जंग क्या होती है यह न जानने वाली एक पीढ़ी के लिए पहलगाम में सैलानियों की बर्बर हत्या और उसके जवाब में पाकिस्तान पर भारत का हमला एक कठोर झटके की तरह था. भारत-पाकिस्तान जंग के दृश्य असली थे, वह अफगानिस्तान या वियतनाम युद्ध, या ‘वर्ल्ड ऑफ टैंक्स’ तथा ‘वर्ल्ड ऑफ वारशिप्स’ जैसे लोकप्रिय वीडियो गेम्स के नहीं थे. इस जंग को लेकर उत्सुक युवाओं की ओर से उठ रहे सवालों की बड़ी संख्या ने ही मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या मैं 1999 के करगिल युद्ध के बारे में अखबारों और टीवी चैनलों पर जो खबरें आ रही थीं उससे ज्यादा कुछ जानता था? अपने अनुभव के बावजूद, एक सवाल था जो मुझे परेशान कर रहा था वह यह था कि यह जंग कब बंद होगी.
‘ट्रुथ सोशल’ नामक प्लेटफॉर्म ने इस सवाल का जवाब दिया. इस प्लेटफॉर्म पर 10 मई को दिए अपने भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि भारत और पाकिस्तान “तुरंत पूर्ण संघर्ष विराम” करने को राज़ी हो गए हैं. इसके बाद भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने इस खबर की पुष्टि करते हुए कहा कि “दोनों पक्ष भारतीय समय के मुताबिक, शाम पांच के बाद सभी तरह की गोलाबारी और ज़मीनी, हवाई और समुद्री सैन्य कार्रवाई बंद कर रहे हैं”.
इसके बाद तुरंत यह सवाल उठा कि क्या जंग बंद हो गई?
अपने घर पर बातचीत में मैंने केवल सरकार द्वारा दिए गए इस बयान को दोहराया कि “डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑपरेशन्स’ 12 मई को दिन के 12 बजे फिर वार्ता करेंगे, जिससे जंग को निर्णायक रूप से बंद कर दिया जा सकता है.” लेकिन इसके कुछ देर बाद ही विदेश सचिव मिसरी ने मीडिया को जानकारी दी कि भारत और पाकिस्तान के बीच सहमति के चंद घंटों के अंदर ही संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया है, जो “उकसाने और संघर्ष को तेज़ करने” की कार्रवाई है. किसी गैर-फौजी व्यवस्था के लिए यह बड़ी मुश्किल स्थिति होती है, लेकिन भारतीय सुरक्षाबलों के लिए यह हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि उन्हें पता है कि पाकिस्तान और रावलपिंडी का फौजी जनरल हेडक्वार्टर्स अभी भी जीत हासिल करने की कोशिश कर रहा था.
भारत-पाकिस्तान संघर्षविराम क्यों नहीं टिकता?
बंटवारे के बाद से पाकिस्तानी ‘डीप स्टेट’ (सत्ता-तंत्र के फैसलों को प्रभावित करने वाली अंदरूनी मंडली) भारत से कोई लड़ाई नहीं जीत सका है, इसीलिए एक और मौका आजमाने की ‘फिर से कोशिश’ की जाती रही है.
पाकिस्तानी सत्ता-तंत्र की हावी होने की मानसिकता, जिसकी जड़ें दशकों के सियासी तेवर और सैन्य सिद्धांत में धंसी हैं, शांति के गंभीर प्रयासों को नाकाम करती रही है. भारत उसकी इस मानसिकता की कभी अनदेखी नहीं कर पाया है. भारत यह भी समझता है कि संघर्ष विराम हालांकि, सांकेतिक महत्व के होते हैं, लेकिन वह एक ऐसे पड़ोसी देश के राष्ट्रीय सोच को दूर करने में विफल रहते आए हैं, जो संघर्ष में अस्थायी बढ़ोतरी को दीर्घकालिक लाभ लेने का मौका मान लेता है और शांति को कमजोर करता है तथा भरोसे को मजबूत नहीं होने देता.
संघर्ष विरामों का लंबा इतिहास यही रहा है कि वह निरंतर विफल होते रहे हैं. वह अक्सर राजनीतिक नफा-नुकसान के खेल, सैन्य नेतृत्व, घरेलू दबावों और ऐतिहासिक शिकायतों के घालमेल के कारण विफल होते रहे हैं. संघर्ष विराम और शांति के सचमुच में कामयाब होने के लिए ज़रूरी है कि एक देश के रूप में पाकिस्तान का ढांचा मौजूदा ढांचे से बेहतर हो.
जबकि पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम हमेशा विफल होता रहा है और उस मुल्क में आतंकवाद के ढांचे को ध्वस्त करने में अंतर्राष्ट्रीय दबाव ने शायद ही कोई भूमिका निभाई है, ऐसे में भारत सीमा पार के आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ों पर भरोसा करने की हदों को कबूल करने लगा है. प्रतीकात्मक रूप से ताकतवर दिखने वाले ये गठजोड़ अक्सर कार्रवाई करने में विफल रहे हैं, खासकर इसलिए कि किसी देश के नागरिक और नागरिकता विहीन तत्वों के बीच बहुत बारीक फर्क होता है.
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भारतीय कार्रवाई का बदलता रूप
भारत और पाकिस्तान के बीच जारी जंग आतंकवाद के खतरे के प्रति भारत की कुल रणनीति में बदलाव को उजागर करती है. इसका लक्ष्य भारत के खिलाफ छद्मयुद्ध करने के लिए नागरिकता विहीन तत्वों का इस्तेमाल करने वाले मुल्क को निशाने पर लेना है.
पहले तो ऐसा लगता है कि भारत ने सरकारी संस्थाओं और नागरिकता विहीन तत्वों के बीच सैद्धांतिक स्तर पर भेद करना बंद कर दिया है. वह उन सबको खतरा पैदा करने वाली एक इकाई के रूप में देखने लगा है, चाहे वह बदला लेने पर उतारू व्यक्ति हों, या वह हों जो उनकी हरकतों को वित्तीय मदद देते हैं, उन्हें शरण और समर्थन देते हैं या उनके ‘मास्टरमाइंड’ हैं. इसलिए, भारत ने जब ‘जवाब देने के अधिकार’ का हाल में इस्तेमाल किया तो उसे अपने देश में ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर समर्थन मिला.
दूसरे, ‘अमन की आशा’ जैसी पहल को लंबे समय से समर्थन दे रहे भारतीय शांतिदूतों ने अंततः शायद यह समझ बना ली है कि ‘अपने पड़ोसी’ के स्वाभाविक चरित्र के मुताबिक, ही कार्रवाई करना अपने देश की सुरक्षा की कुंजी है और उससे बदल जाने की उम्मीद रखना सबसे बड़ी भ्रांति है. यह समझ भारत को सही लक्ष्यों की बढ़ने की ऊर्जा देगी, खासकर इसलिए कि उसने घरेलू तथा वैश्विक स्तरों पर कुछ लक्ष्य निश्चित कर लिये हैं. भारत को अगर शांति के साथ प्रगति करना है और वह वैश्विक व्यवस्था को भंग नहीं करना चाहता तो उसे सबसे पहले दूसरे पक्ष के मन में किसी गलत कार्रवाई के प्रति खौफ पैदा करना ही होगा, जो वह पिछले दशकों में नहीं कर पाया.
तीसरे, भारत मुख्यतः दूसरे पक्ष की ओर से उल्लंघनों के कारण विफल हुए संघर्ष विरामों के आधार पर अपने संदेहों और कठोर रुख को जायज़ ठहरा सकता है. इन विफलताओं ने इतनी घोर निराशा पैदा की है कि उसे यकीन नहीं होता कि दूसरा पक्ष ‘निश्चित’, ‘सार्थक’ और ‘निर्णायक’ सरीखे कूटनीतिक शब्दों का कोई मोल मानता है या नहीं. भारत इन शब्दों को अपने रणनीतिक शब्दकोश से बाहर कर देना चाहेगा क्योंकि इन्हें पहली और सबसे मजबूत सुरक्षा ‘सैन्य प्रतिरोधक क्षमता’ से ही मिल सकती है.
उभरते सवालों की ही बात करें, तो केवल वक्त और लोगों की समझदारी ही तय कर सकती है कि संघर्ष विराम का असली अर्थ क्या है. क्या यह सिर्फ तोपों का मुंह बंद हो जाना ही है, या एक गहरी और कठिन वार्ता की शुरुआत है? यह जख्म को भरने का समय देना है, या बड़ी, पूर्ण जंग की तैयारी का अंतराल है? अपने सबसे आशापूर्ण अर्थ में यह शायद अविश्वास के बोझ से बोझिल इतिहासों के बीच एक कमजोर ‘हैंडशेक’ है.
(ऋषि गुप्ता विश्व मामलों के जानकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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