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Friday, 20 December, 2024
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2021 के लिए बीजेपी-तृणमूल के बीच होड़ गर्माने के साथ ही बंगाल में राजनीतिक हिंसा बढ़ी

बंगाल की राजनीति बरसों से हिंसा के आरोपों से कलंकित रही है. हाल ही के दिनों में बीजेपी ने अपने सदस्यों के साथ तथाकथित हिंसा के लिए तृणमूल पर हमले तेज़ कर दिए हैं.

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कोलकाता: 4 अक्टूबर को नॉर्थ 24 परगना ज़िले में, टीटागढ़ के सीनियर बीजेपी नेता और स्थानीय पार्षद, मनीष शुक्ला की एक टी स्टॉल पर गोली मारकर हत्या कर दी गई. मीडिया ने अज्ञात पुलिस अधिकारियों का हवाला देते हुए, इशारा किया है कि हत्या के पीछे कोई निजी एंगल हो सकता है. इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, और पुलिस को कथित रूप से इसका लिंक, बरसों पुराने हत्या के एक मामले से मिला है, जिसमें शुक्ला का नाम सामने आया था. लेकिन बीजेपी इस बात पर ज़ोर दे रही है, कि ये हत्या राजनीति से प्रेरित थी.

13 अक्टूबर को, एक बीजेपी कार्यकर्ता रबींद्रनाथ मंडल पर, नॉर्थ 24 परगना के हिंगालगंज में, उनकी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच टकराव में, कथित रूप से हमला किया गया. छह दिन बाद, कोलकाता के एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई.

दो हफ्ते भी नहीं हुए थे कि 24 अक्टूबर को, हावड़ा ज़िले के बगनान में बीजेपी के एक बूथ कमेटी सदस्य, किंकर मांझी पर एक तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता ने गोली चला दी, जो उनका पड़ोसी भी था. चार दिन बाद, कोलकाता के एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई. यहां भी पुलिस किसी निजी एंगल की जांच कर रही है, लेकिन बीजेपी ने दावा किया है, कि हत्या का मक़सद पूरी तरह सियासी था.

26 अक्टूबर को, नॉर्थ 24 परगना के जगतदल में एक बीजेपी कार्यकर्ता, मिलन हलदर की कथित रूप से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई. उसी दिन, पश्चिम मिदनापुर ज़िले में सियालसाई बूथ कमेटी के उपाध्यक्ष बच्छू बेरा, एक जंगल में पेड़ से लटके पाए गए. वो दो दिन से लापता चल रहे थे. परिवार ने उनकी मौत के आत्महत्या होने की संभावना को ख़ारिज किया है, और कहा है कि मरने से पहले, तृणमूल कांग्रेस के कुछ सदस्य उन्हें ढूंढते हुए घर आए थे. बीजेपी का आरोप है कि बेरा भी राजनीतिक हिंसा का ही शिकार हुए.

पश्चिम बंगाल में अब से कुछ ही महीनों में विधान सभा चुनाव होंगे, तो राजनीतिक हिंसा का मुद्दा- जिसे बहुत समय से राज्य की सियासत की एक कड़वी सच्चाई माना जाता है- फिर से केंद्र में आ सकता है. 11 नवंबर को बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं को मुख़ातिब करते हुए, पीएम नरेंद्र मोदी ने इसे स्पष्ट कर दिया था, जब उन्होंने कहा था, ‘मौत के खेल से मत नहीं मिल सकता’.

उन्होंने सूबे की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस, या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका इशारा बिल्कुल साफ था. कई महीनों से बीजेपी, तृणमूल कांग्रेस पर उसके खिलाफ ख़ूनी मुहिम चलाने का आरोप लगाती आ रही है. बीजेपी पश्चिम बंगाल में सत्ता पर क़ब्ज़ा चाहती है, जहां वो कभी सरकार में नहीं रही है, लेकिन हालिया सालों में बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही है.

जुलाई में, पार्टी ने एक पुस्तिका जारी की, जिसमें 107 सदस्यों के नाम दिए गए थे, जो उसके अनुसार राज्य में पिछले पांच सालों में हुई राजनीतिक हिंसा में मारे गए थे.

तृणमूल कांग्रेस ने सभी आरोपों से इनकार किया है, और बीजेपी पर इल्ज़ाम लगाया है, कि झूठे दावे करना उसकी आदत रही है. तृणमूल का दावा है कि उसके 1,000 से अधिक कार्यकर्ता, 1998 के बाद से राजनीतिक हिंसा का शिकार रहे हैं.

बंगाल में सियासी लड़ाई के गर्माने के साथ ही, राज्य के विश्लेषकों में चिंता फैल गई है. उन्हें डर है कि 2021 का पश्चिम बंगाल चुनाव प्रचार, शांति से नहीं गुज़रेगा.

बंगाल में राजनीतिक हिंसा

बंगाल की राजनीति बरसों से हिंसा के आरोपों से कलंकित रही है, हालांकि इसके किरदार बदल गए हैं. इसकी शुरूआत वाम दलों और कांग्रेस के साथ हुई, फिर वाम दल और तृणमूल कांग्रेस, और अब ये बीजेपी बनाम तृणमूल कांग्रेस हो गई है.

ख़ूनी हिंसा की कुछ कहानियां दशकों बाद भी, अभी तक ख़त्म नहीं हुई हैं, जिनमें 1970 की सैनबाड़ी हत्याएं शामिल हैं, जब सीपीआई(एम) के सदस्यों ने, कांग्रेस का समर्थन करने वाले एक परिवार पर, कथित रूप से हमला करके, उसके दो सदस्यों को मार डाला था.


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अलग-अलग पार्टियों के सत्ता में रहने के दौरान, सरकारी मशीनरी के ज़रिए हिंसा फैलाने के आरोप लगते रहे हैं, जैसा कि 1993 की घटना में हुआ, जहां पुलिस ने प्रदेश सचिवालय की ओर बढ़ रहे, युवा कांग्रेस के विरोध मार्च पर गोलियां चला दीं, जिसमें 13 लोग हलाक हो गए.

सूबे में 2018 के पंचायत चुनाव भी हिंसक संघर्षों को लेकर सुर्ख़ियों में रहे, जिनमें अलग अलग पार्टियों के 29 लोग मारे गए. 2003 के पंचायत चुनावों में भी, कथित रूप से 76 लोग मारे गए थे, जबकि 2013 के चुनावों में 39 लोगों की मौत हुई थी. पिछले लोकसभा चुनावों में भी, राज्य में हिंसा भड़की थी.

2018 में इंडियन एक्सप्रेस ने, वामपंथी पत्रिका मेनस्ट्रीम की 2010 में छपी एक ख़बर का हवाला दिया था, जिसमें कहा गया था कि 1977 से 2009 के बीच, राज्य में 55,000 राजनीतिक हत्याएं दर्ज की गईं थीं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के, 2019 में जारी आंकड़ों के मुताबिक़, राजनीतिक हत्याओं के मामले में ये राज्य, देश में सबसे ऊपर है. 2018 में, देश भर में दर्ज ऐसे 18 मामलों में, 12 पश्चिम बंगाल से थे.

दिप्रिंट के हाथ लगे पुलिस रिकॉर्ड्स से पता चलता है, कि इस साल जनवरी से अक्तूबर के बीच, पश्चिम बंगाल में कम से कम 43 राजनीतिक हत्याएं दर्ज की गईं, इस अवधि में कोविड लॉकडाउन का पूरा समय आ जाता है. बीजेपी का कहना है कि इन 43 में से, कम से कम 20 उसकी पार्टी के कार्यकर्ता थे.

इनमें से ज़्यादातर मामले दक्षिण बंगाल के नॉर्थ 24 परगना, हुगली, बीरभूम और मुर्शिदाबाद ज़िलों, और उत्तरी बंगाल के कूचबिहार से सामने आए थे.

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, कि इन ज़िलों में ‘वर्चस्व की लड़ाई’ चलती है. अधिकारी ने आगे कहा, ‘विश्लेषण से पता चला है कि इसके पीछे के कारण, इलाक़े में दबदबा, सियासी दुश्मनी, और स्थानीय मुद्दे होते हैं. लेकिन बीजेपी जो संख्या बता रही है, वो बढ़ाई हुई है’.

बीजेपी ने बंगाल को कहा ‘किलिंग फील्ड’, सीपीआई (एम) भी सहमत

दिप्रिंट से बात करते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव, कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि बंगाल एक ‘किलिंग फील्ड’ है.

उन्होंने कहा, ‘हमने विपक्ष द्वारा शासित बहुत राज्यों में काम किया है. हमने राजनीति का अपराधीकरण भी देखा है. लेकिन बंगाल तो एक किलिंग फील्ड प्रतीत होता है’. उन्होंने आगे कहा, ‘राज्य का प्रशासन और पुलिस, काडर्स की तरह काम करते हैं, वो हत्याओं की प्राथमीकि ही दर्ज नहीं करते’.

उन्होंने ये भी कहा, ‘पहले, राजनीतिक हिंसा और बर्बरता के मामले में, हम केरल को सबसे ख़राब समझते थे. बंगाल केरल से आगे निकल गया है. लेकिन, जैसा कि पीएम ने कहा, हम अपने रुख़ पर क़ायम रहेंगे, और यहां बदलाव लाएंगे’.

वैचारिक प्रतिद्वंदी होते हुए भी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्य, इस मुद्दे पर बीजेपी से सहमत हैं. सीनियर सीपीआई(एम) नेता सुजान चक्रवर्ती ने कहा, ‘हाल के समय में बंगाल सबसे हिंसक राज्य बन गया है. तृणमूल कांग्रेस हमेशा झूठे बहाने गढ़ती है, और कहती है कि वाम शासन के दौरान, हज़ारों लोग मारे गए थे’. उन्होंने आगे कहा,‘हमने हमेशा उनसे मारे गए लोगों की सूची मांगी है, और वो हमेशा देने में नाकाम रहे. हमारे पास 250 कॉरेड्स की लिस्ट है, जो पिछले 9 सालों में मारे गए’.

बीजेपी के आरोपों पर बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘बहुत से असंतुष्ट तृणमूल कार्यकर्ता बीजेपी में शामिल हो गए, इसलिए गुटीय झगड़ा अब तृणमूल बनाम बीजेपी हो गया है’.

दिप्रिंट ने मेल और टेक्स्ट के ज़रिए पुलिस महानिदेशक, मुख्य सचिव, और गृह सचिव को विस्तृत प्रश्नावलियां भेजकर, इन आरोपों पर राज्य सरकार का जवाब जानना चाहा, लेकिन ख़बर के छपने तक, उनका कोई जवाब हासिल नहीं हुआ था.

लेकिन, तृणमूल कांग्रेस इन आरोपों को ख़ारिज करती है, और उसका कहना है कि बीजेपी जो संख्या बता रही है वो ‘फर्ज़ी’ है, और राजनीतिक हत्याओं के इसके दावे ‘झूठे और प्रेरित’ हैं.

दिप्रिंट की ओर से पार्टी की आईडी पर भेजे गए सवालों के जवाब में, तृणमूल कांग्रेस ने मेल से भेजे अपने जवाब में कहा, ‘बिना किसी सबूत के झूठे इल्ज़ाम लगाना, बीजेपी का इतिहास रहा है. एआईटीसी (ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस) मृतकों के परिवारों से उनके प्रति संवेदना प्रकट करती है’.

पार्टी ने आगे कहा, ‘हम हमेशा राजनीतिक हिंसा के खिलाफ खड़े रहे हैं, और हर बार सख़्त कार्रवाई की गई है. इसके अलावा, पश्चिम बंगाल में किसी भी तरह के हमले की- पीड़ित का ताल्लुक़ चाहे किसी भी राजनीतिक दल से हो- बारीकी से जांच की जाती है. बीजेपी संख्या को बढ़ा-चढ़ाकर बता रही है, और उसके पास कोई ठोस सबूत नहीं हैं. ऐसे अधिकांश मामले पार्टी के भीतर अंदरूनी मुख़ालफत के हैं, चूंकि बीजेपी के अंदर बहुत से गुट मौजूद हैं’.

पार्टी ने कहा कि एआईटीसी ने ‘1998 के बाद से अपने कार्यकर्ताओं की मौत का लेखा-जोखा रखा हुआ है, जो राज्य भर में राजनीतिक हिंसा में शहीद हुए हैं’. उसने आगे कहा ‘वो संख्या 1067 है’.

तृणमूल सांसद सौगत रॉय ने बीजेपी पर आरोप लगाया, कि वो आत्महत्याओं को भी हत्याएं बता रही है. उन्होंने कहा,‘कम से कम आठ से दस केस ऐसे हैं, जिनमें उन्होंने आत्महत्याओं को हत्या दिखाने की कोशिश की है. इन मामलों में पुलिस को सुसाइड नोट्स मिले थे’.

वर्तमान में हिंसा के दौर पर बात करते हुए, राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर पार्था प्रतिम बिस्वास ने कहा, ‘सत्ताधारी पार्टी एक विपक्ष-मुक्त प्रदेश देखना चाहती है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘इसी से हालिया हिंसा को समझा जा सकता है. इसके अलावा, बहुत से तृणमूल सदस्य बीजेपी में चले गए हैं, इसलिए दोनों पार्टियों में एक ही तरह के शरारती तत्व शामिल हैं’.

साथी राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर समीर दास ने कहा, ‘जो पार्टी हिंसा की मशीनरी को क़ाबू कर लेगी, वो जीत जाएगी’.

उन्होंने आगे कहा, ‘यहां पर यही आम धारणा है. हम ये सुनते हुए बड़े हुए थे, कि बंगाल बिहार नहीं था’. उन्होंने ये भी कहा, ‘बिहार में चुनाव शांति से हो गए, कोई गोली नहीं चली. बंगाल में हम उसकी अपेक्षा नहीं कर सकते’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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