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Wednesday, 17 April, 2024
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एम.के. स्टालिन से लेकर आदित्य ठाकरे तक- भारत में कैसे पिता की वजह से पुत्रों को मिली राजनीतिक बढ़त

पिछले हफ्ते, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने अपने पुत्र उधयनिधि को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह अपेक्षाकृत नया ट्रेंड है जो राजनीति को ‘पतन’ की ओर ले जाएगा.

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नई दिल्ली: पिछले हफ्ते तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने अपने बेटे उदयनिधि को राज्य मंत्रिमंडल में शामिल किया. यह ऐसा कदम है जिसकी अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्नाद्रमुक) जैसे विपक्षी दलों की तरफ से कड़ी आलोचना की गई है.

हालांकि, उदयनिधि राज्य मंत्रिमंडल में इस तरह शामिल होने वाले परिवार के पहले सदस्य नहीं हैं, उनके पिता और द्रमुक प्रमुख स्टालिन को भी 2006 में पहली बार उस समय मंत्रिमंडल में जगह मिली थी जब उनके पिता एम. करुणानिधि राज्य के मुख्यमंत्री थे.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह पिछले कुछ दशकों में उभरा ‘अपेक्षाकृत नया ट्रेंड’ है और राजनीतिक दलों के ‘पतन’ की ओर बढ़ने का संकेत है.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, स्तंभकार और जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की पूर्व प्रोफेसर सुधा पई ने दिप्रिंट से कहा, ‘लोकतंत्र में यह कोई बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है क्योंकि, जैसा अन्नाद्रमुक ने कहा है—स्टालिन के बेटे को कैबिनेट में तुरंत ही नंबर दो की हैसियत मिल जाती है, भले ही उसे इसके लिए नामित किया गया हो या नहीं. आखिरकार इससे पार्टी को नुकसान ही होगा.’

हालांकि, पई ने यह भी कहा कि ऐसी व्यवस्था ‘हमेशा नकारात्मक’ नहीं होती है.’

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उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह अलग-अलग जगहों पर (अलग-अलग लोगों के लिए) अलग-अलग तरीके से काम कर सकता है.’

कई क्षेत्रीय दलों में पिता-पुत्र के मिलकर सरकार चलाने की व्यवस्था सामने आती है—चाहे महाराष्ट्र में शिवसेना के आदित्य ठाकरे का मंत्रिमंडल का हिस्सा बनना रहा हो या तेलंगाना मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के पुत्र के.टी. रामा राव की मौजूदगी.

राज्य मंत्रिमंडल में पिता-पुत्र की पांच जोड़ियों ने अब तक कैसा प्रदर्शन किया है, इस पर एक नजर डालते हैं.

स्टालिन और करुणानिधि

दिवंगत एम. करुणानिधि, जिन्हें तमिल साहित्य में उनके योगदान के लिए कलैगनर के नाम से भी जाना जाता है, ने 2009 में अपनी सरकार में स्टालिन को उपमुख्यमंत्री के तौर पर शामिल किया था. यह ऐसा कदम था जिसने तय कर दिया कि डीएमके में उनका उत्तराधिकारी कौन होगा.

हालांकि, कैबिनेट में शामिल होने से पहले ही स्टालिन ने खुद को एक सक्षम प्रशासक साबित किया था. चेन्नई के मेयर के तौर पर अपने पहले कार्यकाल (1996-2001) के दौरान स्टालिन ने शहर के यातायात प्रवाह को घटाने में मदद के लिए 10 फ्लाईओवर की योजना बनाई और उनकी निगरानी में इनमें से नौ का काम सफलता के साथ पूरा हुआ.

10वीं परियोजना तब पूरी हुई जब वे मंत्री बने थे.

स्टालिन को डिप्टी सीएम बनाते समय करुणानिधि ने इस कदम के पीछे अपनी बिगड़ी स्वास्थ्य स्थिति का हवाला दिया था. उन्होंने कहा था, ‘इस हालत में, मैं प्रशासन पर पूरा ध्यान देने में असमर्थ हूं. मुझे एक हफ्ते में 100 से ज्यादा फाइलें पढ़नी पड़ती हैं. मैंने वित्त मंत्री के साथ इस पर चर्चा की और चूंकि उनका स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं है, इसलिए हमने फैसला किया कि मैं एक या दो विभाग अपने पास रखूंगा, बाकी उपमुख्यमंत्री के तौर पर काम करने वाले एम.के. स्टालिन संभालेंगे.’

हैदराबाद के एक पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक नागराजा गली ने दिप्रिंट को बताया, करुणानिधि के पुत्र होने के बावजूद स्टालिन हमेशा एक बड़े नेता थे.

गली ने कहा, ‘भले ही वह अपने पिता के अधीन काम कर रहे थे, लेकिन अपने पिता की छाया से बाहर आने में सफल रहे थे. उन्होंने इस तरह कामयाबी हासिल की.’

गली ने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद द्रमुक को पुनर्जीवित करने का श्रेय स्टालिन को ही दिया जाता है.

2017 में द्रमुक प्रमुख का पद संभालने से पहले ही स्टालिन पार्टी के मामलों को हैंडल कर रहे थे. उस समय तक करुणानिधि उन्हें एक दशक से अधिक समय से अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर पेश करते आ रहे थे.

बहरहाल, पार्टी में शीर्ष स्तर पर स्टालिन का उदय धीरे-धीरे हुआ. 1975 में आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ्तारी के बाद से उन्हें थलपति कहा जाने जाने लगा था—जो शब्द तमिल भाषा में कमांडर के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वह 1984 से करीब तीन दशकों तक द्रमुक युवा विंग के अध्यक्ष रहे.

चेन्नई के मेयर (1996-2001 और 2001-02) के रूप में दो कार्यकालों के बाद उन्हें 2003 में द्रमुक का जनरल सेक्रेटरी चुना गया. 2008 में उन्हें पार्टी का कोषाध्यक्ष बनाया गया.

पहली बार 1989 में राज्य विधानसभा के लिए चुने गए, उन्होंने 2021 के विधानसभा चुनावों में कोलाथुर निर्वाचन क्षेत्र से बतौर विधायक सातवीं जीत हासिल की है.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक पई ने दिप्रिंट को बताया, जब तक सही समय नहीं आया, स्टालिन अपने पिता के साये से बाहर नहीं निकल पाए.


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आदित्य ठाकरे और उद्धव ठाकरे

वर्ली से 2019 का विधानसभा चुनाव जीतने वाले आदित्य—जो चुनाव लड़ने वाले ठाकरे परिवार के पहले सदस्य बने—अब 32 वर्ष के हैं, और उन्हें दिसंबर 2019 में पिता उद्धव ठाकरे के महा विकास अघाड़ी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था.

एक मंत्री के तौर पर ठाकरे पर्यटन, पर्यावरण और प्रोटोकॉल के अपने अपेक्षाकृत कम प्रोफ़ाइल वाले विभागों तक ही सीमित नहीं थे.

वह अपने मुख्यमंत्री पिता की अन्य मंत्रियों के साथ होने वाली कैबिनेट बैठकों में शामिल रहे, यहां तक कि उन मामलों में भी जो उनसे संबंधित नहीं थे. यही नहीं अन्य मंत्रियों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले जिलों में महामारी समीक्षा बैठकों में भी हिस्सा लिया.

एक मंत्री के तौर पर उन्होंने अपने लो-प्रोफाइल मंत्रालयों को भी सुर्खियों में रखा और अपने पर्यावरण एजेंडे को आगे बढ़ाया, जिसमें 2021 में इलेक्ट्रिक वाहन नीति और ऊर्जा और पर्यावरण विकास के सतत उपयोग पर महाराष्ट्र सरकार की 2022 की पहल माझी वसुंधरा अभियान शुरू करना भी शामिल है. इसके अलावा उन्होंने आरे मेट्रो शेड परियोजना को भी रद्द किया, जिसे अब बहाल किया गया है.

आदित्य ठाकरे का विवादों से भी नाता रहा है—2021 में उन्होंने महाराष्ट्र में पेंगुइन बाड़े के निर्माण को लेकर तत्कालीन विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की आलोचना भी झेली. राज्य के पर्यावरण मंत्री के तौर पर उनकी इस पसंदीदा परियोजना का मखौल उड़ाते हुए भाजपा ने उनका नाम ‘बेबी पेंगुइन’ तक रख दिया.

ठाकरे वंशज ने अपना राजनीतिक करियर 2010 में शिवसेना की युवा शाखा के अध्यक्ष के तौर पर शुरू किया था.

मुंबई यूनिवर्सिटी में पॉलिटिक्स के प्रोफेसर सुरेंद्र जोंधले ने दिप्रिंट को बताया, ‘आदित्य को (2010 में) बाल ठाकरे की मौजूदगी में ही राजनीति में उतारा गया था. इसका मतलब था कि उन्हें ठाकरे की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना है. यह मान लिया गया था कि परिवार की तीसरी पीढ़ी राजनीतिक रूप से (प्रभावशाली) रहेगी.’

जोंधले के मुताबिक, आदित्य ठाकरे का 2019 का विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला महत्वपूर्ण था.

उन्होंने कहा, ‘ठाकरे परिवार में ऐसा कभी नहीं हुआ. यह एक साहसिक निर्णय था और शिवसैनिकों को स्वीकार्य था.’

उसके बाद से ही, आदित्य शिवसेना को एक अधिक उदार और प्रगतिशील नजरिये के साथ पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जो पहले अपने उपद्रवी कैडरों के लिए जानी जाती थी.

जोंधले ने दिप्रिंट को बताया कि 32 वर्षीय नेता ने अपनी साख कायम कर ली है और पहले से ही शिवसेना के उद्धव के गुट का नेतृत्व कर रहे हैं क्योंकि उनके पिता स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों से जूझ रहे हैं.

जोंधले ने कहा, ‘उन्होंने शिवसेना के राजनीतिक चरित्र को बदलने की कोशिश की है. उसे अधिक महानगरीय, अधिक लोकतांत्रिक बनाया है. उनके नेतृत्व में एक नई शिवसेना नजर आती है. यह (अब) आदित्य ठाकरे की शिवसेना अधिक है.’

राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि हालांकि, कैबिनेट मंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल के दौरान उनके पास कोई महत्वपूर्ण विभाग नहीं थे, लेकिन आदित्य के लिए ‘राजनीतिक गुर सीखने का यह अनुभव’ काफी अहम था.’

उन्होंने कहा, ‘मंत्री बनना उनके लिए अच्छा राजनीतिक प्रशिक्षण था. राहुल गांधी की मौका मिलने पर कैबिनेट सदस्य नहीं बनने को लेकर की जाने वाली आलोचना के विपरीत आदित्य ठाकरे ने अपने मौके का फायदा उठाया.’

केटीआर और केसीआर

अपने पिता केसीआर के मंत्रिमंडल में शामिल केटीआर के नाम से मशहूर के.टी. रामा राव ने 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान केसीआर के प्रचार अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

उस समय वह तेलंगाना राष्ट्र समिति के कार्यकारी अध्यक्ष थे जिसका नाम अब बदलकर भारत राष्ट्र समिति का नाम दिया गया है. और चुनाव के लिए टिकट तय करने से लेकर पार्टी में असंतोष दूर करने तक केटीआर की अहम भूमिका थी.

राजनीतिक पत्रकार नागराज गली ने दिप्रिंट को बताया, ‘केटीआर फिलहाल कोई जननेता नहीं है. लेकिन उन्होंने अपनी काबिलियत साबित कर दी है. केटीआर पहली बार 2014 में अपने पिता के मंत्रिमंडल में मंत्री बने थे. तबसे, उनके सियासी सफर का ग्राफ ऊपर की ओर ही बढ़ा है.

2018 के विधानसभा चुनावों के बाद केटीआर ने सूचना प्रौद्योगिकी, नगरपालिका प्रशासन और शहरी विकास के अपने पुराने विभागों को बरकरार रखा.

गली ने कहा, ‘केटीआर ने अपने तरीके से विभिन्न चुनाव जीतकर कुछ हद तक खुद को साबित किया है. शहरी विकास और आईटी मंत्री के तौर पर उन्होंने प्रगति की है. निस्संदेह, केसीआर ने स्पष्ट कर दिया है कि केटीआर ही उनके उत्तराधिकारी हैं. इसका कुछ रोड मैप है.’

उनका मानना है कि अपनी पार्टी के नए नामकरण के साथ अब अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को स्पष्ट कर देने वाले केसीआर भले ही तेलंगाना न छोड़े लेकिन केटीआर का दबदबा तो समय के साथ बढ़ना ही है.

गली ने दिप्रिंट को बताया, ‘कुछ समय पहले, उन्होंने (केटीआर) अपने पिता की मौजूदगी के बिना कैबिनेट बैठक की. लेकिन वह सब कुछ अपने पिता की मंजूरी से करते हैं.’

चंद्रबाबू नायडू और नारा लोकेश

आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बेटे नारा लोकेश 2017 में सूचना प्रौद्योगिकी और पंचायत राज मंत्री के तौर पर अपने पिता के मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे.

उस समय नायडू के हवाले से मीडिया रिपोर्टों में कहा गया था कि उन्होंने अपनी पार्टी के सदस्यों से कहा था, ‘अब लोकेश के लिए सरकार में कदम रखने का सही समय है जब राजधानी का विकास हो रहा है और बड़े पैमाने पर अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाएं आकार ले रही हैं.’

हालांकि, गली का मानना है कि लोकेश खुद को साबित करने में नाकाम रहे हैं—खासकर जब वह 2019 में मंगलगिरी से अपना पहला चुनाव वाईएसआर कांग्रेस के प्रत्याशी रामकृष्ण रेड्डी से हारे.

गली ने दिप्रिंट से कहा, ‘केटीआर के विपरीत, नारा लोकेश का मामला अलग है. नायडू कड़ी मेहनत से राजनीति में आए थे. लेकिन लोकेश चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए. उन्हें पिता की जगह कमान संभालने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना होगा और खुद को साबित करना होगा.’

गली ने कहा कि नायडू ने लोकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने में ‘जल्दबाजी’ दिखाई है.

गली ने कहा, ‘उन्हें एमएलसी बनाया गया. बिना किसी चुनाव के उन्हें मंत्री बना दिया गया. फिर भी वह 2019 में चुनाव जीतने में विफल रहे.’

यही नहीं केटीआर के विपरीत, लोकेश अभी भी अपने पिता के साये से बाहर नहीं आ पाए हैं और ‘नायडू के बेटे’ के तौर पर ही जाने जाते हैं.’

गली ने कहा, ‘नायडू और लोकेश पॉलिटिकल हाइबरनेशन में हैं. यदि नायडू चुनाव हारते हैं, तो लोकेश कहीं नजर नहीं आएंगे.’ साथ ही जोड़ा कि लोकेश का राजनीतिक भाग्य कैसा होगा, इसका पता लगाने के लिए हमें 2024 के विधानसभा चुनावों तक इंतजार करना होगा.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवादः रावी द्विवेदी)


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