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Thursday, 19 December, 2024
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ठाकरे की आवाज, सामना की समझ, कट्टर BJP आलोचक- सेना के शीर्ष पायदान तक कैसे पहुंचे संजय राउत

पूर्व मराठी पत्रकार 1980 के दशक में सेना से जुड़ गए थे, और एक समय राज ठाकरे के क़रीबी थे. अपनी ज़बर्दस्त तरक़्क़ी के चलते उन्होंने बहुत से दुश्मन बना लिए, जिनमें कुछ पार्टी के अंदर भी थे.

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मुम्बई: रविवार को जब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के अधिकारी उन्हें अपने ऑफिस ले जाने की तैयारी कर रहे थे, तो शिवसेना सांसद संजय राउत ने कसकर अपनी मां को गले लगाया, जिसकी तस्वीरें वायरल हो गईं.

सेना मुखपत्रसामना के अनुसार, जिसके वो कार्यकारी संपादक हैं, राउत गले में एक भगवा स्टोल डालकर अपने घर से बाहर निकले, और उन्होंने मां से कहा, ‘तुझा मुलगा डरनारा नाहि, लडनारा आहे (तुम्हारा बेटा डरता नहीं, लड़ता है)’.

राज्यसभा सांसद ने उस दिन अपनी मां से जो कहा, वो पिछले दो वर्षों से उनका मंत्र रहा है.

60 वर्षीय राउत विपक्षी नेताओं के बीच सबसे बुलंद और सबसे निरंतर आवाज़ रहे हैं, जो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं.

दो साल से भी अधिक से, हर सुबह राउत टेलीवीज़न पर आ जाते थे और पिछले दिन की सियासी ख़बरों पर अपनी चुभने वाली टिप्पणी करते थे. सुबह की अपनी सभी प्रेस वार्त्ताओं के अंत में, वो बीजेपी पर केंद्रीय एजेंसियों के ज़रिए अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाव में लाने का आरोप लगाते थे.

इस साल अप्रैल के बाद उनके आरोप और भी तीखे हो गए, जब ईडी ने पात्रा चाल पुनर्विकास मामले में कथित अनियमितताओं की जांच के सिलसिले में, मनी लॉण्ड्रिंग का आरोप लगाते हुए उनकी संपत्तियों को ज़ब्त कर लिया.

पूर्व मराठी पत्रकार 1980 के दशक में शिव सेना से जुड़ गए थे, और पिछले चार दशकों में अपने चुभते संपादकीयों के ज़रिए, धीरे धीरे टेलीवीज़न और प्रिंट में पार्टी की आवाज़ बन गए.

उनके शब्द और उनका अंदाज़ बिल्कुल सेना संस्थापक बाल ठाकरे, और बाद में बेटे उद्धव ठाकरे की तरह था, और ठाकरे परिवार से नज़दीकी की वजह से राउत ने पार्टी के अंदर भी अपनी प्रमुखता क़ायम कर ली.

पार्टी के भीतर और महाराष्ट्र के सियासी हलक़ों में अपनी ज़बर्दस्त तरक़्क़ी के चलते, राउत ने अपनी राह में बहुत से दुश्मन पैदा कर लिए, जिनमें से कई उनके अपने पार्टी सहयोगी ही थे.

पवार से करीबी रिश्ते, बागी खेमे के निशाने पर

पात्रा चाल केस में ईडी द्वारा राउत की संपत्तियां ज़ब्त किए जाने के अगले दिन, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अध्यक्ष शरद पवार ने कथित रूप से इस मामले को सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उठाया है.

राउत हमेशा से पवार के करीबी रहे हैं, ये कोई रहस्य नहीं है. इतने करीबी, कि महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने पिछले साल ‘शरद पवार के प्रवक्ता’ कहकर उनकी आलोचना की थी, जब पूर्व महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के तीन सहयोगियों- शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच मतभेद चल रहे थे. ये भी सब जानते हैं कि 2019 में सेना के दूत के तौर पर, राउत ने सेना के गठन में एक अहम भूमिका निभाई थी.

बहुत से शिवसेना विधायक और सांसद जिन्होंने- अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में- पिछले दो महीने में उद्धव ठाकरे के खिलाफ बग़ावत की थी, उन्होंने भी राउत पर वही आरोप लगाए जो पटोले ने लगाए थे.

पिछले महीने, शिंदे के नेतृत्व वाले बागी गुट के प्रवक्ता दीपक केसरकर ने राउत को पवार की ‘आंखों का तारा’ कहा था, जो ‘शिवसेना को ख़त्म कर देना’ चाहता है.

हर तीन में से एक बागी विधायक ने सेना से बाहर निकलने के लिए राउत को पूरी तरह से दोषी ठहराया, और उनपर पार्टी प्रमुख उद्धव के साथ सुलह की बातचीत को पटरी से उतारने का आरोप लगाया.


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सेना के भीतर राउत का सफर

1980 के दशक में मराठी दैनिकलोकसत्ता के विज्ञापन विभाग से लेकर, शिवसेना के नेताओं की गिनती में आने तक के राउत के सफर पर नज़र डालना, ख़ुद उसके सफर से भी कठिन है. उनके जीवन का खुलापन बीच में आई सिलवटों का पता लगाना मुश्किल कर देता है.

शिवसेना के साथ अपने लगभग चार दशकों के जुड़ाव में, राउत की तरक़्क़ी के लिए केवल ठाकरे परिवार- दिवंगत शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे, और वर्तमान प्रमुख उद्धव- से नज़दीकी को ही कारण नहीं बताया जा सकता.

उन्हें नज़दीक से जानने वाले कहते हैं, कि राउत ने बिना किसी शॉर्टकट के तरक़्क़ी की सीढ़ी चढ़ी है.सामना के कार्यकारी संपादक के तौर पर, राउत के लिए एक दैनिक आधार पर ठाकरे परिवार से मिलना ज़रूरी होता है, जिसकी वजह से वो क़रीबी जांच के दायरे में आ जाते हैं.

सामना में उनके तेज़ और हाज़िरजवाबी वाले अंदाज़ के चाहने वाले अच्छी ख़ासी संख्या में हैं. उनके लिखे हुए शब्दों को, जिन्हें पार्टी प्रमुख की आवाज़ समझा जाता है, सैनिक अपने लिए पवित्र समझते हैं.

जब से राउत ने अख़बार की बागडोर अपने हाथों में संभाली है, उसके बाद के सालों में संपादकीयों को किसी संस्था के जैसा दर्जा देने का श्रेय, पूरी तरह राउत को ही जाता है.

एक मुम्बई-स्थित पत्रकार जिसे ये ज़िम्मा सौंपा गया है, उसने कहा, ‘सभी न्यूज़रूम्स हर रोज़ सामना संपादकीयों पर क़रीबी नज़र रखते हैं’.

बाल ठाकरे के साथ राउत की बातचीत से पार्टी संस्थापक को उनके राजनीतिक कौशल की झलक मिल गई थी. शिवसेना प्रमुख के प्रति उनकी अटल निष्ठा ने उन्हें तरक़्क़ी देकर दिल्ली के सियासी गलियारों तक पहुंचा दिया.

राउत पहली बार 2004 में राज्यसभा के लिए चुने गए थे, और अब ये उनका चौथा कार्यकाल है.

उन्हें अचानक शोहरत तब हासिल हुई, जब ठाकरे कज़िन्स- उद्धव और राज- के बीच अंदरूनी लड़ाई ने एक ख़राब रूप ले लिया. चूंकि उन्हें राज ठाकरे का एक क़रीबी दोस्त समझा जाता था, इसलिए उन्होंने मामले को सुलझाने की कोशिश की.

जनवरी 2006 में, जब राज ठाकरे अपने चाचा की पार्टी से टूटकर अलग हो गए, तो राउत को हर दिन कृष्ण कुंज (राज ठाकरे का आवास) जाते, और फिर वहां से वापस मातोश्री (बाल ठाकरे का आवास) लौटते हुए, टीवी चैनलों पर तक़रीबन हर घंटे दिखाया जाता था.

जब शिवसेना के कई नेता पाला बदलकर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) में गए, तो राउत के बाल ठाकरे के साथ बने रहने के फैसले ने बहुत से लोगों को चौंका दिया था, चूंकि उन्हें एक निश्चित भगोड़े के तौर पर देखा जा रहा था. इस फैसले से पार्टी में राउत का क़द तो नहीं बढ़ा, लेकिन उसने उद्धव ठाकरे को सतर्क रहने को ज़रूर मजबूर कर दिया.

हालांकि राउत ने अपने काम के ज़रिए शिवसेना के प्रति निष्ठा का संकल्प लिया है, लेकिन सूत्रों का कहना था कि उनके उद्धव के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध हैं.

एक सूत्र ने कहा, ‘ये वैसी दोस्ती नहीं है जैसी उनकी राज साहब के साथ है. उद्धव जी उनकी इस दोस्ती को लेकर सहज नहीं हैं’.

शिवसेना के भीतर उनकी निरंतर तरक़्क़ी का सीधा संबंध ठाकरे परिवार की अनुपलब्धता से है. चूंकि वो संपादकीय लिखते थे और तक़रीबन हर रोज़ ठाकरे परिवार से मिलते या बात करते थे, इसलिए राउत सैनिकों और मीडिया के लिए एक संपर्क सूत्र बन गए.

सूत्रों के अनुसार, राउत की सबसे बड़ी ताक़त ठाकरे के शब्दों को लिखने, और व्यक्त करने की उनकी क्षमता है. एक सूत्र ने कहा कि ‘एक आम सैनिक के लिए ये संपादकीय साहब का आदेश होते हैं’.

इन संपादकीयों के ज़रिए, राउत ने सैनिकों के बीच अच्छे ख़ासे प्रशंसक पैदा कर लिए हैं.

फिल्म पत्रकार दिलिप ठाकुर 1980 के दशक की शुरुआत में राउत से मिले थे, जब दोनों मराठी पतेरिकारंजन के लिए फ्रीलांस लेखक थे. हालांकि एक समय तक उनका करियर ग्राफ एक जैसा था, लेकिन 1992 में सामना में जाने के बाद राउत का ग्राफ तेज़ी से बढ़ गया.

ठाकुर ने बताया, ‘वो एक ऐसे व्यक्ति थे जो दूसरों से अलग दिखना चाहते थे. शिवसेना में आगे बढ़ने के साथ ही उनके संपर्क भी बढ़ने लगे. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है. शिवसेना में रहकर तरक़्क़ी कर पाना आसान नहीं होता’.

हालांकि उनकी दोस्ती अभी भी बरक़रार है, लेकिन राउत के व्यस्त कार्यक्रम के चलते ठाकुर के साथ होने वाली उनकी बातचीत कम हो गई है.


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अलीबाग का ‘काम का लती’

राउत का ताल्लुक़ चोंधी गांव से है जो अलीबाग (मुम्बई के निकट एक तटीय क्षेत्र) में आता है. उनके स्पीड डायल में जो लोग हैं, उनसे दूसरों को ईर्ष्या हो सकती है.

राउत के क़रीबी लोगों का कहना है कि उन्हें काम की लत है, और वो अपनी एंजियोप्लास्टी तब तक टालते रहे जब तक सीने का दर्द असहनीय नहीं हो गया.

एक सूत्र ने कहा, ‘वो मानते हैं कि हर दिन उन्हें कम से कम एक पेज लिखना ही है. वो जहां भी हों, एक पेज ज़रूर लिखते हैं’.

रंजन के साथ लेखन कार्यकाल के बाद, राउत मार्मिक के लिए लिखने लगे जो बाल ठाकरे द्वारा स्थापित एक राजनीतिक पत्रिका थी, जिसके बहुत बाद उन्होंने सामना शुरू किया. कार्टून्स के रूप में बालठाकरे के राजनीतिक व्यंग्य ने मार्मिक को पूर्व के बॉम्बे में एक लोकप्रिय पत्रिका बना दिया, जो उन दिनों शिवसेना की आंदोलनकारी राजनीति की गिरफ्त में था.

13 अगस्त 1984 को मार्मिक के एक लेखक के तौर पर, राउत ने शनमुखानंद हॉल में आयोजित पत्रिका के स्थापना दिवस समारोह में बाल ठाकरे के साथ मंच साझा किया. ठाकुर ने कहा, ‘हम दोनों को मंच पर बालासाहेब के साथ बैठने का मौक़ा मिला’.

और हालांकि राउत मार्मिक छोड़कर पहले लोकसत्ता और फिर लोकप्रभा चले गए, लेकिन बाल ठाकरे के साथ उस मुलाक़ात का उनपर देर तक असर बना रहा. उन्हें नहीं मालूम था कि पहली मुलाक़ात बरसों के बाद, नौकरी के एक अवसर में बदल जाएगी.

जिस तरह वे एक न्यूज़रूम से दूसरे में गए, उसी तरह ठाकरे लोगों के साथ उनकी सोहबत भी बदलती गई.

राउत मशहूर संगीतकार श्रीकांत ठाकरे को भी बहुत मानते थे, जो बाल ठाकरे के भाई और राज के पिता थे. अकसर उनके घर जाते रहने की वजह से, राज ठाकरे और राउत के बीच दोस्ती के परवान चढ़ने में देर नहीं लगी.

बैंकर प्रकित सारंग और राउत सेंट्रल मुम्बई में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर कॉलेज ऑफ कॉमर्स में साथ पढ़ते थे. सारंग ने, जो राउत के संपादकीयों के प्रशंसक हैं, कहा, ‘जब वो कॉलेज में थे तो मार्मिक के लिए लिख रहे थे. हम मंत्रमुग्ध थे कि हमारे बीच एक लेखक मौजूद था. हमें गर्व था कि हम उन्हें जानते थे’.

सारंग भी राउत के ‘काम का लती’ होने की पुष्टि करते हैं.

सारंग ने बताया, ‘मैं परेल में रहता हूं. जब वो सामना में आए थे तो उसका ऑफिस परेल में था. बहुत बार मैं गपशप के लिए उनके पास जाकर बैठ जाता था. लेकिन पांच मिनट बात करने के बाद ही वो मुझसे कह देते थे कि उनके पास काम है. वो दोस्ती को अपने काम की राह में आड़े नहीं आने देते थे’.

राउत के लेखों ने बहुत मौक़ों पर विवाद भी खड़े किए हैं. अप्रैल 2015 में, सामना संपादकीय की ये लिखने के लिए कड़ी आलोचना हुई, कि मुसलमानों से वोटिंग का अधिकार ले लिया जाना चाहिए. उद्धव ठाकरे की भावनाओं का अनुकरण करते हुए राउत ने लिखा था, कि जब तक मुसलमानों का एक वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा, तब तक उनका कोई भविष्य नहीं है.

जब भी संपादकीयों से विवाद खड़े हुए और सच्चाई असुविधाजनक हुई, ठाकरे परिवार ने यही रुख़ इख़्तियार किया, कि वो राउत के विचार हैं, उनके नहीं.

विस्तृत ठाकरे परिवार के बहुत से सदस्य बॉलीवुड से जुड़े हैं, और इसीलिए राउत का बॉलीवुड के मैदान में उतरना एक स्वाभाविक प्रगति थी. उन्होंने बाल ठाकरे पर एक बायोपिक ठाकरे फिल्म प्रोड्यूस की और उसे लिखा भी, जिसे दिसंबर 2018 में रिलीज़ किया गया.

फिल्म की रिलीज़ से पहले, राउत ने दिप्रिंट से कहा था कि सेना के संस्थापक का जीवन किसी हॉलीवुड या बॉलीवुड फिल्म की कहानी से कम नहीं था. उन्होंने कहा था, ‘किसी भी फिल्म के लिए जो मसाला चाहिए होता है, वो इस फिल्म में मौजूद है’.

यही बात शायद ख़ुद राउत के लिए भी कही जा सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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