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Thursday, 21 November, 2024
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नेशनल हेराल्ड- ED-कांग्रेस विवाद में फंसे अखबार का 80 साल का सफर आजादी की लड़ाई से शुरू हुआ था

आजादी के संघर्ष का हिस्सा होने से लेकर, बाद में ये अख़बार इंदिरा गांधी के मुखपत्र के तौर जाना जाने लगा. खासकर राहुल और सेनिया की ED जांच के बाद, अब ये अपने खिलाफ केस को लेकर खबरों में है.

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नई दिल्ली: भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में नेशनल हेराल्ड का एक अनेखा स्थान है. बहरहाल, बहुत सारे अख़बार ये शेख़ी नहीं बघार सकते कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनके संस्थापक रहे हैं, और के रामा राव, मुनिकोण्डा चलपति राव तथा ख़ुशवंत सिंह जैसी हस्तियां उसकी संपादक रही हैं.

आज, कांग्रेस कार्यकर्त्ता अख़बार की प्रकाशक कंपनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के स्वामित्व वाली संपत्तियों को, कथित तौर पर हथियाने के सिलसिले में, प्रवर्त्तन निदेशालय द्वारा सोनिया और राहुल गांधी से की जा रही पूछताछ का विरोध कर रहे हैं. मंगलवार को ईडी ने हेराल्ड केस के सिलसिले में कई जगह छापेमारियां कीं.

1938 में लखनऊ से एक दैनिक के रूप में शुरुआत करके,नेशनल हेराल्ड ने आज़ादी के संघर्ष में एक अहम भूमिका अदा की, 1960 और 1970 के दशकों में काफी लोकप्रियता पाई, लेकिन आपात काल के बाद की अवधि में उसके संघर्ष का दौर शुरू हो गया, जिसके बाद 2008 में वो बंद हो गया.

दैनिक के शुरुआती सालों में, 1946 तक रामा राव ने उसकी बागडोर संभाले रखी, भले ही उसकी शुरुआती लोकप्रियता नेहरू के लेखों की वजह से रही हो. जहां महात्मा गांधी ने उन्हें एक ‘जुझारू संपादक’ बताया, वहीं नेहरू ने कहा कि ‘रामा राव एक आदर्शों और मिशन वाले इंसान हैं’.

1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो अंग्रेज़ों ने अख़बार पर पाबंदी लगा दी. एक साल बाद जब 1945 में उसे फिर से चालू किया गया, तो चलपति राव ने संपादक का ज़िम्मा संभाल लिया, और तीन दशकों से अधिक समय तक वो अख़बार के प्रमुख बने रहे.

नेहरू से नज़दीकी होने के बावजूद, राव अपने संपादकीयों में उनकी आलोचना करते थे. अख़बार के रजत जयंती समारोह में नेहरू ने अपने भाषण में कहा था, ‘लोग समझते हैं कि ये मेरा अख़बार है. ये दरअसल चलपति राव का अख़बार है; आज ये जो कुछ भी है, उसे उन्होंने ही बनाया है’.

फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित अपने लेख में वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल ने अख़बार के पतन के शुरुआती सालों का विस्तार से वर्णन किया.

उन्होंने लिखा, ‘अंग्रेज़ी पत्रकारिता के सपनों की दुनिया में, कहीं कुछ ग़लत हो रहा है इसका अहसास पहली बार 1977 में हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आ गई, और इंदिरा गांधी तक को हार का मुंह देखना पड़ा. हमारे संपादकों ने हमसे कहा कि हमारे सामने परेशानियां आ सकती हैं. लेकिन 1979 तक कुछ नहीं हुआ, जब पेपर को अपना पहला लॉकआउट देखना पड़ा. ये वो दिन थे जब ग़ैर-पेशेवर लोगों ने ऑफिस में अपनी मौजूदगी का अहसास कराना शुरू कर दिया था’.

लाल ने याद किया, ‘अकसर बाहर चहलक़दमी करते हुए, हम एक कार को गेट के बाहर रुकते हुए देखते थे, जिसमें से कुछ लोग एक बड़ा सूटकेस लेकर उतरते थे. हमें बताया जाता था कि अख़बारी कागज़ और वेतन के आंशिक भुगतान के लिए नक़दी भेजी गई है’.


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‘स्टाफ की अधिकता, विज्ञापन आय की कमी’

1977 में इमरजेंसी ख़त्म हो जाने के बाद, हेराल्ड की मुश्किलें और बढ़ गईं. 21 महीने की अवधि में, अख़बार के खिलाफ पहले ही भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप लग रहे थे.

अपनी किताब, इमरजेंसी: अ पर्सनल हिस्ट्री में, वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने लिखा: ‘नेशनल हेराल्ड ने, जिसे जवाहरलाल नेहरू ने स्थापित किया था, लगातार इमरजेंसी का समर्थन किया, और एहतियात के साथ अपने मास्टहेड से ये उद्धरण हटा दिया ‘आज़ादी ख़तरे में है, अपनी पूरी ताक़त से उसका बचाव कीजिए’.

राव ने 1978 में अख़बार छोड़ दिया. उनके बाद खुशवंत सिंह आए, लेकिन कुछ महीनों के भीतर उन्होंने इस्तीफा दे दिया, जिससे संकेत मिलता था कि अख़बार और उसका प्रबंधन कितनी मुसीबतों का सामना कर रहे थे.

1978 में इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में संकेत दिया गया, कि आपातकाल से पहले दिल्ली में हेराल्ड का सर्क्युलेशन 15,000 से अधिक नहीं था. रिपोर्ट में कहा गया, ‘लखनऊ संस्करण थोड़ा बेहतर (30,000 सर्क्युलेशन) कर रहा था, लेकिन इमरजेंसी के आने के साथ ही आख़बार में तेज़ी आ गई, न केवल विज्ञापन आय में बल्कि सर्क्युलेशन में भी’.

1977 में राज्यसभा में नेशनल हेराल्ड के दिल्ली संस्करण के बंद होने पर चल रही एक बहस के दौरान, सीपीआई सांसद भूपेश गुप्ता ने कहा, ‘जहां तक अख़बार का सवाल है, नेहरू परंपरा बहुत पहले ही ख़त्म हो गई है. लेकिन जो बच गया है उसे संभालकर रखा जाना चाहिए. कुछ भी हो, ये एक जनहित का मामला है, और बहुत महत्वपूर्ण है’.

अख़बार को बंद करने की ‘साज़िश’ के आरोपों के बीच, सूचना एवं प्रसारण मंत्री एलके आडवाणी ने सदन को संबोधित करते हुए कहा, कि सरकार को ‘ख़ुशी होगी अगर प्रबंधन अपने दम पर अख़बार को उसी नीति और उसी नज़रिए के साथ जारी रख सके’.

आडवाणी ने कहा, ‘…सियासी नीति के आधार पर किसी अख़बार के पक्ष या विपक्ष में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए’.

2008 में, वित्तीय घाटों का हवाला देते हुए, एजेएल ने आख़िरकार दैनिक और उसके साथी प्रकाशनों नवजीवन तथा क़ौमी आवाज़ को छापना बंद कर दिया.

आईएएनएस ने ख़बर दी, ‘स्टाफ की अधिकता, विशेषकर प्रेस तथा ग़ैर-पत्रकारों की, और विज्ञापन आय की कमी कथित तौर पर मुख्य कारण थे, जिनकी वजह से अख़बार भारी घाटे में चला गया’.

आठ साल बाद, एजेएल ने सभी तीनों प्रकाशनों को फिर से शुरू करने का फैसला किया, और नेशनल हेराल्ड एक डिजिटल अवतार में फिर सामने आ गया.

लेकिन उसकी मुश्किलें कम नहीं हुईं. 2014 में दिल्ली की एक अदालत ने बीजेपी राज्यसभा सांसद सुब्राह्मण्यम स्वामी के आरोपों की जांच करने का फैसला किया, कि गांधी परिवार ने अपनी निजी कंपनी यंग इंडियन के ज़रिए, धोखाधड़ी से एजेएल की संपत्तियों को हथिया लिया था. अगले साल, ईडी ने इस मामले को फिर से खोलने का फैसला किया. गांधी परिवार के अलावा स्वामी ने इस मामले में कांग्रेस नेताओं मोतीलाल वोरा तथा ऑस्कर फर्नांण्डिस, उद्यमी सैम पित्रोदा, और पत्रकार सुमन दूबे के नाम भी घसीट लिए.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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