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Wednesday, 8 May, 2024
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बंगाल चुनाव में कांग्रेस-माकपा गठजोड़ को क्यों भाजपा और तृणमूल दोनों फायदे का सौदा मानते हैं

कांग्रेस और माकपा ने 2016 का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा था और लगभग 39% फीसदी वोट इनके खाते में आए. फिर 2019 में गठबंधन टूट गया जो एक ऐसा कदम था जिसने दोनों दलों को खासा नुकसान पहुंचाया.

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कोलकाता: बंगाल में प्रमुख दावेदार मानी जा रहीं सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दल भाजपा दोनों को ही इसका पूरा भरोसा है कि राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-माकपा के गठजोड़ से उन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा.

कांग्रेस और माकपा ने 2016 का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा था जिसमें वे 294 में से 76 सीटें जीतने और करीब 39 प्रतिशत वोट हासिल करने में सफल रहे थे. हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले यह गठबंधन टूट गया. अब शनिवार को दोनों दलों ने फिर पश्चिम बंगाल और असम चुनाव के लिए हाथ मिला लिया है, दोनों जगह अगले साल चुनाव होने हैं.

बंगाल में अपनी जड़ें जमा रही भाजपा इस गठबंधन को अपनी स्थिति मजबूत करने के एक अवसर के रूप में देखती है, वहीं सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को भी यही भरोसा है. दोनों ही दलों के पास इस बारे में अपने-अपने सियासी आकलन और तर्क हैं कि ये गठबंधन उन्हें कैसे फायदा पहुंचाएगा.

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने दिप्रिंट को बताया कि उनकी पार्टी का मानना है कि कांग्रेस-माकपा गठबंधन ममता बनर्जी के ‘अल्पसंख्यक वोट बैंक’ को खा जाएगा.

रॉय ने कहा, ‘मुझे यकीन है कि तृणमूल का मुस्लिम वोट बैंक विभाजित होगा. 2019 में मुसलमानों ने संगठित रूप से तृणमूल के पक्ष में वोट किया था. और हमें कांग्रेस और माकपा के हिंदू वोट मिले. हमारा वोट बैंक अब भी एकजुट और पहले की तरह बरकरार है. हालांकि, यह सब कुछ अनुमानों पर ही आधारित है लेकिन हम कह सकते हैं कि तृणमूल के मुस्लिम वोट-बैंक में सेंध लगेगी. यह भाजपा के लिए फायदेमंद होगा.’

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हालांकि, तृणमूल कांग्रेस इसे अलग परिप्रेक्ष्य में देखती है. पार्टी के दिग्गज नेता सौगत राय ने कहा, ‘हमारा अल्पसंख्यक वोट बैंक स्थिर है. वास्तव में तृणमूल कांग्रेस का 45 प्रतिशत वोट शेयर अभी भी एकजुट है.

उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस-माकपा गठबंधन विपक्ष के वोट बैंक में सेंध लगाएगा. ऐसे में तृणमूल विरोधी वोट एकजुट रहने के बजाए दो हिस्सों में बंट जाएगा. यह हमारे लिए लाभदायक साबित हो सकता है. 2019 में माकपा का वोट भाजपा के खाते में चला गया और इससे उसे काफी बढ़त मिली. लेकिन इस बार चुनाव में ऐसा नहीं हो पाएगा.’

उन्होंने आगे कहा कि कांग्रेस-माकपा गठबंधन में ‘कुछ खामी’ है. उन्होंने कहा, ‘भाजपा को रोकने के लिए उन्हें अपने गठबंधन पर काम करने की जरूरत है. उनका जनाधार और कार्यकर्ता एकजुट होने चाहिए. 2016 में कांग्रेस के वोट माकपा के खाते में नहीं गए जिसने माकपा को कमजोर किया.’

हालांकि, विशेषज्ञों का दावा है कि बिहार के चुनाव नतीजे बंगाल के राजनीतिक माहौल पर निश्चित तौर पर असर डालेंगे.

कोलकाता के राजनीतिक विश्लेषक बिस्वनाथ चक्रवर्ती ने कहा, ‘हम मुस्लिम वोट बैंक के एक हिस्से को कांग्रेस और माकपा के पक्ष में जाता देख रहे हैं. बंगाल की कांग्रेस इकाई पहली पार्टी है जिसने प्रवासी मजदूरों के पक्ष में बात की है और काम किया है.’

उन्होंने कहा, ‘प्रवासी मुस्लिम-बहुल हैं और वे बंगाल के सभी सीमावर्ती जिलों से आते हैं. माकपा ने भी उनके लिए कई काम किए हैं जैसे कैंटीन चलाना और प्रवासियों की मदद के लिए राहत बांटना. उन्हें इसका कुछ राजनीतिक लाभ मिल सकता है.’

उन्होंने कहा, ‘लेकिन बिहार चुनाव एक बड़ा फैक्टर है. अगर बिहार में कांग्रेस-राजद गठबंधन सफल नहीं रहता तो कांग्रेस-माकपा गठबंधन को मतदाताओं से बहुत ज्यादा समर्थन की गुंजाइश कम है. मालदा और मुर्शिदाबाद में कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को छोड़कर कांग्रेस राज्य में बेअसर साबित हो सकती है. इसलिए, बंगाल के दलों का काफी कुछ दांव पर हैं और उन्हें बिहार के नतीजों का इंतजार है.’


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कांग्रेस-माकपा गठबंधन

कांग्रेस-माकपा गठबंधन लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के बेहद खराब प्रदर्शन के बाद हुआ है. उन चुनावों में उनका कुल वोट शेयर 12 फीसदी पर सिमट गया था. सीटों के मामले में माकपा खाली हाथ ही रही थी. कांग्रेस राज्य की 42 संसदीय सीटों में से सिर्फ दो सीटें जीतने में सफल रही थी.

माकपा की केंद्रीय समिति ने ‘दोनों दक्षिणपंथी पार्टियों तृणमूल और भाजपा को हराने के लिए’ शनिवार को कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन को मंजूरी दी थी.

कांग्रेस हमेशा से ही राज्य में गठबंधन जारी रखना चाहती थी लेकिन माकपा पोलित ब्यूरो ने ही 2019 के आम चुनावों से पूर्व इस गठजोड़ तोड़ने का फैसला किया.

इससे दोनों दलों को काफी क्षति पहुंची थी.

2016 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 44 सीटें जीतीं, वहीं माकपा को 26 सीटें मिली थी. छह सीटों पर अन्य वामपंथी दलों के प्रत्याशी जीते थे. इन सभी ने कुल मिलकर 39% वोट हासिल किया.

2019 के लोकसभा चुनावों में वाम दलों ने 6.34 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया जो 2016 के विधानसभा चुनावों में 26 प्रतिशत की तुलना में एक बड़ी गिरावट थी. माकपा न केवल एक भी सीट जीतने में नाकाम रही, बल्कि किसी विधानसभा क्षेत्र में बढ़त तक हासिल नहीं कर पाई. 2016 में मिले 12.25 प्रतिशत की तुलना में 2019 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटकर 5.67 फीसदी रह गया. हालांकि पार्टी ने दो लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की और नौ विधानसभा क्षेत्रों में इसे बढ़त भी हासिल हुई.

माकपा के वरिष्ठ नेता सुजान चक्रवर्ती ने माना कि आंकड़ों ने गठबंधन पर फैसले में एक भूमिका निभाई.

उन्होंने कहा, ‘हमारे बीच आपसी समझ हमेशा से थी. लेकिन हमारी पार्टी की व्यवस्था के तहत हमारे लिए हर स्थिति और व्यवस्था की समीक्षा और आकलन करना जरूरी होता है. इसलिए 2021 के लिए हमने कांग्रेस के साथ जाने का फैसला किया लेकिन यह केरल मॉडल को प्रभावित नहीं करेगा जहां हम सियासी प्रतिद्वंदी हैं. राजनीतिक समझौता उस राज्य विशेष के राजनीतिक परिदृश्यों पर निर्भर करता है. हमने एक ही सिक्के के पहलू समान दो दक्षिणपंथी पार्टियों भाजपा और तृणमूल से समान दूरी बना रखी है.’

सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर उन्होंने कहा, ‘सीट बंटवारे पर अभी चर्चा शुरू नहीं हुई है. बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद हम इस पर फैसला करेंगे.’

कांग्रेस ने भी बिहार के नतीजों तक इंतजार करने का फैसला किया है.

पश्चिम बंगाल कांग्रेस के प्रमुख अधीर रंजन चौधरी ने कहा, ‘हमारे लिए बहुत सारे राजनीतिक कार्यक्रम अब एक साथ करना जरूरी है. 2016 में जमीनी स्तर पर कांग्रेस और माकपा कार्यकर्ताओं के बीच कुछ दूरी रह गई थी. कांग्रेस कार्यकर्ताओं को कुछ आपत्तियां थीं और उन्होंने एक साथ चुनाव लड़ने के शीर्ष नेताओं के फैसले का विरोध किया था.’

उन्होंने कहा, ‘चूंकि बंगाल में कांग्रेस और माकपा के बीच प्रतिद्वंदिता का एक लंबा इतिहास रहा है, इसलिए उन्हें एक ही मंच पर लाना मुश्किल था. हमें अभी यह करने की आवश्यकता है और सीट-बंटवारे पर फैसला बाद में होगा.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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