कोलकाता: 2006 में जब तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ‘सिंडिकेट्स’ लेकर आई थी, तो वो कोलकाता के एक उपनगर में, बेगोज़गारी से निपटने का एक प्रयास था.
सरकार उस समय राजरहाट न्यूटाउन को विकसित कर रही थी, और सिंडिकेट्स को- जिसमें उन परिवारों के युवक शामिल थे, जिनकी ज़मीन उस परियोजना में चली गई थी- बिल्डर्स को निर्माण सामग्री सप्लाई करनी थी.
लेकिन, समय के साथ ये सिंडिकेट्स संगठित होकर, भ्रष्टाचार और जबरन वसूली करने वाले रैकेट्स में तब्दील हो गए हैं, जो पश्चिम बंगाल में जीवन के हर क्षेत्र, खासकर निर्माण और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्रों में नज़र आते हैं.
ये बदलाव ज़्यादातर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार के शासन काल में आया है, इसलिए बीजेपी अब ‘सिंडिकेट राज’ को एक चुनावी मुद्दा बनाने जा रही है, ठीक वैसे ही, जैसे उसने 2019 लोकसभा चुनावों से पहले किया था.
मंगलवार को, हुगली में एक रैली को संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सिंडिकेट्स’ की व्याख्या की.
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2019 में भी बीजेपी ने उठाया था सिंडिकेट का मुद्दा
मोदी ने कहा, ‘लोग राज्य में निवेश करना चाहते हैं, लेकिन यहां पर कट- मनी कल्चर व्याप्त है. यहां पर सिंडिकेट्स राज कर रहे हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘और इस सब से निवेशक भाग जाते हैं. निर्माण क्षेत्र की बात छोड़िए, किसी जगह को किराए या पट्टे पर लेने का भी मतलब है कि दलालों को पैसा दीजिए’.
मोदी ने ‘सिंडिकेट्स राज’ का मुद्दा, 2019 में भी उठाया था, और अब ये पश्चिम बंगाल में उनके साथ साथ, गृह मंत्री अमित शाह के भाषणों में भी बार-बार उठाया जा रहा है.
अपनी ओर से इसका जवाब देते हुए, तृणमूल कांग्रेस ने कहा है कि जो नेता इन सिंडिकेट्स को चलाया करते थे, वो अब बीजेपी में शामिल हो चुके हैं.
तृणमूल प्रवक्ता कुनाल घोष ने कहा, ‘सब्यसाची दत्ता जैसे तृणमूल विधायक, जिनपर सिडिकेट्स चलाने का आरोप है, अब बीजेपी में हैं. वो पीएम को समझा सकते हैं कि सिंडिकेट्स किस तरह काम करते हैं’.
लेकिन ये सिंडिकेट्स आख़िर हैं क्या? इनकी शुरूआत कैसे हुई, और उन्होंने ये बदनामी कैसे हासिल की? दिप्रिंट आपको समझाता है.
सिंडिकेट के प्रारंभिक वर्ष
वाम मोर्चा सरकार के अंतर्गत, युवा लोगों के छोटे छोटे समूहों ने स्थानीय सिंडिकेट्स बना लिए, जो संबंधित स्थानीय निकायों में सहकारी समितियों के तौर पर पंजीकृत होते थे.
उन्हें प्रमोटर्स, बिल्डर्स, और प्रोजेक्ट डेवलपर्स को, बाज़ार से ऊंची दरों पर, निर्माण के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराना होता था. लेकिन ये राजरहाट न्यूटाउन तक ही सीमित था. इस स्कीम का उद्देश्य ऐसे कुछ युवाओं को, रोज़गार सुनिश्चित कराना था जिनके परिवार, उस क्षेत्र में इनफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए, भूमि अधिग्रहण की वजह से विस्थापित हो गए थे.
पश्चिम बंगाल आवास विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, शुरूआती वर्षों में डेवलपर्स पर ऐसा कोई दबाव नहीं होता था, कि वो अपनी ख़रीद सिंडिकेट्स से ही करेंगे.
अधिकारी ने कहा, ‘ये सिस्टम न्यूटाउन राजरहाट इलाक़े तक ही सीमित था. डेवलपर पर कोई दबाव नहीं था, कि उन्हीं से ख़रीदना है; वो सिर्फ अनुरोध होता था. अब वो सिस्टम नहीं रहा है’.
सीपीआई (एम) लीडर सुजान चक्रवर्ती ने दिप्रिंट से कहा, ‘वाम मोर्चा सरकार तभी कार्रवाई करती थी, जब सिंडिकेट्स क़ानून तोड़ते थे, या बिल्डर्स पर दबाव डालते थे.’
उन्होंने कहा, ‘हमारी सरकार में जो सिंडिकेट सिस्टम था, वो दरअस्ल सहकारी समिति की शक्ल में उन लोगों के लिए था, जिनकी ज़मीनें चली गईं थीं’. उन्होंने आगे कहा, ‘वो एक रेट तय कर देते थे, और उसमें डराने-धमकाने की बात नहीं होती थी. अगर किसी को को-ऑपरेटिव के खिलाफ शिकायत मिलती थी, तो सरकार सख़्त कार्रवाई करती थी. ये सिस्टम उन लोगों की सहायता के लिए लाया गया था, जिनकी ज़मीनें चली गईं थीं’.
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बदलाव
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर पार्था प्रतिम बिस्वास जैसे विशेषज्ञ, का कहना है कि ये बदलाव 2008 के पंचायत चुनावों से शुरू हुआ, जब यहां स्थानीय निकायों के चुनावों में जीत हासिल करने के बाद, राजरहाट न्यूटाउन क्षेत्र में तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव क़ायम हुआ.
लेकिन, दिलचस्प ये है कि कोई बाधा खड़ी होने की बजाय, टीएमसी और सीपीआई(एम) कार्यकर्ताओं ने, कट्टर विरोधी होने के बावजूद, साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया.
2011 तक, जब तृणमूल पहली बात सत्ता में आई, तो राजरहाट न्यूटाउन में, पार्टी के नियंत्रण में 175 सिंडिकेट्स थे, जबकि सीपीआई(एम) ने 215 सिंडिकेट्स पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखा.
उसके बाद से, ये सिंडिकेट्स न सिर्फ सूबे के दूसरे हिस्सों में फैल गए हैं, बल्कि अब ये ज़मीन के सौदों से लेकर कॉलेजों में दाख़िलों तक, अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में नज़र आते हैं.
प्रोफेसर बिस्वास ने कहा कि, सिंडिकेट राज के फलने-फूलने की वजह, राज्य में ‘बेरोज़गारी की ऊंची’ दर रही है.
बिस्वास ने कहा, ‘वाम सरकार के दौरान, निर्माण सामग्री की सप्लाई के लिए, जब सिंडिकेट सिस्टम शुरू हुआ, तो कारोबार का एक हिस्सा सरकारी नियंत्रण में था. लेकिन तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद, सरकारी नियंत्रण की व्यवस्था खत्म हो गई’. उन्होंने आगे कहा, ‘टीएमसी ने इसे नियंत्रित करना शुरू कर दिया. आजकल, ज़मीन के सौदों, श्रमिकों को काम पर रखने, प्रॉपर्टी को किराए पर लेने, यहां तक कि कॉलेजों में दाख़िलों के लिए भी, लोगों को सिंडिकेट्स को रिश्वत देनी पड़ती है’.
प्रोफेसर के अनुसार, ज़मीन क़ानूनों में हुए बदलावों से, सिंडिकेट्स को फलने-फूलने में मदद मिली. उन्होंने कहा, ‘ममता सरकार एक क़ानून लेकर आई थी, कि निवेशकों को ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा बाज़ार से ख़रीदना होगा’. उन्होंने ये भी कहा, ‘बंगाल में भूमि जोत छोटे छोटे टुकड़ों में बंटी है, और इसी में सिंडिकेट्स और उनकी रंगदारी के हथकंडे, अपना खेल दिखाते हैं’.
प्रोफेसर ने ये भी कहा कि टीएमसी सरकार ने इन सिंडिकेट्स को संरक्षण दिया, लेकिन साथ ही ये भी कहा कि पार्टी का ये कहना सही है, कि इसके जिन नेताओं पर रंगदारी के आरोप हैं, वो अब बीजेपी में हैं.
बिस्वास ने कहा, ‘सरकार अप्रत्यक्ष तरीक़े से इन सिडिकेट्स की सरपरस्ती करती है, और पुलिस उन्हें बचाती है. सत्तारूढ़ पार्टी गुटबाज़ी का शिकार है, इसलिए सिंडिकेट्स की संख्या कई गुना बढ़ गई है. बंगाल में ये एक ज्वलंत मुद्दा है’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन बीजेपी ने उन सब तृणमूल नेताओं को अपने अंदर शामिल कर लिया है, जिन्हें इस सिंडिकेट राज के पीछे असली दिमाग़ बताया जाता है.
‘सिंडिकेट्स का कोई सियासी रंग भी नहीं है, लेकिन सत्ताधारी पार्टी उन्हें प्रोत्साहित करती है. सिंडिकेट्स के अंदर आप सभी राजनीतिक दलों के लोगों को, एक साथ रहते हुए देख सकते हैं, और किसी क्षेत्र विशेष में अपनी ताक़त का सहारा लेते हुए, सभी पार्टियां सिंडिकेट्स चलाती हैं. ये शासन के पतन को दर्शाता है’.
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राजनीतिक हमले
राज्य में इस साल हाईप्रोफाइल विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं, इसलिए पार्टियों ने इस मुद्दे पर तीखी बयानबाज़ियां शुरू कर दी हैं.
बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह, जो एक पूर्व तृणमूल विधायक हैं, ने कहा, ‘इसे सीपीआई(एम) ने शुरू किया था, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने इसे एक इंडस्ट्री बना दिया…तृणमूल अपना पार्टी फंड सिंडिकेट्स से ही जुटाती है…ये पैसा सीधे शीर्ष तृणमूल नेताओं को जाता है’.
सिंह ने इस आरोप का भी खंडन किया, बीजेपी के अंदर अब तृणमूल के वो नेता मौजूद हैं, जिन पर जबरन वसूली के आरोप हैं. सिंह ने कहा, ‘सब्यसाची दत्ता दो साल पहले हमारी पार्टी में आए थे. तो क्या ‘सिंडिकेट राज’ बंद हो गया? ये कभी बंद नहीं होगा चूंकि इसे शीर्ष तृणमूल नेता चलाते हैं’. उन्होंने ये भी कहा, ‘वो सिंडिकेट्स से करोड़ों रुपए कमाते हैं. सिंडिकेट्स डराने-धमकाने और जबरन वसूली का एक संगठित रूप हैं’.
तृणमूल प्रवक्ता कुनाल घोष ने दोहराया कि बीजेपी को इस मुद्दे पर बोलने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.
उन्होंने कहा, ‘अगर डराने-धमकाने या जबरन वसूली की कोई शिकायत होती है, तो सरकार कार्रवाई करती है. बल्कि हमारी पार्टी का एक पार्षद भी गिरफ्तार किया गया था, चूंकि उसके खिलाफ रंगदारी की शिकायतें मिली थीं’. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन बीजेपी ने उन सब को क्यों ले लिया, जो सिंडिकेट राज के मास्टरमाइंड थे? मोदी जी के पास सिंडिकेट राज के बारे में बोलने का, कोई नैतिक अधिकार नहीं है’.
तृणमूल सांसद सौगत रॉय ने बीजेपी पर ‘फर्ज़ी कहानियां’ गढ़ने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा, ‘पहली बात, सिंडिकेट्स को हम लेकर नहीं आए; वो सीपीआई(एम) थी’. उन्होंने आगे कहा, ‘हमने उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की है. हम जानते हैं कि सिंडिकेट्स से जुड़े कुछ अहम मुद्दे हैं, लेकिन सरकार कार्रवाई करती है’.
राज्यसभा में सीपीआई(एम) सांसद, बिकाश भट्टाचार्य ने कहा, ‘जो सिंडिकेट सिस्टम हमारी सरकार ने शुरू किया था, और जो तृणमूल सरकार चला रही है, उनमें कोई समानता नहीं है. हमारा सिस्टम सहयोग पर आधारित था, लेकिन तृणमूल ज़बरदस्ती करती है’.
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