नई दिल्ली: “निरोधात्मक गिरफ्तारी”, “क्षेत्रीय वर्चस्व अभ्यास, गश्त और फ्लैग मार्च” और “जागरूकता कार्यक्रम” – यही कारण है कि दशकों के बाद कश्मीर घाटी में संसदीय चुनावों में मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने दिप्रिंट को यह जानकारी दी.
पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “यह एक बहुत बड़ा काम था. हमें निर्देश दिए गए थे कि सभी संसाधनों को एक साथ लाया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मतदान प्रतिशत अच्छा हो और मतदाता बिना किसी डर के मतदान करने के लिए बाहर जा सके.”
पुलिस सूत्रों ने बताया कि पिछले दो महीनों में पुलिस ने कई उपद्रवियों को एहतियातन गिरफ्तार किया है, जिनमें घाटी में अभी भी सक्रिय कार्यकर्ता, अलगाववादी प्रवृत्ति वाले लोग और हिरासत में लिए गए बदमाश तथा आपराधिक मामलों में इतिहास वाले लोग शामिल हैं.
इसके अलावा, पुलिस ने लोगों को वोट देने के लिए मनाने के लिए सार्वजनिक बैठकें भी कीं.
पुलिस के एक सूत्र ने बताया, “निवारक गिरफ्तारियों से लेकर हिरासत में लिए जाने, फ्लैग मार्च करने, इलाके में दबदबा बनाने की कवायद, रात में गश्त करने तक, हमने यह सब किया. हमने अन्य सुरक्षा बलों की सहायता से लगातार आतंकवाद-रोधी अभियान भी चलाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोग बिना किसी डर के मतदान करने के लिए बाहर निकल सकें. यह अभूतपूर्व था क्योंकि लोग बिना अपना चेहरा ढके मतदान करने के लिए बाहर आए, जो घाटी में दुर्लभ था. आतंकवादियों के डर से शायद ही कोई मतदान करने के लिए बाहर आता था, जो कोई भी आता था, वो अपना चेहरा ढक लेता था.”
सूत्र ने कहा कि ईसीआई के दिशा-निर्देशों के तहत स्थापित स्थैतिक निगरानी टीमों और फ्लाइंग स्क्वायड टीमों द्वारा की गई कार्रवाई ने भी इसमें भूमिका निभाई.
सूत्र ने कहा, “इन टीमों का गठन हथियारों, गोला-बारूद की आवाजाही, नकदी या वस्तु के रूप में रिश्वत की वस्तुओं के वितरण पर नज़र रखने के लिए किया गया था.”
पिछले दो दशकों में संसदीय चुनावों में मतदाताओं का प्रतिशत सोपोर, शोपियां, पुलवामा और त्राल के क्षेत्रों में मात्र 1 से 2 प्रतिशत रहा है — जो उग्रवादियों द्वारा बहिष्कार के आह्वान के कारण उग्रवादियों के गढ़ हैं. पत्थरबाजी की घटनाएं और हड़तालें यहां आम बात थीं. हालांकि, इस बार, जब जम्मू-कश्मीर में मतदान हुआ, तो अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद पहली बार 1996 के बाद से सबसे अधिक मतदान हुआ.
शोपियां, त्राल और पुलवामा में जहां उम्मीद से अधिक मतदान हुआ, वहां क्रमश: 47.88 प्रतिशत, 40.29 प्रतिशत और 43.42 प्रतिशत मतदान हुआ, वहीं प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के गढ़ सोपोर में मतदाताओं के व्यवहार में नाटकीय बदलाव देखा गया, जहां 2019 में दर्ज किए गए मात्र 4 प्रतिशत से मतदान बढ़कर 44.2 प्रतिशत हो गया.
जम्मू-कश्मीर के अधिकारियों के अनुसार, यह इन क्षेत्रों में नागरिक सहभागिता और भागीदारी में वृद्धि की ओर एक उल्लेखनीय बदलाव को दिखाता है. एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि वास्तव में, आतंकवाद से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों के गांवों में शहर की तुलना में अधिक मतदान हुआ.
श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र में कुल मतदान 38.40 प्रतिशत दर्ज किया गया, जो 2019 में 13 प्रतिशत था. बारामुला संसदीय क्षेत्र में 59 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जो 2019 में 34.6 प्रतिशत था और परिसीमन के बाद पुनर्गठित अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट पर 52.28 प्रतिशत मतदान हुआ.
2019 के चुनावों में अनंतनाग में 8.98 प्रतिशत मतदान हुआ था. हालांकि, निर्वाचन क्षेत्र के पुनर्गठन को देखते हुए यह तुलना जटिल है, जिसमें अब जम्मू क्षेत्र के कुछ हिस्से शामिल हैं, जो उच्च चुनावी भागीदारी के लिए जाने जाते हैं. पूर्ववर्ती अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र में पुलवामा और शोपियां के पूरे जिले शामिल थे.
परिसीमन के बाद, पुलवामा और शोपियां के दो विधानसभा क्षेत्रों में से एक को श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र में शामिल कर दिया गया. नतीजतन, जम्मू क्षेत्र के राजौरी और पुंछ जिले अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र में शामिल कर दिए गए.
मतदान केंद्रों पर कतार में लगे मतदाताओं ने दिप्रिंट को बताया कि वह “कश्मीर की बेहतरी” की सामूहिक आकांक्षा और अपने चुनावी जनादेश को व्यक्त करने की इच्छा रखते हैं. मतदाताओं ने जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रतिनिधित्व की तत्काल ज़रूरत पर जोर दिया, जो 2018 से राज्यपाल शासन के अधीन है. मतदाता भागीदारी में वृद्धि ने पीढ़ीगत बदलाव को भी चिह्नित किया, जिसमें पहली बार मतदाता और यहां तक कि 50 और 60 के दशक के व्यक्ति भी पहली बार मतदान कर रहे हैं.
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‘सुरक्षा माहौल में सुधार’
दिप्रिंट से बात करते हुए एक अन्य वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि इसका श्रेय पिछले चार-पांच सालों में घाटी में “सुरक्षा माहौल में सुधार” को जाता है.
अधिकारी ने कहा कि कश्मीर में राजनीतिक गतिविधि शून्य थी, जो कि अब बदल गई है.
अधिकारी ने कहा, “राजनीतिक दल इन इलाकों में प्रचार या रैलियां करने की परवाह नहीं करते थे क्योंकि ये खास नेताओं के गढ़ थे. इसके अलावा, ऐसे कई इलाके हैं जो अलगाववादियों के गढ़ थे जो पूरी तरह से चुनावों का बहिष्कार करते थे. वहां कोई राजनीतिक प्रक्रिया नहीं थी. यह एक बड़ा बदलाव है.”
अधिकारी ने बताया कि इस चुनाव में सभी दलों के सभी उम्मीदवार प्रचार करने के लिए आए और उन सभी की पुलिस ने मदद की.
अधिकारी ने बताया, “उन्होंने रैलियां, रोड शो और राजनीतिक बैठकें कीं जो बेहद आराम से हो गईं. थीं। पिछले दो दशकों में कश्मीर की सड़कों से यह पूरी तरह से गायब था. हमने सुनिश्चित किया कि हमने इन दलों को सुरक्षा दी ताकि वह इन राजनीतिक बैठकों और रैलियों को आयोजित करने के लिए बाहर जाएं.”
अधिकारी ने कहा कि पत्थरबाजी रोकने के लिए भी सख्त कदम उठाए गए.
उन्होंने कहा, “हमने दो महीने तक लगातार काम किया ताकि कोई घटना न हो. यह एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र है और इसमें अतिरिक्त देखभाल की ज़रूरत है. लक्षित हत्याओं की सूचना थी, इसलिए हम घटनाओं को रोकने के लिए पूरी तरह से तैयार थे.”
अधिकारी ने कहा, “इससे स्थिरता में मदद मिली और मतदाताओं के लिए एक अनुकूल माहौल बना. इसके अलावा, नागरिक प्रशासन द्वारा चलाए गए जागरूकता कार्यक्रम और उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को संगठित करने से भी मदद मिली.”
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