हरियाणा विधानसभा के इस बार के चुनाव में दीवारों पर लिखी इबारतों को पढ़ते हुए आप उनमें कुछ बातों की गैर-मौजूदगी से या कुछ चीजों को बिलकुल गायब पाकर हैरत में पड़ सकते हैं. जैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और नाम. उनके द्वारा किए गए वादे भी आपको कहीं नजर नहीं आएंगे. न ‘मोदी की गारंटी’, न ‘मोदी का भरोसा’.
उनकी पार्टी का चुनावी नारा है— ‘भरोसा दिल से, बीजेपी फिर से’. नारे गढ़ने के मामले में यह पार्टी अपने लिए जो ऊंचा पैमाना निश्चित करती रही है उसके मद्देनजर यह तो काफी फीका लगता है. इसके अलावा इसमें कोई लय भी नहीं है. जैसे कि, एक बैंक्वेट हॉल में आयोजित एक मामूली-सी सभा के दौरान कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं ने अलग से बातचीत में इस नारे के बारे में कहा, “तुक भी नहीं मिलती”.
दीवारों पर लिखी इबारतों में असंतोष की सबसे खुली अभिव्यक्ति कविता में नहीं बल्कि चित्रों में की गई दिखती है. ऐसा नहीं है कि मोदी बिलकुल गायब ही हैं. हुआ सिर्फ इतना है कि उनकी तस्वीर पार्टी के पोस्टरों-पर्चों पर प्रमुख तस्वीर नहीं है. अधिकतर मामलों में चुनाव क्षेत्र के पार्टी उम्मीदवार की तस्वीर ही प्रमुख है. यह लगभग 2014 के विधानसभा चुनाव वाली स्थिति है. उस दौरान अपने इस कॉलम में काँग्रेसी उम्मीदवारों के बारे में मैंने ऐसा ही कुछ लिखा था. इस बार समीकरण उलट गया है, लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में. उस समय काँग्रेसी उम्मीदवारों ने गांधी परिवार को पूरी तरह काट दिया था. इस बार, मोदी मौजूद हैं मगर महज नाम के लिए.
पोस्टरों के सबसे ऊपर के दाहिने कोने में मुख्यमंत्री नायाब सिंह सैनी का दाढ़ी वाला चेहरा उम्मीदवार की तस्वीर के मुक़ाबले छोटे आकार में दिखता है. सैनी को अप्रैल में शुरू हुए लोकसभा चुनाव से मात्र एक महीने पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया था, क्योंकि पार्टी को देर से एहसास हुआ था कि लगातार दो बार मुख्यमंत्री बनाए गए मनोहरलाल खट्टर कितने अलोकप्रिय हो गए थे. पोस्टरों पर सैनी के गाल से गाल सटाए एक चेहरा दिखता है जिसे हममें से अधिकतर लोग नहीं पहचानते. कम-से-कम मैं तो नहीं पहचान पाया. मैं यह भी कहूंगा कि बीजेपी की चुनावी सभाओं और जुलूसों में मैंने कई लोगों से इस चेहरे के बारे में पूछा लेकिन कुछ उम्रदराज लोगों को छोड़ शायद ही कोई इस महत्वपूर्ण शख्स का नाम बता पाया.
इनका नाम है मोहनलाल बदोली. ये कौन हैं? ये पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, जिन्हें लोकसभा चुनाव में मिले झटके के बाद नुकसान की भरपाई की कोशिश के तहत इस पद पर नियुक्त किया गया है. लोकसभा चुनाव में पार्टी को प्रदेश की 10 में से पांच सीटें गंवानी पड़ी थी. हारने वालों में बदोली भी थे, सोनीपत से. हारने के बावजूद उन्हें प्रमोशन सिर्फ उनकी जाति की वजह से दिया गया, वे ब्राह्मण हैं.
जाटों से आगे बढ़ने की जुर्रत का खामियाजा
वफादार जातिगत गठबंधन का हवाला दिए बिना लगातार दो बार चुनाव जीतने के बाद भाजपा अब बुनियादी बातों का ख्याल करने लगी है. ऊंची जातियां और पंजाबी (अधिकतर बंटवारे में शरणार्थी बनकर आए लोगों के परिवारों से) उसके मुख्य आधार हैं. ये ज़्यादातर लोग ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे बसे हैं जहां अधिकतर शहरी चुनाव क्षेत्र भी स्थित हैं और जहां से बीजेपी ने 2014 और 2019 के विधानसभा चुनावों में ज़्यादातर सीटें जीती थी. इस क्षेत्र में जाटों की आबादी सबसे कम है, जिन्हें पार्टी ने अलगथलग कर दिया है.
अब अगर उसे तीसरी बार भी चुनाव जीतना है या इतनी सीटें जीतनी है कि नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के रूप में आए और वह अपना खेल बना सके, तो उसे जीटी रोड के किनारे सबसे ज्यादा सीटें जीतनी ही होंगी.
2014 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी को अपने जातीय आधार का प्रदर्शन नहीं करना पड़ा था. वह उसे अपने लिए तब तक पक्का मान सकती थी जब तक दो बातें काम कर रही हों. एक तो थी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद, और दूसरी थी ‘नमो’ नाम. ये दोनों पर्यायवाची थे. इसलिए, बीजेपी ने 2014 में 90 सीटों वाली विधानसभा में 47 सीटें जीतकर बहुमत हासिल कर लिया. यह इतना नाटकीय क्यों रहा यह समझने के लिए हमें यह गौर करना होगा कि तब तक बीजेपी सबसे ज्यादा, 16 सीटें 1987 में जीती थी. इनमें से ज़्यादातर सीटें जीटी रोड के किनारे बसे शहरी चुनाव क्षेत्रों की थीं.
नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष के बूते बीजेपी ग्रामीण हरियाणा और खासकर जाटों को जीत सकी. वहां जाटों का वोट केवल 22 फीसदी है लेकिन उनके राजनीतिक तथा सामाजिक दबदबे के कारण वे अपने वजन से ज्यादा दबाव रखते हैं. यह उपमा बॉक्सिंग और कुश्ती के इस केंद्र के लिए ज्यादा सटीक बैठता है.
लेकिन एक समय पर आकर बीजेपी ने फैसला कर लिया कि उसका काम जाटों के बिना भी चल जाएगा. सो, उसके पहले कार्यकाल में इस समुदाय को दरकिनार किया गया. दूसरे कार्यकाल में उसे देवीलाल के एक एक परपोते दुष्यंत चौटाला के जरिए आउटसोर्स किया गया. दुष्यंत ने जेल में बंद अपने दादा ओम प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी) से अलग होकर अपनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) बना ली.
लेकिन यह कदम उलटा पड़ा और खुद को दरकिनार किए जाने से बुरी तरह नाराज जाटों ने काँग्रेस और खासकर उसके नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा का हाथ थाम लिया. इसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर दिखा, बीजेपी जात/ग्रामीण/दलित बहुल सभी सीटों पर हारी लेकिन अधिकतर शहरी क्षेत्रों में जीती. उल्लेखनीय बात यह है कि वह अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित दोनों सीटों पर हारी. ऐसा लगता है कि ग्रामीण हरियाणा, जाट और दलित अब मोदी के मुरीद नहीं रह गए हैं.
क्या यह ‘मोदी बचाओ, मोदी जिताओ’ अभियान है?
अब पार्टी इसे इस चुनाव अभियान को लेकर दीवारों पर लिखी सबसे महत्वपूर्ण इबारत के रूप में कबूल कर रही है. जिन बैनरों पर पार्टी उम्मीदवार का चेहरा सबसे बड़ा, और मुख्यमंत्री तथा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष के चेहरे दूसरे सबसे बड़े चेहरे हों, उनमें मोदी का चेहरा सबसे छोटा है. यही नहीं, पोस्टरों के सबसे ऊपर के बायें हिस्से पर डाक टिकट आकार के 10 चेहरों की तस्वीरें हैं जिनमें पहले चार और छठे को तथा पांचवें को कुछ कोशिश करके तो मैं पहचान सका लेकिन बाकी के बारे में दूसरों से मदद मांगी. अगर आप हरियाणा सिविल सेवा की परीक्षा के परीक्षार्थी हों और आपको इन 10 में से अंतिम छह के नाम बताने के लिए कहा जाए, तो आप भी फेल कर सकते हैं.
आइए, उनके नाम गिनाएं : मोदी, पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय मंत्री मनोहरलाल खट्टर, केंद्रीय मंत्री तथा हरियाणा चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान, त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री और हरियाणा के उप-चुनाव प्रभारी बिप्लब देब, और राजस्थान के पार्टी प्रभारी तथा प्रमुख नेता सतीश पुनिया. बाकी चार के नाम जानने के लिए मुझे अपने सीनियर एसोसिएट एडिटर तथा हरियाणा विशेषज्ञ सुशील मानव की मदद लेनी पड़ी. लेकिन नाम में क्या रखा है?
उनमें से एक हैं पूर्व लोकसभा सदस्य जिन्हें इस बार टिकट नहीं दिया गया लेकिन वे पंजाबी हैं; दूसरे हैं यमुना पार यूपी से राज्यसभा सांसद जिन्हें अपने गुज्जर वोटों को लामबंद करने के लिए बुलाया गया है; तीसरी हैं प्रदेश महिला मोर्चा की लगभग अनजान कार्यकर्ता, लेकिन वे बनिया हैं; और चौथे हैं भाजपा के उतने ही अनजान जिला पार्टी पदाधिकारी.
इन उल्लेखनीय हस्तियों के बीच मोदी फिलहाल की अपनी पसंदीदा टोपी में भी नजर आते हैं, जिनकी तस्वीर भी उतनी ही छोटी है. बस वे बराबर वालों में सबसे पहले स्थान पर हैं, मानो आप उन्हें इस चुनाव के प्रतिकूल नतीजे के लिए जिम्मेदार बताने से बचाना चाहते हैं लेकिन उनके नाम पर वोट जरूर हासिल करना चाहते हैं. ऐसे में क्या हम इस अभियान को ‘मोदी बचाओ, मोदी जिताओ’ अभियान नाम दे सकते हैं?
हरियाणा की राजनीति के लिए जो-जो जरूरी हुआ करता था— जाति, परिवारवाद, और दलबदल—इन सब पर मोदी का वर्चस्व हावी हो गया था मगर अब यह सब वापस आ गया है. 2003 से शुरू हुए ‘हरियाणा की दीवारों पर लिखी इबारतें’ का यह चौथा संस्करण है, और पूरी सीरीज़ को आप यहां पढ़ सकते हैं. 2014 में इसके दूसरे संस्करण में, मोदी के नेतृत्व में आकांक्षाओं तथा आत्मविश्वास के विस्फोट पर नजर रखते हुए मैंने कहा था कि ऐसा लगता है मानो हरियाणा के मतदाताओं ने पहचान की राजनीति को पीछे छोड़ दिया है. कभी 25 लाख की आबादी वाले देश के सबसे अमीर प्रदेश से आप यही अपेक्षा रख सकते थे. यह स्थिति पूरे एक दशक तक रही. लेकिन मोदी की कमजोर पड़ती ताकत के साथ अब यह खत्म हो गया है.
बीजेपी ने एक ब्राह्मण, और हाल में ही पराजित एक नेता को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. जबकि इस राज्य में इस जाति वालों की आबादी 7.5 फीसदी से अधिक नहीं है. प्रदेश में शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि पार्टी के 90 में से 11 उम्मीदवार ब्राह्मण हैं. यानी अगर दूसरों पर भरोसा नहीं है तो अपनों को ही आगे बढ़ाओ. दो छोटे-छोटे गठबंधन सामने आए हैं. दोनों में देश के सबसे प्रमुख दलित नेता शामिल हैं—चंद्रशेखर आज़ाद, दुष्यंत चौटाला के साथ हैं, तो मायावती दुष्यंत के चाचा अभय की ‘आइएनएलडी’ के साथ हैं. आप साजिश की चर्चाओं को खारिज करना चाह सकते हैं, लेकिन जाट-दलित के ये अस्वाभाविक, छोटे गठबंधन काँग्रेस की कीमत पर ही वोट हासिल करेंगे. तो अब इस मुक़ाबले को बीजेपी के जाट विरोधी गठजोड़ बनाने की कोशिश, और जाट वर्चस्व को कमतर बताने की काँग्रेस की कोशिश के बीच मुक़ाबला बताया जा सकता है. शहरी जातियां जाट वर्चस्व से डरती हैं. इस मुक़ाबले में दोस्ताना, सौम्य हुड्डा को मोर्चे पर आगे रखना निर्णायक साबित हो सकता है.
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खानदानों और दलबदलुओं की वापसी और प्रतिशोध
हरियाणा के बहुचर्चित खानदानों पर किताबें और पीएचडी थेसिस लिखी जा चुकी हैं, और पिछले एक दशक में उनके लिए कई ऑबिचुरी लिखी जा चुकी हैं. लेकिन वे सब वापस आ गए हैं. अगर मैं उनके नाम गिनाने लगूं तो 1000 शब्द और लिखने पड़ेंगे. इसलिए, देवीलाल वंश से शुरू करके उनकी संख्या नौ पर सीमित कर सकते हैं. यह परिवार चार दलों/चुनाव चिन्हों में फैला है. इसके एक वंशज को तो बीजेपी का टिकट मिलते-मिलते रह गया. इसके अलावा बंसीलाल और भजनलाल के वंशों में से हर एक की तीन-तीन शाखाएं बीजेपी और काँग्रेस में शामिल हैं. परिवारवादी राजनीति के प्रति भाजपा की कथित नफरत के लिए अगर आप कहीं कब्र बनाना चाहेंगे तो वह स्थान हरियाणा ही हो सकता है. एक परिवार/एक टिकट के सिद्धांत की कब्र भी यहीं बनी है. आरती राव अटेली से चुनाव लड़ रही हैं, उनके पिता राव इंद्रजीत सिंह केंद्रीय राज्यमंत्री हैं, जो दिवंगत अहीर नेता और कभी मुख्यमंत्री रहे राव बीरेंद्र सिंह के पुत्र हैं.
दलबदल से हरियाणा की मुहब्बत कभी मरी नहीं. लेकिन अब यह उस राज्य में अभूतपूर्व ढंग से वापस हावी हुई है जहां 1960 के दशक में चैंपियन दलबदलू गयालाल ने ‘आया राम, गया राम’ जुमले को जन्म दिया था. वैसे, उनके बेटे उदय भान आज काँग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं.
फिलहाल, प्रमुख नामों को भूल जाइए, जैसे तीन लालों के वंशज जो पार्टी बदलने की मुहिम चलाते रहे हैं. पानीपत की दीवारों को देखिए. उन पर जो चेहरा सबसे ज्यादा दिखेगा वह एक निर्दलीय उम्मीदवार का है. रोहिता रेवरी नगरपालिका पार्षद थीं, जिन्होंने 2014 का विधानसभा चुनाव भाजपा उम्मीदवार के रूप में पानीपत सीट से 53,271 जीता था. 2019 में उन्हें टिकट नहीं दिया गया तो उनका धैर्य जवाब दे गया और वे इस मई में काँग्रेस में शामिल हो गईं. वहां भी उन्हें टिकट नहीं मिला तो वे काँग्रेस से बाहर हो गईं और अब निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रही हैं.
2019 में, संजय अग्रवाल काँग्रेस को इस सीट पर जीत न दिला सके, वे बीजेपी के प्रमोद विज से 39,545 वोटों से हार गए थे. अब इस बार चुनाव प्रचार खत्म होने से 72 घंटे पहले बीजेपी में शामिल हो गए और उसके उम्मीदवार विज को समर्थन देने की घोषणा कर दी. अगर इसका कोई मतलब नहीं निकलता तो पिछले गुरुवार को चुनाव प्रचार खत्म होने से दो घंटे पहले जो हुआ उसे देखिए.
जिस युवा नेता अशोक तंवर को राहुल गांधी ने प्रतिभा-खोज के तहत ढूंढ निकाला था और जिसे उन्होंने भावी दलित स्टार के रूप में पेश किया था और मात्र 38 साल की उम्र में जिन्हें हरियाणा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष तक बना दिया था, उन्होंने दोपहर 2.55 बजे राहुल की मौजूदगी में एक सभा में काँग्रेस में शानदार वापसी की. 55 मिनट पहले 2 बजे वे बीजेपी की सभा में उसके उम्मीदवार के लिए वोट मांग रहे थे. 10 साल में यह उनका पांचवां पड़ाव था. काँग्रेस छोड़कर उन्होंने अपनी पार्टी बनाई, इसके बाद ममता बनर्जी की तृणमूल काँग्रेस में शामिल हो गए, उसे छोड़कर आम आदमी पार्टी में पहुंचे, फिर बीजेपी में चले गए और अब वापस ‘घर’ लौट आए हैं, जब काँग्रेस उभार पर दिख रही है. देवीलाल के पुत्र रणजीत सिंह लोकसभा चुनाव से एक महीना पहले बीजेपी में शामिल हुए और उसके उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और हार गए. अब विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं.
क्या यह सब काफी उलझाऊ नहीं लगता? इसकी वजह यह है कि एक दशक तक जो चीज इस राज्य की राजनीति की नयी धुरी बन गई थी वह अब कमजोर हो गई है. इसे आप दीवारों पर लिखी इबारतों, भाजपा के नेताओं की तस्वीरों की गैलरी, और मोदी की सभाओं की घटती संख्या से समझ सकते हैं. 2014 में मोदी ने यहां 10 चुनाव सभाएं की थी लेकिन इस बार केवल चार ही की. भाजपा के लिए यह अघोषित रूप से मोदी के नाम पर चुनाव जीतने का ही मामला है. 2014 के बाद से भाजपा की शैली इस तरह जोखिम से बचने या बिना लाभ उठाए राजनीति करने की नहीं रही है. उस हद तक हरियाणा फिर से एक राष्ट्रीय दिशा निर्धारक बन रहा है.
क्या बदला और क्या नहीं बदला, इसके पुराने मुकाम
आपके राज्य में क्या बदल रहा है और क्या नहीं बदल रहा है इसकी खोज में अपने बचपन के पुराने मुकामों को भी शामिल करना चाहिए. उदाहरण के लिए, पानीपत के जिस सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल से मैंने 10वीं पास की वह आज भी वहीं, जीटी रोड पर स्थित है और मानो एक कालखंड में अटका हुआ है. अभी भी वह हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एडुकेशन (एचबीएसई) से संबद्ध है, जिसने मुझे 1971 में मैट्रिकुलेशन का सर्टिफिकेट दिया. वह भी नही बदला है, लेकिन उसी चौखटे में बदलाव साफ दिखता है.
स्कूल की पुरानी इमारत के बगल की जमीन पर, जहां हम लोग खेला करते थे, आज मूल स्कूल की सहयोगी संस्था के रूप में दूसरा स्कूल बन गया है, जिसका कहीं ज्यादा साज-संभाल किया जा रहा है. यह नया स्कूल इंग्लिश मीडियम है और ‘सीबीएसई’ से संबद्ध है. कम साधन वाले इसे ही पसंद करेंगे. दोनों स्कूलों के बीच एक बड़ा सा बोर्ड लगा है जिस पर स्कूल के प्रतिभाशाली और टॉपर छात्रों की तस्वीरें लगी हैं और ये सब बेशक ‘सीबीएसई’ के कोर्स वाले ही हैं.
यह एक ही स्थान पर एक साथ परिवर्तन और निरंतरता का उदाहरण है, पुराना स्कूल शिक्षा को एक न्यूनतम जरूरत के रूप में उपलब्ध कराता है और नया स्कूल आकांक्षा को बढ़ावा देता है. एक शिक्षा व्यवस्था की कहानी दीवार पर एक ही लेखनी से लिखी हुई है.
पांच दशक से भी पहले के उथल-पुथल भरे वर्षों में क्लास छोड़ कर भाग जाना और शहर के एक पुराने, अनोखे हिस्से में भटकना ज्यादा आसान था. और अंदर जाने पर सूफ़ी संत बू-अली कलंदर की 725 साल पुरानी एक खूबसूरत दरगाह थी. वे ‘मस्त मस्त’ वाली कव्वाली की कारण ज्यादा मशहूर शाहबाज कलंदर के वंशज थे. मैंने पाया कि सभी धर्मों के लोग अभी भी वहां मन्नत के धागे बांधने आते हैं लेकिन मुझे एक ऐसी चीज भी नजर आई जिस पर मैंने 55 साल पहले गौर नहीं किया होगा. जाने-माने शायर के समकालीन शायर अलताफ़ हुसेन हाली या केवल हाली का भी मकबरा है. हाली का जन्म पानीपत में 1837 में हुआ था. वे दरगाह के अहाते में ही दफ्न हैं.
दरगाह में कव्वाली चल रही है, लेकिन बदलाव दरगाह के प्राचीन विशाल प्रवेशद्वार पर नुमाया है. उसके ऊपर तिरंगा फहरा रहा है. यह आज के समय में दीवार पर लिखी इबारत है.
मात खाने वाले सबसे मशहूर शख्स
भारतीय इतिहास में कौन है जो मात खाने वाला सबसे मशहूर शख्स है? इसकी सूची बहुत लंबी होगी. कई लोग सिराज-उद-दौला का नाम लेंगे, जो प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों से हार गए थे. लेकिन 235 वर्षों के अंतर पर पानीपत में हुई लड़ाइयों में मात खाने वाले तीन शख्सों की बराबरी कोई नहीं कर सकता. पानीपात बार-बार जंग का मैदान बना क्योंकि दिल्ली की सल्तनत यमुना के पश्चिमी तट से लगे इन सपाट मैदान पर अपनी सेनाएं लाती रही ताकि पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारियों को रोका जा सके.
यहां शिकस्त खाने वाले तीन शख्सों में मैं इब्रहीम लोदी को सबसे महत्वपूर्ण मानूंगा. बाबर ने 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में उसे हराया, सल्तनत को खत्म करके मुगल वंश को स्थापित किया. साफ दिखते ईंटों से बनी लोदी की मजार शहर से दूर, जीटी रोड के नजदीक ही खाली पड़ी जमीन पर थी, जहां हम जैसे शरारती बच्चे घूमा करते थे. वैसे, वहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड उसे 1919 से ही संरक्षित स्मारक घोषित करता खड़ा होता था.
आज इसे खोजने में एक घंटा से ज्यादा लग गया. आज किसी को नहीं मालूम था कि इब्रहीम लोदी नाम का कोई आदमी था जिसकी मजार वहां थी. मजार के चारों ओर शहर का प्रसार हो गया है. कब्र इसलिए बची हुई थी क्योंकि उसके पास बच्चों के लिए लगाए गए एक झूले के साथ वहां एक छोटा-सा पार्क बना था. गूगल इस पार्क के सामने तो ला खड़ा करता है लेकिन मजार कहां है?
हम पार्क के सामने बनी दुकानों के मालिकों से पूछते रहे कि क्या उन्हें लोदी की मजार के बारे में पता है कि वह कहां है? उन्होंने मना कर दिया. यह पार्क जिस हाल में था वह लोदी को अपमान से भर सकता था, जिसने दिल्ली में एक शानदार पार्क बनवाया था. पानीपत के इस पार्क में कूड़े का ढेर लगा था, जुआरी और नशेड़ी लोगों का वह अड्डा बना हुआ था. वहां दाढ़ी वाले दो हथियारबंद सैनिकों की धातु की टूटी हुईं मूर्तियां खड़ी थीं और एक पुरानी तोप के बैरेल का आधा टुकड़ा पड़ा था, दूसरा हिस्सा गायब था. हम नहीं कह सकते कि वह तोप विजेता की थी या पराजित की. फिलहाल तो वह मूर्ति गायब होती जा रही है.
एक दुबले-पतले, हल्की दाढ़ी वाले सिख युवक को लगा कि हम लोग पत्रकार हैं, तो वह हमसे बोला, “आप मीडिया वाले इस जगह को बचाने के लिए कुछ कर सकते हैं. किसी ने किसी टूरिस्ट को यहां नहीं देखा। केवल नशेड़ी लोग जमे रहते हैं या स्कूल के दिनों में नाबालिग बच्चे एकांत की खोज में यहां आते हैं.“ मैं उसकी बातों को बेशक काफी हल्का बताकर ही प्रस्तुत कर रहा हूं.
उसने सवाल किया, “आप इसे संरक्षित स्मारक कहते हैं?” मैं वहां एएसआइ द्वारा लागे गए पत्थर को पढ़ने की कोशिश करता हूं जिस पर लिखा है—‘यहां सोया है इब्राहम लोदी…’ मौसम ने रंग को बदरंग कर दिया है. दीवार पर लिखी इबारत साफ है : 500 साल पहले मात खा चुके शख्स की परवाह कोई नहीं करता, चाहे वह हमारे इतिहास को बदल डालने वाला सबसे अहम शख्स क्यों न हो.
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