटे यूपी कांग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव लाने जा रहे हैं.

छोटे दलों संग गठबंधन करेगी कांग्रेस

यूपी में कांग्रेस लगभग 65-70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार सकती है. बाकि सीटों पर छोटे दलों से गठबंधन की बातचीत चल रही है. इसमें शिवपाल यादव की प्रसपा भी शामिल हैं. जल्द ही इस पर मुहर लग सकती है. प्रियंका की एंट्री से बीजेपी के भी दो नेताओं ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है. अवतार सिंह भडाना फरीदाबाद और मेरठ से चार बार सांसद रह चुके हैं. वहीं रामलाल राही पूर्व मंत्री हैं और उनके बेटे सुरेश राही सीतापुर ज़िले के हर गांव से बीजेपी के विधायक हैं. कई और नेता भी कांग्रेस के संपर्क में हैं.

इन सीटों पर विशेष फोकस

कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के मुताबिक यूं तो सभी लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतारने की योजना है लेकिन 30 सीटों विशेष फोकस रहने वाला है. इनमें 2009 लोकसभा चुनाव में मिलीं 22 सीटों (21+1) भी शामिल हैं. 2009 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 21 सीटें जीती थीं. बाद में फिरोज़ाबाद उपचुनाव में राजबब्बर को मिली जीत के बाद ये संख्या बढ़कर 22 हो गई थी. इसके अलावा 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी जिन सीटों पर नंबर दो या नंबर तीन पर आई थी उन पर भी विशेष फोकस रहेगा. ऐसी 30 सीटों की लिस्ट भी तैयार की गई है जहां पार्टी का संगठन मज़बूत है और पूर्व में जीत का रिकाॅर्ड ठीक रहा है.

इन सीटों पर 2009 में दर्ज की थी जीत

रायबरेली, अमेठी, मुरादाबाद, धौरारा, खीरी, बाराबंकी, उन्नाव, बरेली, फिरोज़ाबाद(उपचुनाव), सुलतानपुर, प्रतापगढ़, फर्रुखाबाद, कानपुर, अकबरपुर, झांसी, बहराइच, फैज़ाबाद, श्रावस्ती, गोंडा, डुमरियागंज , महाराजगंज, पडरौना

कुछ अन्य सीटों पर भी फोकस

2009 की सीटों के अलावा कई अन्य सीटें भी हैं जिन पर कांग्रेस का विशेष फोकस है.

फतेहपुर सीकरी -(राज बब्बर लड़ सकते हैं चुनाव)
प्रयागराज/लखनऊ- शहरी सीट (प्रमोद तिवारी लड़ सकते हैं)
मिर्जापुर – (ललितेश पति त्रिपाठी लड़ सकते हैं चुनाव)
वाराणसी -( नरेंद्र मोदी को मजबूत चुनौती देने की प्लानिंग)
सहारनपुर -( 2014 में इस सीट पर नंबर 2 पर थी कांग्रेस, इमरान मसूद लड़ सकते हैं चुनाव)

 

आगे हैं तमाम चुनौतियां

कांग्रेस भले ही 30 सीटों पर विशेष फोकस करे लेकिन ज़मीनी हकीकत तो ये कहती है कि रायबरेली, अमेठी के अलावा कोई भी तीसरी सीट ऐसी नहीं जिस पर कांग्रेस का जीतना तय लग रहा हो. कई सीटों पर मौजदा सांसदों के प्रति लोगों में आक्रोश है लेकिन कांग्रेस उसे पूरी तरह से भुना पाए इसमें महागठबंधन का पेंच फंस रहा है. यानि अधिकतर सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला है जिसने कांग्रेस नेताओं की सांसें अटकी हैं. वहीं प्रियंका को 41 सीटों की ज़िम्मेदारी दी गई है जिनमें कई पर भाजपा बहुत मज़बूत हैं.पीएम नरेंद्र मोदी मोदी की वाराणसी और सीएम योगी आदित्यनाथ की गोरखपुर सीट भी इसी इलाके में हैं. चुनाव में वक्त भी कम है, लिहाजा प्रियंका के सामने चुनौतियां ढेर सारी हैं.

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