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Saturday, 16 November, 2024
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बहुतों के भाजपा न छोड़ने का कुछ कारण है और यह सिर्फ पावर नहीं

बीजेपी के कुछ बड़े दलबदलुओं के करियर पर नज़र डालने से पता चलता है, कि भगवा पार्टी छोड़ने वालों का भी आगे का रास्ता कठिन होता है.

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नई दिल्ली: वफादारी बदलकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल होने से ज़रूरी नहीं कि सत्ता की चाबी मिल ही जाए, लेकिन बीजेपी के कुछ बड़े दलबदलुओं के करियर पर नज़र डालने से पता चलता है, कि भगवा पार्टी छोड़ने वालों का भी आगे का रास्ता कठिन होता है.

बीजेपी नेताओं का कहना है कि क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने नवजोत सिंह सिद्धू इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं, जो पंजाब कांग्रेस में प्रधानता हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

पंजाब मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ सिद्धू की बग़ावत को, सियासी हलक़ों में आगामी असेम्बली चुनावों में कांग्रेस पार्टी का चेहरा बनने के, सिद्धू के एक हताश प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है.

2017 में सिद्धू ने 13 साल के साथ के बाद बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस का दामन थामा था. वो चाहते थे कि बीजेपी शिरोमणि अकाली दल से नाता तोड़ ले. गठबंधन में सीटों के बटवारे के तहत बीजेपी पंजाब में सिर्फ 23 सीटों पर चुनाव लड़ पाती थी, इसलिए पार्टी के अंदर सिद्धू जैसे महत्वाकांक्षी के लिए कोई उम्मीद नहीं थी.

क्रिकेटर से नेता बने सिद्धू अमरिंदर सिंह सरकार में मंत्री बन गए, बाद में ख़ुद को सीएम के चेलेंजर के रूप में पेश करने के लिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया. हालांकि बताया जा रहा है कि सिद्धू को राहुल गांधी का समर्थन हासिल है, लेकिन अमरिंदर सिंह जैसी भारी-भरकम शख़्सियत को हटाना सिद्धू के लिए आसान नहीं है.

इस रस्साकशी का नतीजा कुछ भी हो, बीजेपी के दलबदलू के तौर पर सिद्धू अभी भी फायदे में ही हैं. और कुछ नहीं तो उन्हें गांधी परिवार का समर्थन तो है ही. बाक़ी बीजेपी दलबदलू अभी भी ख़ुद को दूसरी पार्टियों में दरकिनार महसूस कर रहे हैं, या फिर अपना खुद का रास्ता बनाने की नाकाम कोशिशों के बाद, वो अपनी मूल पार्टी में लौट गए.

जसवंत सिंह, शत्रुघन सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, मानवेंद्र सिंह, और यशवंत सिन्हा ने पार्टी छोड़ी लेकिन ख़ुद को राजनीति के बीहड़ में अकेला पाया.

कल्याण सिंह और तेज़-तर्रार उमा भारती जैसे नेताओं ने पार्टी को छोड़ा लेकिन फिर लौट आए और अब ख़ुद को दरकिनार पाते हैं.

कुछ नेता जो किसी तरह इस रुझान से बचने में कामयाब रहे वो हैं पूर्व गुजरात सीएम शंकर सिंह वाघेला, महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले, और बीएस येदियुरप्पा, जो बीजेपी में वापस आए और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने.

दिल्ली-स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो राहुल वर्मा ने कहा, ‘देखिए, ये एक पेचीदा मसला है और इस मामले में हमारी समझ सीमित है. बहुत से नेता हैं जिन्होंने बीजेपी को छोड़ा और अपनी पार्टियां शुरू करने की कोशिश की- कल्याण सिंह, बाबूलाल मरांडी, उमा भारती, और येदियुरप्पा आदि- लेकिन अपने असफल प्रयासों के बाद पार्टी में लौट आए. पूर्व बीजेपी नेता शंकर सिंह वाघेला अकेले ऐसे नेता थे, जिन्हें पार्टी से बाहर कुछ सफलता मिली’.

उन्होंने आगे कहा, ‘इसका एक कारण ये हो सकता है (हो सकता है कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी यही हो रहा हो) कि विचारधारा वाली पार्टियों में नेताओं के लिए अपना राजनीतिक आधार बनाना मुश्किल होता है. बीजेपी एक काडर-आधारित पार्टी है, इसलिए कार्यकर्त्ता और मतदाता दोनों नेताओं से नहीं बल्कि पार्टी से बंधे होते हैं’.

‘अधिकतर मामलों में, जब ये नेता छोड़ते हैं तो पार्टी को तोड़ नहीं पाते. इसलिए दूसरी पार्टियों में जाते समय इन दलबदलुओं का राजनीतिक प्रभाव कम हो जाता है. इसी तरह, नई पार्टी शुरू करने के लिए जनबल और पैसा दोनों मामलों में पर्याप्त संसाधनों की ज़रूरत होती है. इसलिए बीजेपी जैसी काडर-आधारित संगठित पार्टियों के नेताओं के लिए (पार्टी से) बाहर बने रहना मुश्किल हो जाता है’.


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जो वापस आए

जो नेता बीजेपी में लौटकर आए लेकिन अभी भी अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं, उनमें से एक हैं मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती.

भारती को दिसंबर 2005 में अनुशासनहीनता और पार्टी-विरोधी गतिविधियों के लिए, छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया गया था. उन्होंने उस समय पार्टी अध्यक्ष एलके आडवाणी पर हमला किया था, जब उनके दावे की अनदेखी करते हुए पार्टी के संसदीय बोर्ड ने शिवराज सिंह चौहान का बतौर एमपी मुख्यमंत्री चयन कर लिया था.

भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी के नाम से अपनी अलग राजनीतिक पार्टी खड़ी कर ली, लेकिन उन्हें राजनीतिक सफलता नहीं मिली. 2007 के विधान सभा चुनावों में वो अपने घरेलू मैदान, टीकमगढ़ की बड़ा मल्हेरा सीट से भी चुनाव हार गईं.

छह साल बाद 2011 में आरएसएस के कहने पर वो बाजेपी में वापस आईं. पार्टी ने उनसे उत्तर प्रदेश पर फोकस करने को कहा, और उन्हें नरेंद्र मोदी के पहले मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया. लेकिन 2019 में जब पीएम मोदी को नया जनादेश मिला, तो उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई.

एक और हिंदुत्व आइकन जो इसी हाल में हैं, वो हैं कल्याण सिंह जो उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया.

सिंह ने दो बार बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर काम किया- 1991-92 और 1997-99.

सिंह को मुख्यमंत्री के पद से उस समय हटाया गया, जब उन्होंने 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के खिलाफ बग़ावत की, और उनकी जगह लो-प्रोफाइल राम प्रकाश गुप्ता को बिठा दिया गया. उसी साल सिंह को दिल्ली और अलीगढ़ में उनके सार्वजनिक बयानों के लिए, कारण-बताओ नोटिस भी दिया गया, जिन्हें पार्टी-विरोधी और पार्टी की छवि को बदनाम करने वाले क़रार दिया गया था. लेकिन, सिंह ने दावा किया था उन्हें बीजेपी में किनारे किया जा रहा था.

सिंह को आख़िरकार पार्टी से निकाल दिया गया, लेकिन 2004 लोकसभा चुनावों से पहले वो पार्टी में लौट आए.

एक बीजेपी नेता ने याद करते हुए कहा, ‘वाजपेई और कल्याण सिंह के बीच की केमिस्ट्री बिल्कुल भी अच्छी नहीं थी. जब तत्कालीन पीएम ने उत्तर प्रदेश का दौरा किया, तो उन्हें पता चला कि सिंह बहुत से चुनाव क्षेत्रों में प्रचार ही नहीं कर रहे थे’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन सिंह का दावा था कि उन्हें किनारे किया जा रहा था, और वाजपेई चाटुकारों को आगे बढ़ा रहे थे’.

लेकिन, बीजेपी राष्ट्रीय प्रवक्ता आरपी सिंह ने दिप्रिंट से कहा कि जो लोग वापस आते हैं उन्हें किनारे नहीं किया जाता, लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि अगर सिंह बीजेपी में बने रहते, तो वो प्रधानमंत्री बन सकते थे.

सिंह ने कहा, ‘मैं आपको तीन मिसालें दूंगा- उमा भारती, मदन लाल खुराना, और कल्याण सिंह. तीनों ने बीजेपी छोड़ी थी और वापस आने पर उन्हें महत्वपूर्ण पद दिए गए थे. वापस आने के बाद भी खुराना को सीएम उम्मीदवार बनाया गया था. कल्याण सिंह और उमा भारती दोनों को सरकार में शामिल किया गया. बीजेपी विचारधारा-आधारित प्रणाली का पालन करती है. लेकिन अगर कल्याण सिंह रुके रहते, तो वो पीएम भी बन सकते थे’.

बीजेपी प्रवक्ता ने भी विचारधारा के तर्क का हवाला दिया.

उन्होंने आगे कहा, ‘जब तिकड़ी ने वापसी का फैसला किया, तो वैचारिक काडर ने उन्हें स्वीकार कर लिया. जो लोग दूसरे दलों में शामिल होते हैं, उन्हें वहां जमने में मुश्किल पेश आती है. उनके लिए खुद को एक नए सिस्टम में समायोजित करना मुश्किल होता है, क्योंकि उनकी जड़ों में एक ख़ास वैचारिक डीएनए होता है. सिद्धू को देखिए, उन्हें कांग्रेस छोड़ने और आप में शामिल होने में भी कोई परेशानी नहीं होगी, क्योंकि उनका कोई वैचारिक आचरण नहीं है’.


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जो छोड़कर गए

ऐसे कई और पार्टी नेता हैं जो बीजेपी छोड़कर गए, और अब उस संगठन में प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें वो शामिल हुए हैं.

उन्हीं में हैं एक और क्रिकेटर से राजनेता बने कीर्ति आज़ाद. आज़ाद, जिन्होंने दरभंगा से बीजेपी टिकट पर तीन बार चुनाव जीता, पार्टी से निलंबित कर दिए गए जब उन्होंने 2016 में अरुण जेटली के खिलाफ खुली बग़ावत कर दी. फिर वो कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव हार गए, जो उन्होंने झारखंड के कोडरमा से लड़ा था.

एक्टर से नेता बने शत्रुघन सिन्हा का हाल भी कुछ बेहतर नहीं रहा है. वाजपेई सरकार में मंत्री रहे सिन्हा 2019 में कांग्रेस में शामिल हो गए, जब बीजेपी ने उन्हें उनकी लोकसभा सीट पटना साहिब से टिकट देने से इनकार कर दिया. उन्होंने आख़िरकार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के हाथों परास्त हो गए. उन्हीं चुनावों में उनकी पत्नी पूनम सिन्हा एसपी के टिकट पर, लखनऊ से केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह मुक़ाबले खड़ी हुईं और हार गईं.

पिछले साल, बिहार चुनावों में सिन्हा के बेटे लव सिन्हा कांग्रेस टिकट पर बांकीपुर विधान सभा सीट से चुनाव हार गए.

बीजेपी के सबसे क़द्दावर नेताओं में से एक और पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिन्हा की समय के साथ साथ पार्टी में हैसियत कम हो गई और उनकी लिखी हुई एक किताब के मुद्दे पर 2009 में आख़िरकार उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया.

उन्हें 2014 के लोकसभा चुनावों में टिकट भी नहीं दिया गया, जो उन्होंने बाड़मेर से आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर लड़ा और हार गए.

एक्सपर्ट्स का कहना है कि पार्टी की ब्रांडिंग कुछ ऐसी है, कि जो लोग उसे छोड़ते हैं उनमें अधिकतर विपक्षी पार्टियों में बने नहीं रह पाएंगे.

बद्री नारायण ने कहा, ‘जो लोग कहीं और जाने के लिए बीजेपी छोड़ते हैं, उनके पनपने की संभावना नहीं है जब तक कि वो किसी हिंदुत्व वादी राजनीतिक संगठन में न जाएं. किसी हिंदुत्व वादी राजनीतिक संगठन में वो फिर भी पनप सकते हैं, लेकिन अगर वो किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं तो वहां बने नहीं रह पाएंगे. बीजेपी में छवि-निर्माण कुछ ऐसा है कि मसलन उमा भारती जैसी तेज़-तर्रार नेता, बीजेपी में बने रहने के अलावा कहीं और एडजस्ट नहीं कर सकतीं’.

लेकिन, नारायण ने कहा कि पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा जैसे नेता अपवाद साबित हो सकते हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘जहां तक यशवंत सिन्हा का सवाल है तो उनका ताल्लुक़ पुराने वाजपेई-आडवाणी स्कूल से हैं, और इसलिए उनकी जड़ें समाजवादी हैं. वो अपने आपको फिर से जीवित कर सकते हैं, लेकिन ये एक मुश्किल काम है. जहां तक दूसरों का ताल्लुक़ है, मुझे बीजेपी से आगे उनका भविष्य दिखाई नहीं देता. साथ ही, जो नेता कांग्रेस से हैं वो अगर किसी दूसरी पार्टी में जाएं, तो फिर भी ख़ुद को स्थापित कर सकते हैं’.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी के मुखर आलोचक रहे यशवंत सिन्हा ने 2018 में बीजेपी छोड़ दी. 1984 में आईएएस से इस्तीफा देने के बाद, सिन्हा जनता पार्टी के सदस्य के तौर पर राजनीति में शामिल हुए. 2020 में, लोकतंत्र को बचाने का प्रण लेते हुए सिन्हा ने अपना ख़ुद का एक राजनीतिक मंच बना लिया, और बिहार असैम्बली चुनाव लड़ने का ऐलान किया, लेकिन उन्हें कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली. इस साल मार्च में वो टीएमसी में शामिल हो गए और उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया है.

कुछ नेता अपेक्षाकृत सफल रहे

कुछ गिने चुने नेता जिन्हें बीजेपी से बाहर कामयाबी मिली, उनमें से एक हैं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री शंकर सिंह वाघेला, जो 2004 में तब की मनमोहन सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे.

80 वर्षीय वाघेला ने 2017 में कांग्रेस छोड़ दी, और अब वो प्रजा शक्ति लोकतांत्रिक पार्टी चलाते हैं, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं. इन दिनों ये भी अटकलें हैं कि वो कांग्रेस में लौटना चाह रहे हैं.

एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने कहा, ‘1995 गुजरात विधान सभा चुनाव में जब बीजेपी ने एक ज़बर्दस्त जीत हासिल करते हुए, 182 में से 121 सीटों पर कब्ज़ा कर लिया, तो वाघेला केशुभाई पटेल की जगह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नज़रें गड़ाए थे’.

उन्होंने आगे कहा, ‘वाघेला ने उस समय बग़ावत की चिंगारी छोड़ दी, जब केशुभाई अमेरिका में थे. वाघेला राज्य में नरेंद्र मोदी के बढ़ते दख़ल से नाराज़ थे’.

नेता ने आगे कहा, ‘वाजपेई जी और भैरों सिंह शेखावत को वाघेला को मनाने के लिए फ्लाइट से गांधीनगर जाना पड़ा. वाघेला की शर्तें थीं कि मोदी को राज्य से बाहर रखा जाए, और बीजेपी को केशुभाई पटेल को बदलना होगा. समझौते के तौर पर सुरेश मेहता को मुख्यमंत्री बना दिया गया’. नेता ने ये भी कहा, ‘लेकिन, 1996 में गोधरा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद, केशुभाई को अपनी हार के लिए ज़िम्मेदार बताते हुए वाघेला ने फिर विद्रोह कर दिया. बीजेपी ने आख़िरकार उन्हें निष्कासित कर दिया और 48 बाग़ी विधायकों के साथ मिलकर उन्होंने राष्ट्रीय जनता गठित कर ली. कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली, लेकिन 1998 में अगले असैम्बली चुनावों में उनकी पार्टी को केवल चार सीटें मिल पाईं. 1998 के अंत में उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस के साथ विलय कर लिया’.

पार्टी छोड़कर भी अपना राजनीतिक महत्व बरक़रार रखने वाले कुछ चुनिंदा बीजेपी नेताओं में एक और नाम है नाना पटोले, जो विदर्भ क्षेत्र के ओबीसी कुनबी समुदाय से आते हैं.

वो उन शुरूआती बीजेपी सांसदों में थे जिन्होंने 2014 से 2019 के बीच मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान पार्टी के खिलाफ बग़ावत की थी.

वो 2014 लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी में शामिल हुए थे, और बाद में बग़ावत करके कांग्रेस में चले गए. 2019 में उन्होंने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ा और हार गए. वर्तमान में वो कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई के प्रमुख हैं.

फिर आते हैं कर्नाटक मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा, जिन्हें 2008 में राज्य में बीजेपी को सत्ता में लाने का श्रेय दिया जाता है.

2012 में उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ लिया और कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) का गठन किया. 2013 के कर्नाटक असैम्बली चुनावों में केजेपी ने बीजेपी की चुनावी संभावनाओं को नुक़सान पहुंचाया, चूंकि लिंगायत वोट बैंक को बांटते हुए उसने लगभग 10 प्रतिशत वोट हासिल कर लिए.

बाद में, 2014 में केजेपी का बीजेपी में विलय कर लिया गया, और येदियुरप्पा को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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