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Saturday, 20 April, 2024
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त्रिपुरा, कर्नाटक की सीटों पर NPP की निगाहें, पर क्या वो ‘मेघालय की पार्टी’ का ठप्पा हटा पाएगी

NPP त्रिपुरा में पहली बार और कर्नाटक में दूसरी बार चुनाव लड़ रही है, जहां वो 2013 में कोई भी सीट नहीं जीत पाई थी, पार्टी नेताओं का कहना है कि 2023 के लिए उनका फोकस आदिवासी सीटों पर होगा.

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शिलॉन्ग: जब पूर्व लोकसभा स्पीकर पूर्णो अगिटोक संगमा ने मेघालय में 2013 में, नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) की नींव रखी– और औपचारिक रूप से एक मणिपुर-स्थित पार्टी कमान संभाली- तो उनकी महत्वाकांक्षा एक आदिवासी-केंद्रित राष्ट्रीय पार्टी खड़ी करने की थी. नौ साल बाद उनके बेटे मेघालय मुख्यमंत्री कोनराड संगमा पार्टी को मेघालय और उत्तर-पूर्व से आगे फैलाने के सतत प्रयास में लगे हैं.

इसी साल अगस्त में, दिल्ली में एनपीपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान, पार्टी अध्यक्ष ने अगले साल मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड में विधानसभा चुनावों का बिगुल फूंक दिया.

मेघालय में एनपीपी नेताओं ने पिछले सप्ताह दिप्रिंट से कहा कि पार्टी का इरादा अगले साल कर्नाटक में असेम्बली चुनाव लड़ने का इरादा है.

एनपीपी की युवा विंग नेशनल पीपुल्स यूथ फ्रंट के अध्यक्ष निकी नॉन्खलाव ने कहा, ‘फिलहाल हमारा फोकस मेघालय और नागालैंड पर है…हम एनपीपी को त्रिपुरा के नक़्शे पर लाना चाह रहे हैं. कर्नाटक में भी हम कुछ सीटों पर लड़ने जा रहे हैं’.

पार्टी के कुछ दूसरे नेताओं ने भी, देश में अपने पदचिन्ह फैलाने की एनपीपी की आशा के बारे में बात की.

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राज्यसभा सांसद और एनपीपी के मेघालय अध्यक्ष वानवेइरो खरलुखी ने कहा, ‘कोई हमें देश के दूसरे हिस्सों में जाने से नहीं रोक सकता; हमारा लक्ष्य आख़िरकार दिल्ली में एक मज़बूत और पर्याप्त प्रतिनिधित्व स्थापित करना है’.

उन्होंने आगे कहा कि पार्टी का फोकस आदिवासी सीटों पर रहेगा.

मेघालय में 2018 के असेम्बली चुनावों में, एनपीपी ने 60 में से 19 सीटें जीती थीं. (2018, 2019 और 2021 में उप-चुनावों के बाद ये संख्या बढ़कर 23 हो गई थी). कांग्रेस के 21 सीटों पर विजयी होने के बावजूद, एनपीपी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन करके, सत्ता पर क़ाबिज़ होने में कामयाब हो गई.

इस बीच, नागालैंड में 2018 के असेम्बली चुनावों में, एनपीपी ने दो सीटें जीत लीं.

दिप्रिंट से बात करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार, दो लगातार चुनावों के बाद हालांकि मेघालय और नागालैंड अभी भी उसके लिए परिचित मैदान हैं, लेकिन त्रिपुरा और कर्नाटक में सेंध लगाने की उसकी योजनाएं कुछ ज़्यादा ही महत्वाकांक्षी साबित हो सकती हैं. पार्टी त्रिपुरा में पहली बार और कर्नाटक में दूसरी बार चुनाव लड़ रही है, जहां 2013 के चुनावों में वो एक भी सीट नहीं जीत पाई थी.

मेघालय के अपने घरेलू मैदान पर बदलता राजनीतिक परिदृश्य, जिनमें तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का प्रवेश, राज्य में बीजेपी के साथ घिसे हुए रिश्ते, और भ्रष्टाचार के आरोप शामिल हैं, पार्टी को एक अलग तरह के नतीजे की ओर ले जा सकता है.


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विस्तार योजनाएं

पार्टी नेताओं ने बताया कि अगले साल त्रिपुरा और कर्नाटक दोनों के विधानसभा चुनावों में एनपीपी कई सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

मणिपुर से एनपीपी विधायक रामेश्वर सिंह ने, जो मणिपुर और नागालैंड के प्रभारी हैं, कहा, ‘हमने एक कमेटी का गठन किया है, और अगले साल नागालैंड तथा त्रिपुरा दोनों के विधानसभा चुनावों में, 20-25 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. दूसरी पार्टियों के लोग भी हमारे साथ शामिल हुए हैं’.

सिंह ने आगे कहा: ‘एनपीपी पिछले चार महीने से त्रिपुरा में मौजूद है. राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से यहां एक अच्छा अंतराल है (कोई एक पार्टी मज़बूत विपक्ष के रूप में नहीं उभर पाई है)…और हम एक ऐसी पार्टी हैं जो मुख्य रूप से लोगों के विकास की ओर देख रहे हैं’.

त्रिपुरा में 2023 के असेम्बली चुनावों के लिए टीएमसी के मैदान में उतरने से मचे कोलाहल के बावजूद, पार्टी एक मज़बूत प्रतिद्वंदी के तौर पर नहीं उभर पाई है. जून में हुए उप-चुनावों में, टीएमसी सभी चार सीटों पर हार गई थी.

ये पूछे जाने पर कि क्या त्रिपुरा में उनका फोकस आदिवासी सीटों (जो राज्य की कुल 60 में से 20 हैं) पर लड़ने का होगा, नॉन्खलाव ने कहा, ‘हमारे लिए सबसे पहले और महत्वपूर्ण हैं आदिवासी. हमारे पास वहां के अदिवासियों के अधिकारों और उनके फायदों के लिए एक स्थानीय अवधारणा है’.

इस बीच कर्नाटक में पार्टी सूबे की 224 असेम्बली सीटों में से 50-100 सीटों पर चुनाव लड़ने की सोच रही है.

कर्नाटक एनपीपी महासचिव प्रभु बॉस्को ने कहा कि बृहत बेंगलुरू महानगर पालिके (बीबीएमपी) चुनाव लड़ने पर भी ग़ौर कर रही है. उन्होंने कहा, ‘हम युवाओं तथा पहली बार के मतदाताओं पर फोकस कर रहे हैं…हमने कई युवा नेताओं की पहचान की है’. उन्होंने आगे कहा कि पार्टी आरक्षित वर्ग की सीटों पर भी फोकस करेगी.

बॉस्को के अनुसार, कर्नाटक में 50 प्रतिशत टिकट महिला उम्मीदवारों को दिए जाएंगे. राज्य में एनपीपी इस नारे के तहत संगठित हो रही है ‘मेरा वोट बिकने के लिए नहीं है’.

ये पूछने पर कि ‘उत्तर-पूर्व की एक पार्टी’ को कर्नाटक के मतदाता कैसे लेंगे, बॉस्को ने कहा, ‘कांग्रेस और बीजेपी की तरह ये एक राष्ट्रीय पार्टी है’.

हालांकि उनके तमाम आत्म-विश्वास के बावजूद, एनपीपी ने कर्नाटक में 2013 के चुनावों में 21 उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन वो एक भी सीट नहीं जीत पाई. बॉस्को ने कहा, ‘कर्नाटक में एक मज़बूत ताक़त बनकर उभरने में 10 साल लगेंगे…लेकिन अब हमें एक अच्छा रेस्पॉन्स मिल रहा है’.

‘बहुत अधिक महत्वाकांक्षी’

दिप्रिंट से बात करने वाले राजनीतिक विशेषज्ञों ने कहा कि उन्हें लगता है कि एनपीपी ने शायद अपनी बिसात से ज़्यादा पैर फैला लिए हैं.

असम विश्वविद्यालय में राजनीतिक शास्त्र विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ मॉज़ेज़ खरबिथाई ने कहा, ‘वो चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन उनमें जीत हासिल करना मुश्किल है. साथ ही वो लोगों को अपने साथ बनाकर नहीं रख पाए हैं. मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में, हमने लोगों को इस पार्टी में आते और जाते देखा है’.

खरबिथाई ने 2013 के राजस्थान चुनावों का उदाहरण दिया, जब एनपीपी चार सीटों पर चुनाव लड़ी थी और जीत गई थी. उन्होंने कहा, ‘वो नेताओं की वजह से जीते थे न कि पार्टी की वजह से. अगले चुनावों में नेताओं ने पार्टी को छोड़ दिया’.

शिलॉन्ग स्थित सिनॉड कॉलेज में राजनीतिक शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर बात्सखेम मिरबोह के अनुसार, ख़ासकर त्रिपुरा में चुनावी लड़ाई मुश्किल साबित हो सकती है.

उन्होंने कहा, ‘उन्हें बीजेपी जैसी एक राष्ट्रीय पार्टी से, और आदिवासी क्षेत्रों में तिपरा मोथा (प्रद्युत देब बर्मा की अगुवाई वाले त्रिपुरा इंडीजिनस प्रोग्रेसिव रीजनल अलायंस) से लड़ना होगा, जहां सेंध लगाना बहुत मुश्किल होगा’.

उन्होंने आगे कहा, ‘चूंकि उन्होंने मणिपुर (2022 चुनाव) में कुछ सीटें जीत ली हैं, इसलिए वो अपना पूरा ज़ोर लगा रहे हैं…उनका मुख्यालय दिल्ली में है लेकिन उन्हें अभी भी मेघालय की एक पार्टी के तौर पर देखा जाता है’.

मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश समेत उत्तर-पूर्व के दूसरे प्रांतों में, पार्टी ने अभी तक 10 से अधिक सीटें नहीं जीती हैं.

मणिपुर में, पार्टी 2022 के विधानसभा की अपनी तालिका में सिर्फ तीन सीटों का सुधार कर पाई है, जबकि उसने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उसने 60 में से कुल 7 सीटें हासिल कीं.

अरुणाचल प्रदेश में एनपीपी ने 2019 के असेम्बली चुनावों में पांच सीटें जीतीं थीं- विधायक तिरोंग आबोह के निधन की वजह से अभी उसके पास चार सीटें हैं- और चुनावों के बाद उसने बीजेपी के साथ गठबंधन किया था.


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अपनी ज़मीन पर बदलता परिदृश्य

इस बीच, जहां मेघालय विधानसभा सत्र ज़ोर-शोर से चल रहा है, वहीं 8 सितंबर को जब दिप्रिंट ने दौरा किया तो शिलॉन्ग के लचुमियर क्षेत्र में, एक पीले रंग की एक मंज़िला इमारत में स्थित एनपीपी ऑफिस में शांति पसरी हुई थी.

एक पार्टी पदाधिकारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘सत्र समाप्त होने के बाद गहमा-गहमी बढ़ेगी, हम कुछ विधायकों के पार्टी में शामिल होने की अपेक्षा कर रहे हैं. कई कांग्रेस समर्थक भी आ रहे हैं, जिनमें विधायक और बूथ-स्तर अध्यक्ष शामिल हैं’.

पार्टी सूत्रों ने कहा कि एनपीपी ने सभी 60 सीटों पर, अकेले दम पर चुनाव लड़ने का इरादा कर लिया है, और उम्मीदवारों का भी चयन कर लिया है. उन्होंने आगे कहा कि आने वाले कुछ महीनों में कम से कम तीन कांग्रेस विधायक, जिनके चुनाव लड़ने की अपेक्षा है, एनपीपी में शामिल हो सकते हैं.

सूत्रों के अनुसार तीन में से एक विधायक पूर्व प्रदेश कैबिनेट मंत्री और शिलॉन्ग पूर्व से वर्तमान कांग्रेस विधायक अंपरीन लिंग्दोह होंगे.

पीछे फरवरी में लिंग्दोह और राज्य के बाक़ी बचे चार कांग्रेस विधायकों ने, एनपीपी की अगुवाई वाले सत्तारूढ़ गठबंधन को समर्थन का संकल्प लेकर, अपनी पार्टी को एक और झटका दिया था, जिसने पिछले साल अपने 17 में से 12 विधायकों को टीएमसी के हाथों गंवा दिया था.

पांच नेताओं- लिंगदोह, मोहेंद्रो रापसंग, मैयरलबॉर्न सियम, किम्फा सिडनी मारबानियांग और पीटी सॉकमी- को पार्टी ने बीजेपी-समर्थित एमडीए (एनपीपी, बीजेपी और अन्य दलों के गठबंधन मेघालय डेमोक्रेटिक अलायंस) का समर्थन करने पर निलंबित कर दिया था, इसके बाद लिंगदोह ने कहा था कि विधायकों के पास अब कहीं और देखने के अलावा कोई चारा नहीं है.

एक्सपर्ट्स का कहना है कि कांग्रेस का पतन, जिसने 2018 के असेम्बली चुनावों में सबसे अधिक सीटें जीतीं थीं, एनपीपी और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (यूडीपी) के लिए लाभदायक रहा है.

मिरबोह ने कहा, ‘कांग्रेस का राज्य में एक मज़बूत जनाधार रहा है, जो अब घट रहा है, और अब एनपीपी तथा यूडीपी को, ख़ासकर खासी हिल्स में, उसका फायदा मिलेगा. यहां पर लोग पार्टियों को नहीं, नेताओं को वोट देते हैं’.

इस बीच नॉन्गख्लाव ने दिप्रिंट से कहा, ‘हम विस्तार करना चाहते हैं लेकिन सबसे पहले हमारा अपना घर मज़बूत होना चाहिए; इस बार हम बहुमत हासिल करने का लक्ष्य रख रहे हैं’.

लेकिन, पार्टी के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं.

‘भ्रष्टाचार फैक्टर’ और दूसरी चुनौतियां

पिछले कई महीनों में कोनराड संगमा की अगुवाई वाली सरकार को कथित भ्रष्टाचार और घोटालों पर बढ़ती हुई आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है.

पिछले महीने, टीएमसी ने मेघालय की शिलॉन्ग स्मार्ट शहर परियोजना में करोड़ों रुपए के घोटाले का आरोप लगाया था. राज्य के विपक्षी दल ने भी बिजली क्षेत्र में ‘बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार’ के लिए, एनपीपी पर तीखा हमला किया था.

बीजेपी विधायक एएल हेक ने ‘भ्रष्टाचार’ का हवाला देते हुए कहा कि इसकी वजह से उनकी पार्टी गठबंधन छोड़ने पर विचार करने लगी थी.

हेक ने कहा, ‘हाल ही में जब बीएल संतोष (बीजेपी राष्ट्रीय महासचिव) दौरे पर आए, तो बैठक के दौरान इस पर चर्चा हुई कि हम एमडीए से बाहर हो जाएंगे’. उन्होंने आगे कहा, ‘हमने ये फैसला इसलिए किया क्योंकि एमडीए सरकार में बहुत भ्रष्टाचार है’.

इन आरोपों का जवाब देते हुए सीएम ने कहा है, ‘हमारा रुख़ बहुत स्पष्ट है कि हमने जो कुछ भी किया है, वो प्रक्रियाओं तथा क़ानून के हिसाब से किया है, और हर चीज़ एक उचित, स्पष्ट और पारदर्शी तरीक़े से की गई है’.

लेकिन मिरबोह ने कहा कि ‘कुशासन’ की अवधारणा से लोगों के वोट देने के तरीक़े पर असर नहीं पड़ता और उन्होंने कहा कि जातीय संबंध और धन शक्ति जैसे मुद्दे ज़्यादा अहमियत रखते हैं.

राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार ज़्यादा बड़ी चुनौती, ज़मीनी स्तर से सीएम का कथित जुड़ाव न होना हो सकती है. विशेष रूप से गारो हिल्स में, जहां उनका अपना चुनाव क्षेत्र स्थित है, ये चुनौती पार्टी की संभावनाओं को नुक़सान पहुंचा सकती है.

पश्चिम गारो हिल्स के ज़िला मुख्यालय तुरा के एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘कोनराड ख़ुद को यहां (गारो हिल्स) के लोगों के साथ नहीं जोड़ पाए हैं…मुकुल संगमा के नेतृत्व वाली टीएमसी कहीं ज़्यादा बेहतर प्रदर्शन करेगी’.

खरबिथाई ने कहा, ‘कोनराड संगमा मीडिया के साथ बहुत दोस्ताना हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोग उन्हें नहीं जानते. ये पूर्णो संगमा की तरह नहीं है जिनकी एक लीडर के तौर पर तीन दशकों की यात्रा रही है’.

मिरबोह इससे सहमत थे, लेकिन उन्होंने इस तथ्य को उजागर किया कि फिर भी पिछले कुछ सालों में एनपीपी, एक ‘गारो पार्टी’ की अवधारणा को तोड़ने में कामयाब रही थी.

उन्होंने कहा, ‘जब पूर्णो संगमा नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी में थे (एनपीपी के गठन से पहले), तो वो खासी-जैंतिया हिल्स में कोई सेंध नहीं लगा पाए थे, लेकिन एनपीपी इस धारणा को तोड़ने में सफल रही है कि वो एक गारो पार्टी है.

मेघालय विधानसभा की कुल 60 सीटों में से 29 सीटें खासी हिल्स में हैं, सात जैंतिया हिल्स में हैं और 24 गारो हिल्स में हैं. राज्य के पिछले तीन मुख्यमंत्री गारो हिल्स से ही आए हैं.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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