देहरादून: 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग करके उत्तराखंड राज्य गठित किए जाने के बाद से यहां बारी-बारी से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकारें बनती रही हैं. हालांकि, इस बार 14 फरवरी को होने जा रहे विधानसभा चुनावों में सफलता के लिए कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ आम आदमी पार्टी और राज्य के सबसे पुराने क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) ने भी पूरी ताकत झोंक रखी है.
खासकर यूकेडी को पूरी उम्मीद है कि वह इस बार चुनावी राजनीति में बेहतर प्रदर्शन करने में सफल रहेगी.
वर्ष 2000 में तीन नए राज्यों—उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड का गठन हुआ था. झारखंड में जहां क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने शुरू से ही खुद को एक मजबूत राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित कर लिया. वहीं, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में क्षेत्रीय दल इतने सालों में कोई खास राजनीतिक प्रभाव नहीं छोड़ पाए.
हालांकि, इस साल यूकेडी ने 70 विधानसभा क्षेत्रों में से 49 में अपने उम्मीदवार उतारे हैं और दो सीटों पर उम्मीदवारों को समर्थन भी दिया है. अलग पहाड़ी राज्य के गठन के लिए संघर्ष की अगुआई करने वाली इस पार्टी को उम्मीद है कि वह इस बार चुनावी राजनीति में अपनी पैठ बना पाएगी.
दिप्रिंट ने काशी सिंह ऐरी से बात की, जिन्होंने डी.डी. पंत के साथ मिलकर 25 जुलाई, 1979 को मसूरी में यूकेडी की स्थापना की थी. कुमाऊं यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति पंत इस पार्टी के पहले अध्यक्ष बने थे. ऐरी ने कहा कि पार्टी का उद्देश्य एक अलग पहाड़ी राज्य के गठन के लिए एक आंदोलन शुरू करना था. पार्टी नेता ने याद दिलाया कि उनके नेतृत्व में ही पार्टी ने पृथक राज्य का आंदोलन शुरू किया था. यह पहला मौका है जब ऐरी उत्तराखंड चुनाव में खुद मैदान में नहीं उतरे हैं.
ऐरी ने कहा कि पार्टी ने उत्तराखंड के गठन में अहम भूमिका निभाई थी और अगर उसने पहल नहीं की होती तो यह बस एक सपना बनकर रह जाता. लेकिन वह मानते हैं कि चूंकि उनका आंदोलन पृथक राज्य के गठन पर ज्यादा केंद्रित था, इसलिए उन्होंने चुनावी राजनीति के बारे में ज्यादा नहीं सोचा और यहां तक कि 1996 के यूपी चुनाव (उत्तराखंड के गठन से पहले यूपी में आखिरी विधानसभा चुनाव) का उन्होंने बहिष्कार भी किया था.
ऐरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमें इन चुनावों में अच्छे प्रदर्शन का पूरा भरोसा है क्योंकि उत्तराखंड के लोगों ने महसूस किया है कि राष्ट्रीय पार्टियों को इनके हितों की कोई परवाह नहीं है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘पार्टी ने सामूहिक रूप से फैसला किया कि मुझे चुनाव नहीं लड़ना चाहिए क्योंकि इससे मुझे विभिन्न क्षेत्रों का दौरा करने का मौका मिलेगा और सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहूंगा. साथ ही हमारे पास उतना धन भी नहीं है जितना अब चुनावों में खर्च किया जाता है.’
उन्होंने कहा, ‘मैं राज्य का दौरा करता रहा हूं और लोग हमें एक मौका देने को तैयार हैं क्योंकि उन्होंने महसूस किया है कि राज्य गठन के 20 सालों बाद भी स्थिति (राज्य और लोगों की) में कोई बदलाव नहीं आया है. हम पिछले कुछ चुनावों में जीत हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाए थे क्योंकि पार्टी एकजुट नहीं थी और इसने हमारे प्रचार को प्रभावित किया. हम सब अब एकजुट और जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं. हम पलायन (पहाड़ी क्षेत्रों से) और सड़क संपर्क जैसे स्थानीय मुद्दों को उठाते रहे हैं जो उत्तराखंड के लोगों के लिए ज्याद मायने रखते हैं.’
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सूत्रों के मुताबिक, ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में जहां मुकाबला मुख्य तौर पर कांग्रेस और भाजपा के बीच है, वहीं देवप्रयाग और द्वाराहाट जैसे कुछ इलाकों में यूकेडी अच्छी टक्कर दे रहा है.
यूकेडी के राष्ट्रीय प्रवक्ता विजय कुमार बौरी ने दिप्रिंट से कहा कि 1996 के यूपी विधानसभा चुनावों के बहिष्कार का पार्टी का फैसला राज्य के गठन के लिए तो निर्णायक साबित हुआ लेकिन इससे पार्टी को राजनीतिक तौर पर इससे खासी क्षति पहुंची. वह इस फैसले को एक बड़ी गलती मानते हैं.
बौरी ने कहा, ‘यूकेडी ने एक साहसिक निर्णय लिया था कि वह तभी चुनाव लड़ेगी जब उत्तराखंड को राज्य का दर्जा देने की उसकी मांग पूरी हो जाएगी. लेकिन अंतत: हम इसे एक बड़ी गलती कह सकते हैं. हमें चुनाव लड़ना चाहिए था क्योंकि इससे हम राजनीतिक रूप से मजबूत होते. बहरहाल, आज अगर हमारे पास उत्तराखंड है तो यह यूकेडी के प्रयासों का ही नतीजा है.’
उन्होंने कहा, ‘हमारे बहुत से उत्साही और कर्मठ पार्टी कार्यकर्ताओं ने (1996 में) भाजपा और कांग्रेस में शामिल होने का फैसला किया था.’
पार्टी नेताओं का दावा है कि उत्तराखंड की राजनीति में आप के आने से निश्चित तौर पर उन्हें और मजबूती मिली है. यूकेडी कभी अपने दम पर बहुमत हासिल करने के करीब नहीं पहुंची और 2017 के पिछले विधानसभा चुनावों में यह एक भी सीट जीतने में नाकाम रही थी. 2007 में जब भाजपा ने 34 सीटें जीती थीं, यूकेडी के दो विधायकों और एक निर्दलीय विधायक ने उसे समर्थन देने का फैसला किया था. इसी तरह, 2012 में जब कांग्रेस बहुमत से थोड़ा पीछे थी तब भी यूकेडी ने उसे अपना समर्थन दिया था.
हालांकि, पार्टी का वोट शेयर लगातार गिर रहा है, यह 2002 और 2007 में 5.49 प्रतिशत था जो 2012 में घटकर 1.93 प्रतिशत और 2017 में मात्र 0.7 प्रतिशत रह गया. हालांकि, बौरी ने कहा कि इस बार उनकी पार्टी अच्छे प्रदर्शन के लिए पूरी तरह आश्वस्त है और उत्तराखंड विधानसभा में अपनी जगह बनाने में सफल रहेगी.
उन्होंने आगे कहा, ‘लोग राष्ट्रीय दलों से ऊब चुके हैं. आप की एंट्री ने लोगों को यह भी दिखा दिया है कि उन्हें उत्तराखंड में दिल्ली की एक और पार्टी को पैठ क्यों नहीं बनाने देनी चाहिए. हम उत्तराखंड में एकमात्र क्षेत्रीय दल हैं और हम राज्य की चिंताओं को समझते हैं. आप के आने से इस बात को लेकर भी सुगबुगाहट तेज हुई है कि बाहरी लोगों के बजाये क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करना चाहिए.’
ऐरी ने भी कहा कि हाल में उत्तराखंड में देश के बाकी हिस्सों की तरह ही क्षेत्रवाद की भावनाएं बढ़ी हैं, जिससे उन्हें चुनाव में मदद मिलने की पूरी उम्मीद है.
उत्तराखंड गठन के बाद दो दशकों में यूकेडी के एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने में नाकाम रहने के बारे में पूछे जाने पर ऐरी ने माना कि कुछ राजनीतिक फैसले पार्टी के खिलाफ गए.
उन्होंने कहा, ‘यहां बहुत गुटबाजी थी, जिसे हम अब जाकर दूर कर पाए हैं. साथ ही पर्याप्त संसाधनों के अभाव में हमारे लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल हो गया था. इसकी वजह से ही भाजपा मजबूत हुई. लेकिन अब सब कुछ बदल जाएगा.’
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