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Sunday, 22 December, 2024
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शिवसेना का ‘नरम’ पड़ता रुख- बाल ठाकरे वाली आक्रामक पार्टी उद्धव के दौर में कैसे उदारवादी हो गई

मुंबई दंगे के 27 साल बाद जिसमें शिवसेना की भूमिक थी, अब वो अयोध्या में राम मंदिर का श्रेय लेने की तैयारी में है लेकिन पार्टी और कैडर के भीतर बहुत कुछ बदल चुका है.

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मुंबई: अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब 4 जनवरी 1993 को मुंबई में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए तब शिवसेना के तत्कालीन विधायक गजानन कीर्तिकर ने कथित तौर पर पुलिस के आदेश के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया था.

जैसा कि श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में बताया गया है, कीर्तिकर की अगुवाई में भीड़ ने मुसलमानों के घरों पर पथराव किया, एक मुस्लिम पर तलवारों से हमला किया और एक मस्जिद को नुकसान पहुंचाया. एक विशेष अदालत ने 2008 में दंगों के मामले में सभी आरोपों से कीर्तिकर को बरी कर दिया.

श्रीकृष्ण आयोग, जिसे 1992-93 के मुंबई दंगों की जांच के लिए गठित किया गया था, उनकी रिपोर्ट में दर्ज कई उग्र शिव सैनिकों में से एक कीर्तिकर थे. आयोग ने शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को भी दोषी ठहराया था.

1998 में, जब शिवसेना की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने आयोग की रिपोर्ट पर एक कमजोर कार्रवाई रिपोर्ट दायर की, तो विपक्ष ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के नवाब मलिक के साथ विरोध किया और राज्य विधानसभा के बाहर आग लगा दी.

सत्ताईस साल बाद, जैसा कि शिवसेना 5 अगस्त को पार्टी अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के भूमि पूजन  में शामिल होने की बात के साथ अयोध्या में राम मंदिर का श्रेय लेने की तैयारी कर रही है, पार्टी और उसके कैडर के भीतर बहुत कुछ बदल गया है.

उद्धव और आदित्य ठाकरे की शिवसेना 1990 के दशक के आक्रामक, भड़कीले और सांप्रदायिक राजनीतिक संगठन की छाया मात्र है और इसके बाद उसने पिछले साल अपने पूर्व वैचारिक प्रतिद्वंदियों एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. एनसीपी के मलिक, जो 1998 में बाल ठाकरे के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे थे, अब उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली कैबिनेट में मंत्री हैं. इसके अलावा कीर्तिकर, अपने समय के अधिकांश लोगों की तरह, केवल एक सांसद हैं.


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शिवसेना नरम क्यों हो गई है

2014 के आसपास शिवसेना की राजनीति ने उदारवादी मोड़ लेना शुरू कर दिया क्योंकि मुंबई का जनसांख्यिकी धीरे-धीरे बदल गया और पार्टी के भीतर आदित्य ठाकरे का प्रभुत्व बढ़ गया. पार्टी द्वारा किया जाने वाला वेलेंटाइन डे का विरोध प्रदर्शन ठाकरे के कारण बंद हो गया.

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), 25 साल की शिवसेना की सहयोगी, महाराष्ट्र में आक्रामक रूप से नज़र गड़ाए हुए, अपने हिंदुत्व के एजेंडे का समर्थन करते हुए शिवसेना के कोर वोट बैंक को आकर्षित करने और युवाओं को मुंबई के महानगरीय कॉकटेल और तेजी से विकास के बारे बताने लगी.

और 2017 के मुंबई के नागरिक चुनावों के मद्देनज़र, जिसे शिवसेना और बीजेपी ने अलग-अलग लड़ा था, पार्टी के गढ़ रहे शहर पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए शिवसेना अपनी राजनीतिक रणनीति को फिर से बनाने के लिए मजबूर थी.

परंपरागत रूप से भगवा गठबंधन में, मुंबई के मराठी बहुल इलाकों में शिवसेना का मुकाबला होगा, जबकि गुजराती और उत्तर भारतीय बहुल वार्ड भाजपा में जाएंगे, जहां शिवसेना की सीमित उपस्थिति थी.

शिवसेना ने उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में अपनी छवि को नरम किया और युवा मतदाताओं से उनकी भाषा में बोलने के लिए अपने बेटे आदित्य को आगे बढ़ाया.

ऐसा देश जहां कुल आबादी का लगभग 50 प्रतिशत मतदाता है- 762 मिलियन में से 378.6 मिलियन- 18 से 35 वर्ष की आयु वर्ग में आता है, मुंबई और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में मतदाता युवा हैं.

आदित्य ने मुंबई की नाइटलाइफ खोलने, उच्च शिक्षा में सुधार करने, कलाकारों और संगीतकारों के लिए सड़कों का निर्माण करने, अधिक ग्रीन एरिया और फुटबॉल के मैदान होने और अपने कारणों से डिनो मोरिया, अक्षय कुमार और आलिया भट्ट जैसी हस्तियों को लाने के बारे में बात की.

इस बीच, शिवसेना ने गुजराती समुदाय के नेताओं को शामिल किया, छठ पूजा आयोजित की और मुस्लिम उम्मीदवारों को नागरिक चुनावों में उतारा और अपना पहला मुस्लिम नगरसेवक चुना.

हालांकि, अभी भी ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें पार्टी की हिंसक आक्रामकता, राजनैतिक संगठन का आकार कैसा हो, इसके बारे में बताया गया, जैसे कि ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रमुख सुधींद्र कुलकर्णी पर स्याही से हमला करना या महाराष्ट्र सदन के मुस्लिम कर्मचारियों को अपना रमजान उपवास तोड़ने के लिए मजबूर करना. लेकिन शिवसेना प्रमुख के रूप में उद्धव ठाकरे ने कभी भी अपने पिता के विपरीत इन घटनाओं का मुखर समर्थन नहीं किया.

शिवसेना, जो पिछले कुछ वर्षों में एक सतर्क संगठन से अधिक आक्रामक रूप में सामने आई, ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ सत्ता में आने के बाद अपनी आक्रामकता को आगे बढ़ाया, पारंपरिक रूप से अपने वैचारिक प्रतिद्वंदियों के साथ.

हर चुनावी भाषण में लोगों को यह बताया गया कि 1992-93 के दंगों के दौरान मुंबई के हिंदुओं को बचाने वाली शिवसेना ही थी, सीएम ठाकरे ने शपथ ग्रहण करने के तुरंत बाद, यह कहा कि पार्टी की गलती थी कि धर्म और राजनीति को मिलाया गया.

राजनीतिक टिप्पणीकार हेमंत देसाई ने कहा, ‘इस साल की शुरुआत में सीएम अयोध्या गए थे क्योंकि पार्टी अपने मूल दक्षिणपंथी मतदाताओं को भाजपा के हाथों नहीं खोना चाहती है और शिवसेना के नेता उनके बारे में बयान दे रहे हैं जैसे मंदिर के भूमि पूजन के लिए वे जा रहे हैं क्योंकि पार्टी भाजपा को केवल श्रेय नहीं लेने देना चाहती.’ ‘लेकिन अनिवार्य रूप से, उद्धव और आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना एक केंद्रवादी चेहरे की ओर बढ़ रही है.’

अब मुंबई उत्तर पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र से सांसद कीर्तिकर का कहना है कि शिवसेना नहीं बदली है. उन्होंने कहा, ‘मैंने अपना पूरा जीवन रोजगार में मराठी लोगों को न्याय दिलाने में बिताया. मैंने आंदोलन, घेराव, मोर्चा आयोजित किए. यहां तक ​​कि शिवसेना की शैली में तोड-फोड भी की’.

उन्होंने कहा, ‘इससे पहले हम लोगों को उस मुद्दे पर ध्यान देने के लिए सड़कों पर आना पड़ा जो हम उठा रहे हैं. अब मैं एक कॉल कर सकता हूं और काम पूरा हो जाता है.’

शिवसेना के एक अन्य वरिष्ठ नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि शिवसेना उन्हीं अड़चनों से बंधी है जो किसी भी सत्ताधारी पार्टी की है. उन्होंने कहा, ‘हमें प्रशासन या किसी और सरकार के लिए परेशानी नहीं खड़ी करनी चाहिए.’

मिसाल के तौर पर, इस महीने की शुरुआत में, शिवसेना के विधायक प्रताप सरनाईक ने राज्य के गृह मंत्री को पत्र लिखकर अरब सागर में प्रस्तावित छत्रपति शिवाजी स्मारक पर मजाक करने के लिए एक स्टैंड-अप कॉमेडियन की गिरफ्तारी की मांग की.

यदि यह शिवसेना का मूल अवतार होता तो विरोध केवल राज्य के गृह मंत्री को पत्र द्वारा नहीं, बल्कि सड़क पर प्रदर्शनों द्वारा दर्ज किया गया होता.

नेता ने कहा, ‘उद्धव साहब राज्य का नेतृत्व कर रहे हैं और अगर हम आंदोलन करते तो हम अपने स्वयं के पुलिस बल को परेशान करेंगे.’

उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा हमने असहमति वाली विचारधारा वाले दलों की सरकार बनाई है.’ ‘हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह चलता रहे और हमें पता है कि उद्धव साहब के लिए यह कितना मुश्किल है. कैडर अनावश्यक परेशानी पैदा करने से बेहतर करना जानता है.’

हालांकि, अब भी पार्टी अपने मूल मतदाता आधार पर चलती है. उदाहरण के लिए, शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने गुरुवार को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के खिलाफ एक प्रदर्शन किया, जिसमें कहा कि उन्होंने उनके आइकन, मराठा योद्धा राजा शिवाजी का अनादर किया है.


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पुराने लोग या तो चुप हो गए या शिवसेना के सांचे में ढल गए

शिवसेना के कुछ पुराने लोग और हार्डलाइनर जैसे मनोहर जोशी, लीलाधर डाके और यहां तक ​​कि दिवाकर रावते भी अब पार्टी का अंदरूनी हिस्सा नहीं हैं.

कीर्तिकर और शिवसेना के विधायक रवींद्र वायकर जैसे 1993 के दंगों के आरोपों में भी आरोपित हैं और बरी हो चुके कुछ लोगों ने खुद को उस राजनीति के ब्रांड को फिट करने के लिए ढाला है जो शिवसेना के नेतृत्व में अब प्रचलित है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि नारायण राणे और राज ठाकरे के अपने कई कट्टर नेताओं के साथ पार्टी से बाहर होने के कारण शिवसेना में कुछ कमी हुई. पूर्व सीएम जोशी धीरे-धीरे दूर हो गए क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद पार्टी की बागडोर संभालने वाले उद्धव ठाकरे की नेतृत्व शैली की उन्होंने आलोचना की थी.

रावते और रामदास कदम जैसे कट्टर नेताओं ने अंततः उद्धव ठाकरे को छोड़ दिया, क्योंकि पत्नी रश्मि, पुत्र आदित्य, सचिव मिलिंद नार्वेकर और देसाई, एकनाथ शिंदे, अनिल परब जैसे मंत्री उनके खास लोगों में शामिल हो गए.

शिवसेना के कई अन्य पुराने नेताओं का निधन हो गया है. इसमें मधुकर सरपोतदार जैसे नेता शामिल हैं, जिन्हें 1993 के दंगों के मामले में ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया था, मोरेश्वर सेव, जिन्होंने बाबरी मस्जिद के लिए शिवसेना के धड़े का नेतृत्व किया और प्रमोद नवलकर और दत्ता नलवाडे सहित अन्य लोग शामिल हैं.

राजनीतिक विश्लेषक देसाई ने कहा, ‘पुराने लोगों के बीच से, संजय राउत अभी भी पार्टी के प्रमुख नेतृत्व में से हैं और हर बार कड़े बयान देते रहते हैं.’ ‘यह शिवसेना को अपने मूल मतदाता आधार से बात करने में मदद करता है. लेकिन कुछ मौकों पर पार्टी नेतृत्व ने उनके बयानों से खुद को दूर कर लिया.’

मिसाल के तौर पर, इस साल की शुरुआत में, राउत ने कहा था कि विनायक दामोदर सावरकर के लिए भारत रत्न का विरोध करने वालों को जेल में डाल देना चाहिए, जिसपर आदित्य ठाकरे को कहना पड़ा कि यह राज्य सभा सांसद की निजी राय थी.

शिवसेना के एक पदाधिकारी ने कहा, ‘शिवसेना के मौजूदा नेताओं में (पार्टी में नेताओं के सबसे बड़े पायदान) कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सड़कों पर निकले और अतीत की तरह आंदोलन करे.’

पार्टी के नेताओं का कहना है कि शिवसेना भवन अब उस तरह का राजनीतिक दफ्तर नहीं रह गया है जैसा कि बाल ठाकरे के दौर में हुआ करता था, जब काफी सारे लोग उनसे मिलने आया करते थे.

शिवसेना के पदाधिकारी ने कहा, ‘मैं अभी शिवसेना भवन से वापस आया हूं. बहुत कम ही नेता अब नियमित रूप से वहां जाते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘अब वैसी भावना नहीं है.’


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