श्रीनगर: जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनावों में कश्मीर में छह में से पांच सीटों पर जीत हासिल कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा अनुच्छेद 370 फिर लागू करने की वकालत करने वाले क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के एक गठबंधन पीपुल्स एलायंस फॉर गुपकर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाली पार्टी बनकर उभरी है.
माकपा ने जम्मू-कश्मीर में कुल आठ उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. जम्मू में दोनों ही सीटों पर हार का सामना करने वाली पार्टी दक्षिण कश्मीर के कुलगाम क्षेत्र में अपना गढ़ बचाए रखने में सफल रही.
लेकिन माकपा की यह सफलता कश्मीर में राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए न तो नई है और न ही इसमें चौंकाने वाली कोई बात है क्योंकि 1996 के बाद से वामपंथी दल कुलगाम— जम्मू-कश्मीर के सबसे अशांत क्षेत्रों में से एक— में अपना दबदबा कायम किए हुए है.
पर्यवेक्षकों का कहना है कि पार्टी की सफलता का पूरा श्रेय जम्मू-कश्मीर में पार्टी के 71 वर्षीय प्रमुख मोहम्मद यूसुफ तारिगामी को जाता है, जो तमाम प्रतिद्वंदियों की मौजूदगी के बावजूद एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र को कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.
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एक राजनेता के तौर पर अपनी जड़ें तलाश रहे
1949 में कुलगाम के तारिगाम गांव में एक किसान परिवार में जन्मे तारिगामी एक कुशाग्र छात्र थे लेकिन अनंतनाग डिग्री कॉलेज में अपने कॉलेज के दिनों के दौरान वह आंदोलनों की ओर आकृष्ट हुए.
1967 में 18 वर्ष की उम्र में तारिगामी और उनके मित्र गुलाम नबी मलिक, जो अभी जम्मू-कश्मीर में माकपा के सचिव हैं, ने अनंतनाग डिग्री कॉलेज में छात्र क्षमता बढ़ाने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था.
दोनों तब एक स्थानीय कम्युनिस्ट समूह का हिस्सा थे जिसे रिवोल्यूशनरी स्टूडेंट्स एंड यूथ फेडरेशन कहा जाता था.
मलिक ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम डीसी (डिप्टी कमिश्नर) के कार्यालय में 36 घंटे की भूख हड़ताल पर बैठ गए थे. तब सरकार को कॉलेज की कुल क्षमता बढ़ानी पड़ी थी.’
सफल अभियान के बाद दोनों ने जम्मू-कश्मीर में किसान नेता अब्दुल कादिर के नेतृत्व में विभिन्न किसान आंदोलनों में हिस्सा लिया. लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता 1967 में माकपा का हिस्सा रही डेमोक्रेटिक कांफ्रेंस में शामिल होने के साथ मुखर रूप से सामने आई.
यहां तारिगामी और मलिक कम्युनिस्ट नेता राम प्यारे सराफ के नजदीक आए और उनकी देखरेख में सीखने-समझने लगे. जब सराफ नक्सली आंदोलन को समर्थन देने के लिए माकपा से अलग होकर भाकपा (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का हिस्सा बने तो ये लोग भी उसमें शामिल हो गए.
इसके बाद मलिक और तारिगामी के लिए मुकदमे और मुश्किलों का दौर शुरू हुआ जो तब तक नक्सली नेता चारू मजूमदार को एक नायक की तरह देखते थे.
मलिक के अनुसार, इसके बाद 1975 में इंदिरा-शेख समझौते जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को भारत संघ का हिस्सा बनाया गया— के बाद नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार के साथ हमारा टकराव चरम पर पहुंच गया था.
मलिक ने कहा, ‘हमने समझौते का विरोध किया और मांग रखी कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाए. अपने आंदोलन की वजह से ज्यादातर समय हमने जेल में काटा या फिर हमें भूमिगत होना पड़ा. हमने तो हथियार उठाने तक के बारे में सोच लिया था और फिर से गिरफ्तार कर लिए गए.’
उन्होंने कहा कि इसके बाद सबसे ज्यादा परेशानी 1979 में तब हुई जब पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर में दंगे हो गए.
मलिक ने कहा, ‘उस समय शेख अब्दुल्ला मार्क्सवादियों और जमात-ए-इस्लामी के साथ टकराव में व्यस्त थे इसलिए दंगे जारी रहे और हमें इसके लिए दोषी ठहराया गया. अधिकारियों ने कुरानों को जलाया और दोष हमारे मत्थे मढ़ दिया गया. आखिरकार, तारिगामी साहब विवादास्पद सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत आरोपी बनने वाले वाले पहले लोगों में से एक बन गए.’
कश्मीर में रहने वाले राजनीतिक विशेषज्ञ शेख शौकत हुसैन के अनुसार, नेशनल कांफ्रेंस सरकार उस समय मार्क्सवादियों को कुचलने में जुटी थी जो उसके साथ-साथ भाजपा की पूर्ववर्ती पार्टी जनसंघ के खिलाफ काफी मुखर थे.
हुसैन ने कहा, ‘कम्युनिस्टों के खिलाफ शेख अब्दुल्ला की नफरत किसी से छिपी नहीं थी. कम्युनिस्ट उन पर अमेरिका के साथ घनिष्ठता बढ़ाने का आरोप लगाते थे. और अब्दुल्ला ने गंदरबल में एक सार्वजनिक सभा के दौरान वामपंथियों की आलोचना की थी.’
लंबे समय तक वामपंथी नेता के सहयोगी रहे प्रो. यूसुफ गनाई ने कहा कि हालांकि, तारिगामी ने कभी शेख अब्दुल्ला के खिलाफ ऐसा नहीं किया क्योंकि दोनों के बीच लड़ाई वैचारिक थी न कि व्यक्तिगत.
भुट्टो प्रकरण के बाद मलिक और तारिगामी दोनों फिर माकपा में शामिल हुए और कुलगाम में मुख्यधारा के राजनेता के रूप में अपनी यात्रा की शुरुआत की.
1970 के दशक में तारिगामी को निजी जीवन में एक चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा जब 1975 में प्रसव के दौरान अपनी पत्नी को गंवा दिया.
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‘मुख्यधारा के एक विश्वसनीय नेता’
4.4 लाख से अधिक लोगों की आबादी और 1,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र वाला कुलगाम जम्मू-कश्मीर के सबसे बड़े जिलों में से एक है. यह क्षेत्र विभिन्न राजनीतिक समूहों से जुड़ाव रखने वालों के बीच बंटा है और सामाजिक-धार्मिक समूह जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर का भी एक गढ़ है जिस पर फरवरी 2019 के पुलवामा आतंकी हमले के बाद केंद्र सरकार ने कथित तौर पर चरमपंथियों के समर्थन के कारण पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया था.
गनाई ने कहा, ‘क्षेत्र जमात का एक गढ़ था और यहां तक कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी जमात से जुड़े होते थे लेकिन यह 1980 के दशक की बात है. आतंकवाद (जो 1980 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुआ था) के दौर से पहले विधानसभा चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस भी कुलगाम से जीती थी. लेकिन आतंकवाद और अलगाववादियों के चुनावी राजनीति के बहिष्कार के साथ सब बदल गया.
1989 और 1995 के बीच के साल कश्मीर में आतंकवाद के सबसे कठिन दौर के तौर पर दर्ज हैं, जब पूर्ववर्ती राज्य में कहीं कोई चुनाव नहीं हुए. तारिगामी इसके बाद के दौर में मुख्यधारा के राजनेता के रूप में उभरे. 1996 के विधानसभा चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस के महासचिव अली मोहम्मद सागर ने कहा, पार्टी कुलगाम से किसी को मैदान में नहीं उतार रही क्योंकि वह सभी ‘समान विचारधारा वाले लोगों’ को साथ लेकर चलना चाहती है जो जम्मू-कश्मीर के लिए अधिक स्वायत्तता की वकालत करते थे. इसके बाद ही तारिगामी कुलगाम को अपना गढ़ बनाने में कामयाब रहे.
उन्होंने उस वर्ष और फिर 2002, 2008 और 2014 में इस सीट से जीत हासिल की.
गनाई ने तारिगामी को एक ‘विश्वस्त मार्क्सवादी, खासे जानकार’ और ‘मुख्यधारा के एकमात्र विश्वसनीय नेता’ करार दिया, जिन्होंने लोगों को सुशासन देने के तहत निर्वाचन क्षेत्र का विकास किया है.
प्रोफेसर गनाई के साथ-साथ माकपा नेता ने भी कहा कि पार्टी को वोट देने वाले तमाम मतदाता मार्क्सवादी नहीं हैं. इनमें ज्यादातर मतदाता ‘धार्मिक और सामाजिक रूप से रूढ़िवादी हैं लेकिन उन्होंने ग्रामीण कश्मीर की उपेक्षित आबादी की बेहतरी के प्रयासों के लिए तारिगामी को वोट दिया है.’
गनाई ने कहा, ‘वह मुसलमानों के मार्क्सवादी नेता हैं. उन्होंने लोगों की समस्याएं हल करने के लिए ग्रामीण विकास विभाग को आधार बनाया बनाया और इसी वजह ने उन्हें उस मुकाम तक पहुंचाया है जहां वह हैं.’
हालांकि, हर कोई इस बात से सहमत नहीं है. पूर्व पीडीपी नेता और राज्यसभा सांसद नजीर लावे, जिन्होंने 2008 और 2014 में तारिगामी के खिलाफ चुनाव लड़ा और हारे, का कहना है कि वह तो जमात के बहिष्कार के कारण अपनी पकड़ बनाए रखने में सक्षम हैं. उन्होंने कहा, ‘नेशनल कांफ्रेंस ने भी तारिगामी के खिलाफ कोई मजबूत उम्मीदवार नहीं खड़ा किया. पक्के यकीन से तो नहीं कह सकता लेकिन मुझे लगता है कि यह जानबूझकर किया गया था.’
खुद तारिगामी के लिए उन्हें पहले और अब डीडीसी चुनाव में मिली सफलता कुलगाम के लोगों के प्रति उनके ‘समर्पण और गंभीर प्रयासों’ का नतीजा है.
उन्होंने कहा, ‘पार्टी हमेशा लोगों के प्रति वफादार रही है. हम हमेशा अपने वादे के साथ खड़े रहे हैं और 2019 के बाद (जब अनुच्छेद 370 हटाया गया) भी हमने अपने लोगों को अकेला नहीं छोड़ा. डेढ़ साल का यह वक्त काफी कठिन रहा है और हमने अपने लोगों के लिए संघर्ष किया है.’
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