लखनऊ: उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जाति आधारित राजनीतिक रैलियों पर रोक लगाने वाला नोटिफिकेशन जारी करने के दो दिन बाद ही विपक्षी पार्टियां इससे निपटने के तरीके तलाशने में जुट गई हैं.
समाजवादी पार्टी ने, उदाहरण के लिए अपनी प्रस्तावित गुर्जर चौपालों का नाम बदलकर पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) चौपाल रखने का फैसला किया है.
कांग्रेस समाजिक न्याय सम्मेलन करने की योजना बना रही है, जबकि बसपा बहुजन समाज बैठकें आयोजित करने पर जोर दे रही है, ताकि जाति-विशेष शब्दों से बचा जा सके.
सपा के प्रवक्ता और गुर्जर चौपालों के आयोजक राजकुमार भाटी ने कहा, “हमने फिलहाल अपनी बैठकों का नाम गुर्जर चौपाल से बदलकर पीडीए चौपाल कर दिया है. नवंबर में हमारी प्रस्तावित रैली, जिसमें अखिलेश जी शामिल होंगे, उसका नाम हम ‘पीडीए एकता रैली’ रख सकते हैं. हम जाति का ज़िक्र छोड़ रहे हैं क्योंकि यह तानाशाही सरकार हमारे कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे ठोक सकती है. हम उन्हें वह मौका नहीं देना चाहते. हमें हाई कोर्ट के आदेश से आपत्ति नहीं है, लेकिन यह सरकार एक कदम आगे बढ़ गई है और जाति आधारित चौपालों पर भी रोक लगा दी है क्योंकि इन्हें पता है कि ओबीसी और दलित इनके खिलाफ एकजुट हो रहे हैं. हमारी पार्टी ने 50 से ज्यादा चौपाल करने की योजना बनाई थी.”
इसी तरह, यूपी कांग्रेस भी अपने कार्यक्रम में बदलाव कर रही है. कांग्रेस महाराजा बिजली पासी जो पासी समाज के राजा माने जाते हैं और जिनका राज्य आज के उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक फैला था उनके नाम पर सभा करने जा रही थी. अब पार्टी ने इसे समाजिक न्याय सम्मेलन के रूप में आयोजित करने का फैसला लिया है.
यूपी कांग्रेस प्रवक्ता सचिन रावत ने दिप्रिंट से कहा, “25 दिसंबर को हम महाराजा बिजली पासी के नाम से कार्यक्रम करने की योजना बना रहे हैं. वह पासी समाज के प्रतीक हैं. पहले इसे ‘पासी सम्मेलन’ कहा जाना था, लेकिन अब हम इसे किसी और नाम से करेंगे, क्योंकि सरकार अन्यथा अनुमति नहीं देगी.”
सूत्रों के अनुसार बसपा ने भी अपने कार्यकर्ताओं को जाति-विशेष सम्मेलनों की जगह बहुजन समाज बैठकें शब्द इस्तेमाल करने की सलाह दी है.
HC के आदेश के बाद सरकार का फैसला
उत्तर प्रदेश सरकार ने रविवार को नोटिफिकेशन जारी कर पुलिस दस्तावेजों, सरकारी फॉर्मेट, गाड़ियों और सार्वजनिक रैलियों में जाति के ज़िक्र पर रोक लगा दी. यह आदेश इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले के पालन में जारी किया गया, जिसमें जाति महिमामंडन को “राष्ट्रविरोधी” और संवैधानिक मर्यादा के खिलाफ बताया गया था.
मुख्य सचिव दीपक कुमार ने सभी विभागों को आदेश दिया कि अब एफआईआर, गिरफ्तारी मेमो या अन्य पुलिस दस्तावेज़ में जाति का ज़िक्र नहीं होगा. पहचान के लिए माता-पिता का नाम इस्तेमाल किया जाएगा.
आदेश में यह भी कहा गया कि थानों के नोटिस बोर्ड, गाड़ियों और साइनबोर्ड से तुरंत जाति आधारित प्रतीक, नारे और संदर्भ हटाए जाएं.
हालांकि, हाई कोर्ट ने जाति आधारित रैलियों पर सीधे रोक नहीं लगाई थी, लेकिन सरकार ने इस पर भी प्रतिबंध लगा दिया है.
जिलाधिकारियों और पुलिस प्रमुखों को भेजे गए 10 बिंदुओं वाले निर्देश में कहा गया कि जाति आधारित राजनीतिक रैलियां सार्वजनिक व्यवस्था बिगाड़ती हैं. इसके साथ ही साइनबोर्ड, सोशल मीडिया और अन्य सार्वजनिक मंचों पर जाति आधारित संदेशों पर भी रोक लगा दी गई है.
इस फैसले ने राज्य में तीखी राजनीतिक बहस छेड़ दी है. विपक्षी दल सरकार के रुख का जोरदार विरोध कर रहे हैं.
समाजवादी पार्टी (सपा) अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक्स पर पूछा, “हमारे मन में 5,000 साल से जमी जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए क्या किया जाएगा और कपड़ों, वेशभूषा और प्रतीकों के ज़रिये दिखाए जाने वाले जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे?”
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस फैसले का सबसे ज्यादा असर बसपा और सपा पर पड़ेगा. बसपा अपनी दलित एकजुटता वाली रैलियों पर निर्भर है, जबकि सपा की सबसे बड़ी ताकत यादवों को ऐसे आयोजनों में जुटाने से आती है.
राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) पर इसका असर मध्यम रहेगा, क्योंकि वह ज्यादा जाति-केंद्रित रैलियां नहीं करता, लेकिन निषाद पार्टी, सुभासपा और अपना दल जैसी छोटी पार्टियों की पूरी राजनीति जातिगत पहचान के इर्द-गिर्द घूमती है.
लखनऊ यूनिवर्सिटी के राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर कविराज ने कहा, “यूपी सरकार का यह फैसला सिर्फ विपक्ष के लिए मुश्किलें नहीं खड़ी करेगा. हमने देखा कि 2022 के चुनाव में बीजेपी ने भी जाति आधारित बैठकें की थीं. तो यह सिर्फ एक पार्टी का मुद्दा नहीं है. देखना होगा कि पार्टियां इसके विकल्प के तौर पर क्या रणनीति बनाती हैं. यूपी की राजनीति में जाति अब भी अहम है और सभी दलों को इसके हिसाब से तैयारी करनी होगी.”
बीजेपी के सहयोगी दलों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधी, लेकिन पार्टी प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने कहा, “हम सरकार के फैसले का पूरा समर्थन करते हैं. बीजेपी जाति आधारित राजनीति को बढ़ावा नहीं देती. कुछ दल राजनीति के नाम पर सिर्फ सामाजिक वैमनस्य को भड़काना चाहते हैं.”
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