नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 जून को जम्मू-कश्मीर के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ जो बैठक की वह सरकार द्वारा तैयार किए गए एक रोडमैप के तहत है जिसके तीन आयाम हैं.
इसका पहला आयाम है विकास के ऐसे कार्यों को तेजी गति से लागू करना जिससे आम जनता को तुरंत सीधा लाभ मिले. दूसरा आयाम है पंचायती राज की संस्थाओं से उभरे राजनीतिक नेतृत्व को एक वैकल्पिक राजनीतिक पौध के रूप में तैयार करना और अंतिम आयाम है- नए सिरे से जम्मू-कश्मीर के मौजूदा गैर भाजपाई राजनीतिक दलों से संवाद करना.
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जमीनी फीडबैक
जम्मू-कश्मीर में ‘गुपकर समूह’ जिसमें मूलत: भारतीय जनता पार्टी की विरोधी पार्टियां हैं, भले ही वो जो मर्जी कहता रहे पर सरकार के पास आए फीडबैक के मुताबिक जमीनी स्तर पर लोग मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त, 2019 को लिए गए फैसले के समर्थन में हैं.
केवल एक कट्टरवादी तबका जो घाटी में हाशिए पर सिमट चुका है इसका विरोध कर रहा है.
आने वाले दिनों में संकेत इस बात के हैं कि अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते ‘गुपकर समूह’ केंद्र के खिलाफ अपना विरोधी रवैया बरकरार रखेगा पर वह केवल दिखाने भर को होगा.
उधर केंद्र सरकार भी टकराव को टालने के लिए आक्रामक रुख नहीं दिखाएगा. उसका पहला लक्ष्य है राज्य में विधानसभा चुनाव करवाकर एक चुनी हुई सरकार स्थापित करना.
पूर्ण राज्य का दर्जा देने के बारे में केंद्र का रुख इस बात पर निर्भर करेगा कि राज्य में किस स्वरूप की सरकार चुनकर आती है तथा जमीनी हालात कैसे रहते हैं. इन सबके लिए अभी कोई समय सीमा तय नहीं है.
केंद्र सरकार ने तय किया है कि अपना रुख लचीला रखा जाए, जैसी परिस्थितियां हों, उसी के अनुरूप आगे बढ़ा जाए और अगर जरूरत पड़े तो पूर्वनियत योजना में उपयुक्त बदलाव भी किए जाएं.
मोदी सरकार को अंदाजा है कि 2019 के फैसले का विरोध कर रहे ज्यादातर राजनीतिक दलों को भी समझ आ चुका था कि ‘बयान बहादुर’ बनने से उनकी खिसकी राजनीतिक जमीन वापिस नहीं आएगी, उलटे बची-खुची जमीन भी जल्दी ही चली जाएगी.
जिस दौरान गुपकर समूह के नेता नजरबंद रहे, उनके पक्ष में कुछ बयान भले आए हों पर कश्मीर की जनता सड़कों पर नहीं निकली. जनता में इनकी लोकप्रियता का ग्राफ इसी से ही स्पष्ट हो गया था. इसलिए केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा संपर्क करने पर थोड़ी बहुत ना-नुकुर के बाद ये सभी दल 24 जून की बैठक के लिए राजी हो गए.
गौरतलब है कि 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद-370 में महत्वपूर्ण संशोधन कर सेक्शन 35ए को हटा दिया था तथा जम्मू-कश्मीर राज्य का पुनर्गठन कर दो केंद्रशासित प्रदेश बनाए थे- लद्दाख और जम्मू-कश्मीर.
नेशनल कांफ्रेस, पीपुल्स डेमाक्रेटिक पार्टी, कांग्रेस आदि प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने इस निर्णय का विरोध किया था. लेकिन इस विरोध को वैसा समर्थन जम्मू-कश्मीर के आवाम से नहीं मिला जैसी कि उन्हें उम्मीद थी.
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केंद्र द्वारा उठाए कदम
केंद्र सरकार ने नई व्यवस्था में नए सिरे से विकास के कुछ ऐसे कार्यक्रम आरंभ किए तथा कुछ ऐसे फैसले लिए जिससे राज्य में नई राजनीतिक व्यवस्था विकसित होने की शुरुआत हुई. इसमें सबसे महत्वपूर्ण था पंचायती राज का विकास व सशक्तिकरण.
पहली बार ग्रामीण स्तर पर ऐसे नेताओं की पौध उभरी जो अपने क्षेत्र के विकास के लिए प्रतिबद्ध थी. इससे जम्मू-कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस जैसे परिवारों के नियंत्रण वाली पार्टियां तथा लगतार हाशिए पर जा रही कांग्रेस जैसी पार्टियों की ढीली हो चुकी पकड़ और भी स्पष्ट हो गई.
आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि किस प्रकार जम्मू-कश्मीर में पुरानी पार्टियों व पूर्व मे आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी राजनीतिक व शासन व्यवस्था को चुनौती देते हुए जमीन से जुड़ा हुआ एक नया राजनीतिक नेतृत्व उभर रहा है.
अनुच्छेद-370 हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज की स्थापना हुई. जिला पंचायत के चुनाव में 51.7% वोटिंग हुई जिसमें पहली बार महिला आरक्षण लागू होने के बाद 100 महिला चुनकर आयीं. साथ ही पहली बार 280 जिला पंचायत सदस्य चुने गये और 20 जिलों में पहली बार जिलाध्यक्ष चुने गये. इन्हें प्रोटोकॉल में डिप्टी कमिश्नर के बराबर दर्जा दिया गया है.
पहली बार, जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण लागू किया गया जिससे 20 जिलों में 6 महिला जिलाध्यक्ष, दो अनुसचित जाति व दो अनुसूचित जनजाति के जिलाध्यक्ष चुने गये. पहली बार हिंसा, अनियमितताओं और भय के बिना शांतिपूर्वक मतदान हुआ. जिला पंचायतों में 280 सीटों पर कुल 2178 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, जिसमें 450 महिलाएं थीं.
इन चुनावों में अनुसचित जनजाति श्रेणी में शामिल 38 गुज्जर बक्करवाल जिला पंचायत सदस्य चुनकर आये, जिनमें 15 महिला हैं. अब तक इस जनजाति का राजनीति में प्रतिनिधित्व बेहद कम रहता था.
2018 में कुल 3650 सरपंच निर्वाचित हुए और 23,660 पंच निर्वाचित हुए और 3395 पंचायतों का विधिवत गठन हुआ.
इसके बाद पंचायतों को सुदृढ़ किया गया है और 21 विषय उन्हें सौंपे गए. इनमें आईसीडीएस, आंगनवाड़ी, मनरेगा की मॉनीटरिंग और खनन का अधिकार संबंधी विषय शामिल हैं. साथ ही उनके खातों में 1500 करोड़ रुपए डाल कर उन्हें मजबूत किया गया. अब सरपंचों ने मनरेगा योजना के लिए भुगतान भी शुरू कर दिया है, इस वर्ष वह लगभग 1000 करोड़ रुपए का भुगतान इस मद में मजदूरों को करेंगे.
एक और महत्वपूर्ण काम केंद्र सरकार द्वारा किया गया है जिसके कारण उसे खासकर जम्मू संभाग से काफी समर्थन मिला है. यह काम है परिसीमन की कवायद की शुरुआत करने का.
एक परिसीमन आयोग का गठन किया गया है जो राज्य में विधानसभा सीटों को नए सिरे से तय करेगा. जम्मू संभाग के लोगों की हमेशा से शिकायत यह थी कि जितनी सीटें उन्हें विधानसभा में मिलनी चाहिए उससे बहुत कम हैं.
नवगठित परिसीमन आयोग को मार्च 2022 तक रिपोर्ट देनी है. इस प्रक्रिया में राज्य की 90 सीटों का दोबारा परिसीमन किया जाना है जिसमें पिछले परिसीमनों में की गयी गलतियों को भी सुधारा जायेगा. अनुमान है कि परिसीमन के परिणामस्वरूप जम्मू संभाग में सीटें बढ़ सकती हैं.
अनुच्छेद-370 में संशोधन व सेक्शन 35ए हटने के बाद प्रदेश में नई अधिवास नीति (डोमीसाइल पॉलिसी) लागू हुई. इसके कारण जम्मू-कश्मीर में कई महिलाओं, अत्यंत पिछड़े (विशेषकर वाल्मीकि समाज), पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी, गोरखा समाज, पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर (पीओजेके) से विस्थापित- इन श्रेणियो में लाखों लोगों को समता, समानता और समान अवसर जैसे मूलभूत अधिकारों के अलावा प्रदेश का स्थायी निवासी होने का हक मिला.
पिछले लगभग सात दशक से चला आ रहा शासकीय भेदभाव खत्म हुआ. इसके अलावा देश के अन्य हिस्सों में बसे 5300 पीओजेके विस्थापित परिवारों को भी राहत पैकेज दिया गया. साथ ही उनके जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी बनने का रास्ता भी प्रशस्त हुआ.
एक ऐसा कदम भी उठाया गया जिससे केंद्र सरकार को प्रशासन में काम कर रहे कर्मचारियों को भी साथ लाने में मदद मिली. 31 अक्टूबर 2019 को सातवां वेतन आयोग जम्मू कश्मीर में तत्काल प्रभाव से लागू किया गया.
इसके अलावा पानी, बिजली, स्वास्थ्य और आवास को लेकर अब तक कागजों में चल रही योजनाओं को जमीन पर उतारा गया. इसके साथ ही आतंकवादी घटनाओं में भी भारी कमी आई. इन सब कदमों व प्रयासों के चलते केंद्र सरकार के पास जम्मू-कश्मीर से सकारात्मक फीडबैक था.
उधर गुपकर समूह व अन्य गैर भाजपा पार्टियों को भी अंदाजा था कि उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो रही है, ऐसे में केंद्र के साथ बातचीत में शामिल होकर ही वे राजनीति की मुख्यधारा में वापिस लौट सकते हैं.
ऐसे में जम्मू-कश्मीर को पूर्ण दर्जा देने की मांग उठाकर इन दलों ने कागजी विरोध दर्ज किया है पर उसका कोई जमीनी असर नहीं है. इन दलों को मालूम है कि उनके पास कोई और विकल्प नहीं है और समय भी कम है. अगर उन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लिया तो पंचायत चुनावों से उभरा नया राजनीतिक नेतृत्व उनकी जगह लेने के लिए तैयार है.
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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